"धर्म" शब्द एक वेद-कालीन या बहुत प्राचीन-कालीन उपलब्धि है। प्राचीन काल से "धर्म" शब्द का प्रयोग होता आया है। विविध प्रकार से धर्म-गद्दियाँ स्थापित हुई। इस धरती पर जितनी भी धर्म-गद्दियाँ प्रचलित हो चुकी हैं, वे सभी धर्म के "लक्षणों" को लेकर उन समुदायों को समझाया करते हैं। इस क्रियाकलाप को "उपदेश" कहते हैं। "प्रवचन" भी कहते हैं। इस तरह उपदेश और प्रवचन देने वालों को "धर्म-रक्षक" मानते हैं। इन उपदेश और प्रवचन को सुनने वालों को "अनुयायी" माना जाता है। इस तरह धर्म-गद्दियों द्वारा भांति-भांति विधियों से "आस्था" की सीढ़ियों तक लोगों को पहुंचाता हुआ, और लोगों को पहुँचता हुआ देखा जाता है। इसमें उल्लेखनीय बात यही है - धर्म के लक्षणों को बताने वाले को स्वयं धर्म का स्वरूप पता नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में अनुयायियों को या आस्था करने वालों को धर्म कैसे समझ में आएगा - यह प्रश्न मानव-सम्मुख होता ही है। इस प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं होने के आधार पर ऐसा ही बनता है - बाकी लोग जैसा कर रहे हैं, वैसा ही हमको भी चलना चाहिए। इसी आधार पर मानव परम्परा ने आस्था-तंत्र को आज तक बनाए रखा है।
आस्थाएं संवेदनशीलता की अनुकूलता में ही चित्रित होना, व्याख्यायित होना देखा जाता है। संतान-अपेक्षा, पद-अपेक्षा, धन-अपेक्षा, स्वास्थ्य-अपेक्षा, सुविधा-अपेक्षा के लिए प्रार्थना होती हैं, और उनके प्राप्त होने पर आस्था बना रहता है। इसी को "आस्था परम्परा" भी कहा जाता है। मानव ने अपने अभावों को व्यक्त करने के लिए आस्था-क्रियाकलाप को सुविधाजनक माना। हम कुछ भी बोलें, सोचें - उसके प्रत्युत्तर में कुछ भी न बोलने वाले स्थान, मूर्ति, चित्र को अभी तक आस्था क्रियाकलाप के लिए सुविधाजनक माना जाता है। ऐसे स्थली में जो कोई भी प्रार्थना करते हैं, या अपेक्षा करते हैं - उसके फलित होने का अपेक्षा करना होता है। ऐसे प्रतीक्षाकाल में घटना-विधि से कुछ न कुछ हो ही जाता है। उस घटना को प्रार्थना का, आस्था का फल माना जाता है। इसी प्रकार बड़े-बड़े मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चबूतरा, पत्थर पर लालिमा पोत कर रखना देखा जाता है। इन स्थानों को "पूजा-स्थली" माना जाता है। मूर्तियाँ, और चित्र इन सबके साथ जुडी हुई संगतियाँ हैं।
इसके आगे "आस्था-स्थलियों" से जुडी हुई गतिविधियों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है - ऐसी स्थलियों पर वहाँ के आस-पास के कुछ लोग जाया करते हैं, कुछ लोग नहीं भी जाया करते हैं। जो जाया करते हैं, उनकी प्रार्थनाओं में जो अपेक्षा रहती है - उनका आंशिक भाग या पूरा भाग किसी-किसी के साथ घटित भी होता है, किसी-किसी के साथ घटित नहीं भी होता है। जो लोग इन आस्थावादी जगहों पर नहीं जाया करते उनकी भी कुछ अपेक्षाएं घटित होती हैं, कुछ नहीं घटित होती। इस प्रकार यह निश्चय करना मुश्किल है कोई उपलब्धि पूजा-पाठ, पत्री आदि से हुई - या अपने-आप से हुई। जैसे - संतान के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं भी करते, उनके भी संतान होता है। पैसे-पद के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं करते - उनको भी पद और पैसा मिला रहता है। फ़िर यह मुद्दा बनता है - पूजा-पाठ के आधार पर कैसे कोई चीज प्राप्त होती है? यह कहना मुश्किल हो जाता है।
इसको और गहराई से सर्वेक्षण करें तो पता चलता है - सम्पूर्ण अवैध उपलब्धियों को भी आस्था का फलन माना जाता है। जैसे - बहुत शोषण करके धन इकठ्ठा करने में सफल हो गए तो उसको अपनी प्रार्थना का फल मान लिया। इस विधि से हम कहाँ पहुँच गए हैं - यह हमारे सामने है।
आस्थावाद इस प्रकार वादग्रस्त होता गया है। १८वी शताब्दी से मानव-जाति द्वारा उन्मुक्त विचार-क्रम में, अथवा भौतिकवादी विचार-क्रम में तर्क-सम्मत विधि से सोचना-समझना, निर्णय करना शुरू हुआ। विज्ञान-विधि ने भी तर्क को भरपूर अपनाया। ऐसे सभी तर्क का प्रयोजन भी कुल मिला कर संवेदनाओं को राजी करना ही रहा। संवेदनाओं को राजी करने के लिए सभी अपराधिक कृत्यों - जंगल, घनिज, वन्य जीव, घरेलु जीव इन सबका शोषण, मानव द्वारा दूसरे मानव का शोषण, एक देश का दूसरे देश का शोषण - को वैध मान लिया। इस तरह जो भी किया गया - उसके फलन में धरती बीमार हो गयी।
धरती बीमार होने की स्थिति में मानव-परम्परा कैसे बना रहेगा? इस तरह तो पिछली पीढ़ियों ने आगे की पीढ़ियों के जीने की स्थली और संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया! इस स्थिति के लिए पीछे की पीढियां जो अपराध के लिए सहमत हुए हैं - ये सब प्रकारांतर से जिम्मेदार होना स्वाभाविक है। इस स्थिति का निराकरण आवश्यक है।
इस स्थिति का निराकरण शोध-अनुसंधान विधि से मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के रूप में मानव-सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। इसके मूल में अस्तित्व मूलक मानव-केंद्रित चिंतन है। इसका मतलब - मानव ही समझने वाला इकाई है। मानव ही प्रमाणित होने वाला इकाई है। समझदारी से संपन्न होने पर मानव समाधानित होता है।
अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था के रूप में सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व प्रकट है, वर्तमान है। मानव ज्ञान-अवस्था में नियति-सहज विधि से है। मानव ज्ञान-अवस्था में होने के आधार पर सुखी होने की चाहत में ही जी रहा है। मनुष्य ने पाँच संवेदनाओं के अर्थ में सुखी होने के बारे में सोचा, और संवेदनाओं को राजी रखने के लिए प्रयास किया। इस प्रकार के प्रयासों के क्रम में मनाकार को साकार करना सम्भव हो गया। मनः स्वस्थता की अपेक्षा शेष रहे आया। "सुखी होना" ही मनः स्वस्थता का स्वरूप है।
"समाधानित होना" ही सुखी होना है। सर्वतोमुखी समाधान ही निरंतर सुख का स्त्रोत है। यही मानव-धर्म का व्यवहारिक सूत्र है। समाधान ही अनुभव में सुख है। समाधान-समृद्धि ही अनुभव में सुख-शान्ति है। समाधान-समृद्धि-अभय ही अनुभव में सुख-शान्ति-संतोष है। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व ही अनुभव में आनंद है। जीवन में सुख-शान्ति-संतोष-आनंद मूल्यों का अनुभव होने की स्थिति में मानव परम्परा के कार्य और व्यव्हार में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है।
अनुभव स्थिति में सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का दृष्टा होना पाया जाता है। अनुभव मानव परम्परा में प्रमाणित होता है, जिससे नित्य उत्सव होता है। यही आनंद का स्वरूप है।
मानव परम्परा में गुणात्मक परिवर्तन के लिए ज्ञान, विवेक, और विज्ञान में पारंगत होने की आवश्यकता है। यही अपराध मुक्त प्रवृत्ति और कार्यक्रम का सूत्र है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
आस्थाएं संवेदनशीलता की अनुकूलता में ही चित्रित होना, व्याख्यायित होना देखा जाता है। संतान-अपेक्षा, पद-अपेक्षा, धन-अपेक्षा, स्वास्थ्य-अपेक्षा, सुविधा-अपेक्षा के लिए प्रार्थना होती हैं, और उनके प्राप्त होने पर आस्था बना रहता है। इसी को "आस्था परम्परा" भी कहा जाता है। मानव ने अपने अभावों को व्यक्त करने के लिए आस्था-क्रियाकलाप को सुविधाजनक माना। हम कुछ भी बोलें, सोचें - उसके प्रत्युत्तर में कुछ भी न बोलने वाले स्थान, मूर्ति, चित्र को अभी तक आस्था क्रियाकलाप के लिए सुविधाजनक माना जाता है। ऐसे स्थली में जो कोई भी प्रार्थना करते हैं, या अपेक्षा करते हैं - उसके फलित होने का अपेक्षा करना होता है। ऐसे प्रतीक्षाकाल में घटना-विधि से कुछ न कुछ हो ही जाता है। उस घटना को प्रार्थना का, आस्था का फल माना जाता है। इसी प्रकार बड़े-बड़े मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चबूतरा, पत्थर पर लालिमा पोत कर रखना देखा जाता है। इन स्थानों को "पूजा-स्थली" माना जाता है। मूर्तियाँ, और चित्र इन सबके साथ जुडी हुई संगतियाँ हैं।
इसके आगे "आस्था-स्थलियों" से जुडी हुई गतिविधियों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है - ऐसी स्थलियों पर वहाँ के आस-पास के कुछ लोग जाया करते हैं, कुछ लोग नहीं भी जाया करते हैं। जो जाया करते हैं, उनकी प्रार्थनाओं में जो अपेक्षा रहती है - उनका आंशिक भाग या पूरा भाग किसी-किसी के साथ घटित भी होता है, किसी-किसी के साथ घटित नहीं भी होता है। जो लोग इन आस्थावादी जगहों पर नहीं जाया करते उनकी भी कुछ अपेक्षाएं घटित होती हैं, कुछ नहीं घटित होती। इस प्रकार यह निश्चय करना मुश्किल है कोई उपलब्धि पूजा-पाठ, पत्री आदि से हुई - या अपने-आप से हुई। जैसे - संतान के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं भी करते, उनके भी संतान होता है। पैसे-पद के लिए प्रार्थना। जो लोग प्रार्थना नहीं करते - उनको भी पद और पैसा मिला रहता है। फ़िर यह मुद्दा बनता है - पूजा-पाठ के आधार पर कैसे कोई चीज प्राप्त होती है? यह कहना मुश्किल हो जाता है।
इसको और गहराई से सर्वेक्षण करें तो पता चलता है - सम्पूर्ण अवैध उपलब्धियों को भी आस्था का फलन माना जाता है। जैसे - बहुत शोषण करके धन इकठ्ठा करने में सफल हो गए तो उसको अपनी प्रार्थना का फल मान लिया। इस विधि से हम कहाँ पहुँच गए हैं - यह हमारे सामने है।
आस्थावाद इस प्रकार वादग्रस्त होता गया है। १८वी शताब्दी से मानव-जाति द्वारा उन्मुक्त विचार-क्रम में, अथवा भौतिकवादी विचार-क्रम में तर्क-सम्मत विधि से सोचना-समझना, निर्णय करना शुरू हुआ। विज्ञान-विधि ने भी तर्क को भरपूर अपनाया। ऐसे सभी तर्क का प्रयोजन भी कुल मिला कर संवेदनाओं को राजी करना ही रहा। संवेदनाओं को राजी करने के लिए सभी अपराधिक कृत्यों - जंगल, घनिज, वन्य जीव, घरेलु जीव इन सबका शोषण, मानव द्वारा दूसरे मानव का शोषण, एक देश का दूसरे देश का शोषण - को वैध मान लिया। इस तरह जो भी किया गया - उसके फलन में धरती बीमार हो गयी।
धरती बीमार होने की स्थिति में मानव-परम्परा कैसे बना रहेगा? इस तरह तो पिछली पीढ़ियों ने आगे की पीढ़ियों के जीने की स्थली और संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया! इस स्थिति के लिए पीछे की पीढियां जो अपराध के लिए सहमत हुए हैं - ये सब प्रकारांतर से जिम्मेदार होना स्वाभाविक है। इस स्थिति का निराकरण आवश्यक है।
इस स्थिति का निराकरण शोध-अनुसंधान विधि से मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के रूप में मानव-सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। इसके मूल में अस्तित्व मूलक मानव-केंद्रित चिंतन है। इसका मतलब - मानव ही समझने वाला इकाई है। मानव ही प्रमाणित होने वाला इकाई है। समझदारी से संपन्न होने पर मानव समाधानित होता है।
अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है - पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था के रूप में सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व प्रकट है, वर्तमान है। मानव ज्ञान-अवस्था में नियति-सहज विधि से है। मानव ज्ञान-अवस्था में होने के आधार पर सुखी होने की चाहत में ही जी रहा है। मनुष्य ने पाँच संवेदनाओं के अर्थ में सुखी होने के बारे में सोचा, और संवेदनाओं को राजी रखने के लिए प्रयास किया। इस प्रकार के प्रयासों के क्रम में मनाकार को साकार करना सम्भव हो गया। मनः स्वस्थता की अपेक्षा शेष रहे आया। "सुखी होना" ही मनः स्वस्थता का स्वरूप है।
"समाधानित होना" ही सुखी होना है। सर्वतोमुखी समाधान ही निरंतर सुख का स्त्रोत है। यही मानव-धर्म का व्यवहारिक सूत्र है। समाधान ही अनुभव में सुख है। समाधान-समृद्धि ही अनुभव में सुख-शान्ति है। समाधान-समृद्धि-अभय ही अनुभव में सुख-शान्ति-संतोष है। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व ही अनुभव में आनंद है। जीवन में सुख-शान्ति-संतोष-आनंद मूल्यों का अनुभव होने की स्थिति में मानव परम्परा के कार्य और व्यव्हार में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाणित होता है।
अनुभव स्थिति में सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का दृष्टा होना पाया जाता है। अनुभव मानव परम्परा में प्रमाणित होता है, जिससे नित्य उत्सव होता है। यही आनंद का स्वरूप है।
मानव परम्परा में गुणात्मक परिवर्तन के लिए ज्ञान, विवेक, और विज्ञान में पारंगत होने की आवश्यकता है। यही अपराध मुक्त प्रवृत्ति और कार्यक्रम का सूत्र है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
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