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Sunday, November 15, 2009

अच्छे और बुरे की सीमा-रेखा

आदर्शवादी युग की देन है - "श्रेष्ठतम भाषा"। और भाषा के स्वरूप में ही अच्छे कार्य और व्यवहार का उपदेश संपन्न हुई। इस प्रकार यह संदेश रहा - "अच्छी सोच" और "अच्छे कार्य" को "अच्छी बात" से जोड़ना जरूरी है। किंतु आदर्शवादी विधि से "अच्छे" और "बुरे" की सीमा-रेखा स्पष्ट नहीं हो पायी। इसलिए आदर्शवादी विधि में पुण्य-कर्मो का फल मरने के बाद "स्वर्ग", और पाप-कर्मो का फल मरने के बाद "नर्क" बताया गया था। साथ ही उसमें यह भी कहा गया है - राजा और व्यापारियों के पास जो धन होता है, वह उनके "पुण्य कर्मो" का फल है। अब यह स्पष्ट हो गया है - अपराध-विधि से ही सर्वाधिक सम्पदा और अधिकार (दूसरों को तंग करने का अधिकार, और धरती को घायल करने का अधिकार) बना रहता है। यह बात "मध्यम-कोटि" के लोगों को स्वीकार नहीं हो पायी।

इस विकल्पात्मक अनुसंधान की रोशनी में यह स्पष्ट होता है, सम्पूर्ण मानव-जाति - चाहे वे अपने को "ज्ञानी", "विज्ञानी", या "अज्ञानी" मानते हों - के सम्पूर्ण कार्य-कलाप, प्रवृत्ति, योजना, कार्य-योजना, और फल-परिणाम सब "ग़लत" होना, और "गलती के लिए भागीदारी" होना स्पष्ट हुआ। अपराध में सभी का भागीदारी है। इस विकल्प में भी सबकी भागीदारी होना भावी है। अब यह पक्ष समाप्त हो जाता है - ज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए, या विज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए, या अज्ञानी को यह विकल्प नहीं चाहिए।

विकल्प की आवश्यकता सभी को है, क्योंकि सभी ने मिल कर अपराध पूर्वक आज की स्थिति तक पहुँचाया है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

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