जीव-चेतना में जीना = पांच संवेदनाओं की सीमा में जीना। पांच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध) में से कोई ऐसी संवेदना ही नहीं है जिससे सदा-सदा अच्छा लगता रहे। इसलिए जीव-चेतना की सीमा में जीने से कोई "संतुष्टि बिंदु" ही नहीं है।
संतुष्टि चाहिए या नहीं चाहिए? - यह पूछने पर यही उत्तर मिलता है, "चाहिए!"
ज्ञान-विवेक-विज्ञानं ऐसा वस्तु है, जो सदा-सदा के लिए हमारा स्वत्व हो सकता है। ज्ञान-विवेक-विज्ञानं स्वत्व होने पर हमारा निरंतर सुख पूर्वक जीना बनता है। इस प्रकार जीने को "मानव चेतना" में जीना कहा। इस तरह "संतुष्टि" पूर्वक जिया जा सकता है।
इसमें किसको आपत्ति हो सकती है?
किसके "पक्ष" में, और किसके "विपक्ष" में यह बात है?
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
संतुष्टि चाहिए या नहीं चाहिए? - यह पूछने पर यही उत्तर मिलता है, "चाहिए!"
ज्ञान-विवेक-विज्ञानं ऐसा वस्तु है, जो सदा-सदा के लिए हमारा स्वत्व हो सकता है। ज्ञान-विवेक-विज्ञानं स्वत्व होने पर हमारा निरंतर सुख पूर्वक जीना बनता है। इस प्रकार जीने को "मानव चेतना" में जीना कहा। इस तरह "संतुष्टि" पूर्वक जिया जा सकता है।
इसमें किसको आपत्ति हो सकती है?
किसके "पक्ष" में, और किसके "विपक्ष" में यह बात है?
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
3 comments:
Namaskar shri rakesh ji
"ज्ञान-विवेक-विज्ञानं " के बारे में
कृपया व्याख्या कीजिये...
dhanywad
Roshani
जिस समझ के अनुसार जीने से मनुष्य का निरंतर सुख पूर्वक जीना बन जाए - वही "ज्ञान" है. मध्यस्थ-दर्शन के अनुसार सह-अस्तित्व की समझ, जीवन की समझ, और मानवीयता पूर्ण आचरण की समझ से ही मनुष्य का निरंतर-सुख पूर्वक जीना बन सकता है.
इस ज्ञान के अनुरूप जीने का लक्ष्य स्वयं में निर्धारित हो जाना ही "विवेक" है. "मुझे क्यों जीना है?" - इस प्रश्न का उत्तर स्वयं में निरंतरता के स्वरूप में स्थापित हो जाना ही विवेक है. "ज्ञान" के अर्थ में विवेचना स्वयं में होने से हम विवेकशील हो जाते हैं. ऐसा होने से, हम स्वयं में स्थिर हो पाते हैं - (१) मैं (जीवन स्वरूप में) अमर हूँ. (२) मेरा शरीर (एक भौतिक-रासायनिक रचना) नश्वर है. (३) व्यवहार में सामरस्यता न्याय पूर्वक ही आती है. हर परिस्थिति में अपने अस्तित्व के प्रति मैं आश्वस्त रहता हूँ - तभी मैं विवेकशील हूँ.
इस ज्ञान के अनुरूप जीने की दिशा स्वयं में निश्चित हो जाना ही "विज्ञान" है. "मुझे कैसे जीना है?" इस प्रश्न का उत्तर स्वयं में निरंतरता के रूप में स्थापित हो जाना ही विज्ञान है. हर परिस्थिति में "अब कैसे करना है?" - इस प्रश्न का उत्तर स्वयं से निर्गमित होने लगे, तो मतलब है हम विज्ञान-संपन्न हुए, अन्यथा नहीं.
विवेक और विज्ञान के मूल में ज्ञान ही है. ज्ञान संपन्न होने के लिए मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन एक सुगम रास्ता है.
धन्यवाद,
राकेश.
आपका सहृदय आभार.....
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