कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम समझते हैं। अभी तक मानव के इतिहास में, या उपलब्ध वांग्मय में कल्पनाशीलता को समझने के स्त्रोत के रूप में नहीं पहचाना गया। मध्यस्थ-दर्शन के प्रस्ताव द्वारा ही कल्पनाशीलता के स्त्रोत की पहचान कराने की कोशिश शुरू हुआ। सर्व-मानव के पास कल्पनाशीलता है, जिससे वह समझ सकता है।
प्रश्न: यानी "मेरे" पास वह कल्पनाशीलता है, जिससे मैं अस्तित्व को समझ सकता हूँ?
केवल आपके पास ही नहीं, कुछ चुने ही लोगों के पास ही नहीं - "सर्व-मानव" के पास कल्पनाशीलता है। एक व्यक्ति में कोई बात arrest होता है - इस बात को अभी और यहीं समाप्त कर दो! आपके और हमारे पास ऐसी कोई ताकत नहीं है, जिससे समझ हममे ही रहे, हमसे बाहर नहीं जाए। दूसरे के पास जाए ही नहीं! अभी अत्याधुनिक संसार के साथ यही परेशानी है। अत्याधुनिक पढ़ाई व्यक्तिवादिता को बढाती है - "मैं ही लायक हूँ, बाकी सब बेकार हैं!" जबकि सच्चाई यह है - सम्पूर्ण अत्याधुनिक संसार जीव-चेतना में जी रहा है। "सम्पूर्ण अत्याधुनिक संसार जीव-चेतना में जी रहा है" - इस निर्णय पर हमको पहुंचना पड़ेगा।
सर्व-मानव के पास कल्पनाशीलता "नियति-प्रदत्त" विधि से है। मानव ने अपनी इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को "बनाया" हो, या "पैदा किया" हो - ऐसा नहीं है। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील होने से मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता नियति-प्रदत्त है। ज्ञान-अवस्था द्वारा स्वयं को प्रमाणित करने के लिए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता आवश्यक है। कल्पनाशीलता के प्रयोग से हम सच्चाई के साथ तदाकार-तद्रूप हो कर प्रमाणित करते हैं। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के प्रयोग से ही मनुष्य सच्चाई का अध्ययन कर सकता है, सच्चाई को प्रमाणित कर सकता है।
भ्रमित-अवस्था में कल्पनाशीलता आशा-विचार-इच्छा की अस्पष्ट गति है। भ्रमित-अवस्था = जीव चेतना। कल्पनाशीलता के प्रयोग से हम "ज्ञान" तक पहुँचते हैं। कल्पनाशीलता के आधार पर ही हम ज्ञानार्जन करते हैं। ज्ञानार्जन करना = शब्द के अर्थ के रूप में जो वस्तु इंगित है, उस अर्थ में हमारी कल्पना का तदाकार होना। ज्ञान को हम तदाकार-तद्रूप विधि से अनुभव करते हैं। कल्पनाशीलता पूर्वक जो हम तदाकार हुए - उसको "साक्षात्कार" कहते हैं। अनुभव होने पर, पारंगत होने पर तद्रूप हो गए। तद्रूप होना = अनुभव का प्रमाणित होना। यही मनुष्य का ऐश्वर्य है।
अनुभव आत्मा में होता है। अनुभव के फलस्वरूप पूरा जीवन अनुभव में तदाकार हो जाता है। फलस्वरूप अनुभव जीने में प्रमाणित होता है। मेरे जीवन में यही हो रहा है। हर परिस्थिति में अनुभव को प्रमाणित करने की प्रक्रिया मेरे जीवन में चल रही है। मुझ में अनुभव-सम्पन्नता अक्षय रूप में रखा है। ऐसे ही हर व्यक्ति अनुभव-संपन्न हो जाए। अनुभव ही ज्ञान-समृद्धि का अन्तिम-स्वरूप है। समझदारी की परिपूर्णता अनुभव में ही होता है - जो "दृष्टा पद" है। अनुभव जब जीने में आता है - उसे ही "जागृति" कहा है। जागृति ही अनुभव का प्रमाण है।
अनुभव-मूलक विधि से ही कल्पनाशीलता का प्रयोजन सिद्ध होता है। कल्पनाशीलता जब शरीर-मूलक विधि से दौड़ता है तो वह आशा-विचार-इच्छा तक ही सीमित रहता है। इसी लिए "अस्पष्ट" रहता है। अभी मनुष्य-जाति भ्रम-वश अस्पष्ट है। अस्पष्टता मानव को स्वीकार नहीं होता। स्पष्टता ही स्वीकार होता है। स्पष्ट होने के लिए अध्ययन कराते हैं। अनुभव-संपन्न व्यक्ति अनुभव-मूलक विधि से जो चिंतन-चित्रण-विचार-कार्य करता है - वह अध्ययन करने वाले के लिए "प्रेरणा" होती है। अनुभव-मूलक विधि से ही जीवन में चिंतन सक्रिय होता है।
अध्ययन-विधि से जीवन की दसों क्रियाएं क्रियाशील हो सकती हैं - यह "सम्भावना" बनता है। अध्ययन पूरा होने पर दसों क्रियाओं के क्रियाशील होने की निरंतरता बन जाती है। दसों क्रियाएं क्रियाशील हो सकने की "सम्भावना" बनने के आधार पर मनुष्य में जो खूबियाँ बनती हैं, वे अपने आप से स्पष्ट होती हैं। इस "सम्भावना" से पहले जो ४.५ क्रिया में घनीभूत रहते थे - उससे तो छूट जाते हैं। ४.५ क्रिया के खूंटे से तो छूट गए - लेकिन १० क्रिया के खूंटे से अभी बंधे नहीं हैं! बंध-जाने पर हमेशा के लिए बंध जायेंगे। मतलब - एक बार दसों क्रियाएं क्रियाशील होने पर उसकी निरंतरता बन जाती है।
अभी सम्पूर्ण शिक्षा-गद्दी, राज्य-गद्दी, और धर्म-गद्दी ४.५ क्रियाओं में घनीभूत है। मनुष्य अपने इतिहास में "स्व-विवेक" से जीवों से अच्छा जीने के लिए शोध-अनुसंधान करता ही रहा। जीवों से श्रेष्ठ जीने की सम्भावना स्वयं में उदय करने के लिए ही यह अध्ययन है। अध्ययन पूर्ण होने पर, अनुभव-मूलक विधि से जीवों से अच्छा - मानव-चेतना विधि से प्रमाणित करना बन जाता है।
सच्चाइयाँ जैसे-जैसे साक्षात्कार होने लगती हैं - अनुभव होने की "सम्भावना" उदय हो जाती है। पहले कल्पनाशीलता पूर्वक साक्षात्कार होगा - यह सम्भावना उदय होती है। फ़िर साक्षात्कार पूर्वक अनुभव होगा - वहाँ तक की सम्भावना उदय होती है। अनुभव होने के बाद प्रमाण स्वयं-स्फूर्त होता है, और उसकी निरंतरता होती है।
साक्षात्कार होने के लिए पहले पठन,
फ़िर परिभाषाओं के साथ अध्ययन।
साक्षात्कार क्रमिक रूप से होता है। पूरा सह-अस्तित्व साक्षात्कार होने पर वह पूर्ण होता है। सह-अस्तित्व में ही विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति साक्षात्कार होना। यह सब यदि साक्षात्कार हो गए तो तत्काल अनुभव होता है। मध्यस्थ-दर्शन का जो पूरा वांग्मय लिखा है, उसका आशय या प्रयोजन इतना ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
No comments:
Post a Comment