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Wednesday, November 11, 2009

विकल्पात्मक प्रस्ताव के अध्ययन की विधि

इस लेख का शीर्ष अपने आप में विचार करने के लिए परिस्थितियां निर्मित करता है। यहाँ इसका सन्दर्भ अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन रुपी मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद के अध्ययन से है। यह आशय स्पष्ट होना आवश्यक है। विगत में भी ऐसी कुछ गतिविधियाँ घटित हुई हैं जो मानव-परम्परा के विचार-विधियों को बदलने की घटना के रूप में रहीं। उन पर एक नज़र डालना आवश्यक है।

मानव जंगल-युग से ही अपने वर्चस्व को मौलिक रूप में स्थापित करने में गतित रहा। "गतित रहने" का तात्पर्य - पीढी से पीढी कुछ आशयों को पहले से अच्छा करने के पक्ष में अनुसन्धान पूर्वक अध्ययन/शोध परम्परा बना ही रहा। इसी क्रम में अभी मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद और शास्त्र अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन के स्वरूप में मानव-सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। इस के प्रकट होने के पहले दो प्रकार के सोच-विचार मानव-परम्परा अभ्यास, अनुकरण, अनुसरण प्रणाली सहित "अध्ययन" का वस्तु माना या "प्रयोग" का वस्तु माना।

सर्वप्रथम विचार यह बना - "कोई अव्यक्त महिमा-संपन्न ताकत मनुष्य को पैदा किया।" अलग अलग परिस्थितियों में उस ताकत को इंगित करने के लिए नाम दिए गए। जैसे - "ईश्वर", "परमात्मा"। इस अर्थ को इंगित कराने के लिए बहुत सारे नाम अपने-अपने भाषा में व्यक्त किया जाना मनुष्य-परम्परा में, से, के लिए एक अद्भुत बुनियादी सोच है।

इसी प्रकार "संख्या" को लेकर भी देखें तो ९ तक ही संख्याओं को अलग-अलग आकार में लिखने की तरीके बने।

इस तरह - "ईश्वर का नाम" और "संख्या" - ये दो प्रधान भाषा का स्वरूप हर देश-काल में बने। विचार रूप में "भय" और "प्रलोभन" ही रहा। भय और प्रलोभन के आधार पर हर भाषा का विस्तार होता गया।

आदि-काल से ही मानव ने भय और प्रलोभन के साथ ही अपने परम्परा-प्रवाह को पीढी से पीढी तक बनाए रखा। भय से राहत पाने के लिए प्रलोभन का वरण करता रहा। आदि-मानव ने पहले जीवों जैसे "जीने की आशा" से ही अपने क्रियाकलापों को व्यक्त किया। आदि-मानव के लिए अनुसरण-अनुकरण के लिए जीव-संसार ही आदर्श रहा। अन्य सभी घटनाएं - जैसे धरती, पानी, हवा, ऊष्मा, उजाला - यही मनुष्य के लिए समझने की वस्तु रही। इसी क्रम में मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग करते आया। इसमें सोच-विचार का प्रयोग प्रलोभन के सम्बन्ध में श्रेष्ठता, भय से मुक्त होने के लिए, अथवा भय से बचने के उपायों को लेकर श्रेष्ठता के लिए हुआ। इस प्रकार पीढी से पीढी मनुष्य-परम्परा जीवों से अलग होता हुआ देखने को मिला। विभिन्न देश-काल में इस घटना-क्रम से गुजरना मनुष्य परम्परा में रंग और नस्ल का आधार बना।

मानव अपनी मौलिक कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के साथ हर "कार्य" के साथ "कारण" को सोचना बना रहा। जैसे - जोर से हवा आ गया। उसका कारण क्या है? पानी खूब बरसने लगा - इसे कौन बरसा रहा है? खूब रोशनी आ गयी - यह रोशनी कौन दे रहा है? इनके बारे में सोचना बना। साथ ही गगन-चुम्बी जंगल, नदी-नाले, पहाड़ दृश्यमान रहा ही। इन सबको किसने बनाया? इस प्रकार की सोच आदिकाल से प्रतिबिंबित होना कल्पनाशीलता में सक्रिय रहा। इसी क्रम में हर देश, काल, परिस्थिति में मानव यह स्वीकारा है - "झाड़ से, जंगल से, नदी से, नाले से, पहाड़-पत्थर-मिट्टी से बहुत बड़ी ताकतवर चीज कहीं है, वही यह सब को बनाता रहता है।" ऐसा कल्पना का एक "दौर" बना लिया। कल्पनाओं को दौडाने का एक "सुविधाजनक क्षेत्र" मिल गया कि - एक बहुत बड़ी महिमा-संपन्न वस्तु है, जिसे हम "परमात्मा", "ईश्वर" नाम दे दिए। उनका महिमा कहीं समाप्त नहीं होता है। उन्ही की इच्छा के अनुसार अनगिनत सृष्टि सामने है। इसको स्वीकार लिया। इसी को विभिन्न भाषाओँ में विभिन्न प्रक्रिया के रूप में वर्णन किया। इसी को "मूल वांग्मय" और "पवित्र ग्रन्थ" माना जाता है। आगे के युगों में चल कर इसी को "दर्शन" नाम दे दिया। इस प्रकार मनुष्य जंगल से ग्राम-कबीला, उसके बाद समुदाय रूप में, उसके बाद मत-सम्प्रदाय रूप में अपने को पहचानता रहा और ईश्वर-परमात्मा को सर्व-समर्थ मानता रहा।

यह क्रम आगे - ईश्वर की महिमा को "महिमा संपन्न स्वरूप" देने में लगा। यह सब "देवी" "देवता" नाम से संबोधित करने लगे। इसी क्रम में कुछ "सिद्ध", "महापुरुष", "ईश्वर-दूत", "अवतार" के आकार में भी मानव अपनी कल्पनाशीलता को दौडाया। यह सभी देश-काल में सोच-विचार में आया ही है - प्रकारांतर भले ही हो। इसी के साथ प्रार्थना, पूजा, अनुष्ठान, साधना के नाम से बहुत सारी विधियां तैयार हुई। इन सब के मूल में लक्ष्य रहा - भय से मुक्ति, और प्रलोभन के तृप्ति-बिन्दु की प्राप्ति। इन संयोगो से चलते हुए मानव ने अपनी कल्पनाओं को ईश्वरीय-कल्पना मान लिया। अपने कल्पनात्मक-चित्रण को "ईश्वर" मान लिया। इस प्रकार पीढी से पीढी मनुष्य-जाति "रहस्य" में ग्रसित होता ही रहा।

कुछ समय के बाद मनुष्य-जाति का सोच-विचार "तर्क" में उतरा। तर्क अपने से प्रयोजन से जुड़ने का आशय जुड़ा रहा - चाहे वह आशय स्पष्ट न रहा हो। इस तरह से विचार पूर्वक मानव अपनी गतिविधियों से ग्राम से शहर तक, सड़क-वाहन आदि, जंगल का सफाया, नदी-नालों में प्रदूषण, और हवा-पानी विर्कृत करने के कार्यक्रम की शुरुआत किया।

इसके साथ-साथ मनुष्य जिसको "श्रेष्ठ" माना, उसको सम्मान करता रहा। जंगल-युग में भी जो आने वाली विपदाओं का सामना करता था (जैसे हिंसक जानवरों से मुकाबला) - उसका सम्मान बाकी लोग करते रहे। इसी क्रम में दूसरे नस्ल और रंग के आदमी को भी क्रूर और घातक जानवर मानते हुए मनुष्य संघर्ष करता रहा। मार-पीट, उपद्रव का तरीका मानव में निहित कल्पनाशीलता के आधार पर बदलता रहा। मनुष्य हर जगह, हर स्थिति में संघर्ष से प्राप्त सफलता को "ईश्वरीय देन" मानते हुए चला। इस प्रकार "ईश्वर प्रार्थना" का मूल आधार स्थापित हुआ। ऐसा आशय आज की जाने वाली प्रार्थनाओं में भी समाई हुई है।

ऊपर वर्णित विश्लेषण के अनुसार मानव-मानसिकता का अध्ययन करने पर पता चलता है - हर समुदाय, हर व्यक्ति भय और प्रलोभन के आधार पर अपनी कल्पनाशीलता को प्रयोग करता रहा। सारे विधाओं में भय से मुक्ति और प्रलोभन की रक्षा चाहता रहा।

इसी उपक्रम में प्रलोभन और प्रलोभन-परम्परा को संरक्षित करना "प्राथमिक आवश्यकता" माना गया है। इसी को प्रकारांतर से हम मानव एक दूसरे के बीच में प्रस्तुत कर पाते हैं। प्रलोभन और प्रलोभन-परम्परा के संरक्षण के लिए जितना ज्यादा सम्भावना बनता है, उसको मानव "उपलब्धि" मानता गया। साथ ही भय से मुक्ति के लिए जितने भी विकराल, सर्वाधिक नाशकारी, विध्वंसकारी अविष्कारों को "विकास" मानता गया। इसी क्रम में सर्व-मानव - ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी - सुविधा-संग्रह के दरवाजे में देखने को मिल रहा है। भय और प्रलोभन के लिए ही ईश्वर-वाद और भौतिकवाद का प्रयोग हुआ। इन दोनों विधियों से "मानव का अध्ययन" नहीं हो पाया।

भय और प्रलोभन के लिए सोच-विचार के क्रम में आज हम मानव जहाँ भी पहुंचे हैं, यह सोचने के लिए बाध्य हो गए हैं - धरती बीमार होने के बाद, नदी-नाले सूखने के बाद, जंगल-झाडी उजड़ने के बाद मनुष्य कैसे जी पायेगा?

मनुष्य के विचार को भय और प्रलोभन से मुक्त कराने के लिए "अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिंतन" का प्रस्ताव अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। यह "रहस्य-मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन" और "अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक वस्तु केंद्रित चिंतन" से भिन्न है, उनका विकल्प है। इसका अध्ययन करने की विधि क्या होगी?

अध्ययन के लिए "प्रमाण" की आवश्यकता है। ईश्वरवाद ने "शब्द" और "आप्त वाक्य" को प्रमाण माना। भौतिकवादी विधि में "यंत्र" को प्रमाण माना।

सह-अस्तित्व वादी विधि में मानव का ही प्रमाण का आधार होना स्पष्ट हुआ। मानव ही भ्रम और जागृति को प्रमाणित करता है।

इस विकल्प के अध्ययन के लिए दर्शन, वाद, और शास्त्र को प्रस्तुत किया गया है। इसे अध्ययन करने के लिए मूल सिद्धांत "परिभाषा विधि" है। हर भाषा में परिभाषा-विधि से सम्प्रेश्ना सफल है। जैसे "जल" शब्द की परिभाषा है - "प्यास बुझाना"। धरती की प्यास, वनस्पतियों की प्यास, जीव-संसार की प्यास, मानव की प्यास बुझाना ही पानी है। "पानी" के शब्द है। पानी अस्तित्व में एक वस्तु है। मानव शब्द का प्रयोग करता है। वस्तु अस्तित्व में होता है। इसी प्रकार "सत्य" एक शब्द है। सत्य वस्तु स्वरूप में सह-अस्तित्व समग्र है - जो व्यापक वस्तु में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति, धरती, अनेक धरती, सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूह, आकाश-गंगा, अनेक आकाश-गंगा के रूप में प्रकट है, प्रस्तुत है। किताबों में जो कुछ भी लिखा जा सकता है, वह "नाम" ही है। भले ही वह "क्रिया" का नाम हो, "फल" का नाम हो, "अपेक्षा" का नाम हो। मानव का संवेदनशील होना सर्व-विदित है। नाम से मनुष्य ने संवेदनाओं से गोचर वस्तुओं को पहचानना सीख लिया है। नाम (शब्द) द्वारा संवेदनाओं से अगोचर वस्तुओं को समझना एक आवश्यकता रही। उसके लिए अध्ययन है।

दर्शनों में यह आशय व्यक्त हुआ है - "जीना ही दर्शन है।" मानव व्यवहार रूप में, कर्म रूप में, अभ्यास रूप में, और अनुभव रूप में जीता है। अनुभव के अनुरूप व्यवहार होने पर व्यवहार का संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव के अनुरूप कर्म होने पर कर्म संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव के अनुरूप अभ्यास होने पर अभ्यास संतुलित होना पाया जाता है। अनुभव सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में होता है।

आदर्शवादियों ने "समाधि में अनुभव होता है" - यह सूचना के रूप में व्यक्त किया है। साथ ही यह भी कहा है - "समाधि में ही अज्ञात ज्ञात होता है।" इस पर शोध पूर्वक मैंने समाधि घटना को देखा। समाधि में कोई ज्ञान होता नहीं है। समाधि के बाद विगत में "ज्ञान" के सम्बन्ध में जो कहा गया है, उसी को पुष्टि करना बनता है। समाधि की स्थिति में इस बात को देखा गया - जैसे गहरे पानी में डूब कर आँखें खोलने पर मधुरिम प्रकाश दिखती है, उसी को "ज्ञान प्रकाश" मान लिया। ऐसे "ज्ञान-प्रकाश" को देखा हुआ व्यक्ति को आप्त-पुरूष मान लिया। ऐसे आप्त-पुरुषों के वाक्यों को "प्रमाण" मान लिया। ऐसे वाक्यों को वेद, वेदान्त, उपनिषद् के नाम से जाना गया। समाधि में होने वाले ऐसे "ज्ञान-प्रकाश" के आधार पर कुछ भी कहा जाए - वह रहस्यमय ही होगा। ऐसे ही रहस्यमय ज्ञान-भण्डार वेद, उपनिषद्, वेदान्त नाम से रखा हुआ है।

मैंने समाधि की स्थिति में जो यह "ज्ञान-प्रकाश" देखा, उसे ज्ञान माना ही नहीं। कपाल पर चोट लगने पर मुंदी हुई आंखों से भी वैसा ही प्रकाश दिखता है - फ़िर कैसे इसको ज्ञान माना जाए? फ़िर जिन प्रश्नों का उत्तर मैं चाहता था - "बंधन का कारण" और "मोक्ष का कारण" - उनका उत्तर इस समाधि के "ज्ञान प्रकाश" में नहीं मिला। समाधि की स्थिति में प्रतिदिन १२ से १८ घंटे तक मैंने एक वर्ष तक इंतज़ार किया। समाधि की स्थिति में मुझे यह भी पता चला कि "मैं हूँ", और मेरी आशा, विचार, और इच्छा चुप हैं। उसके अनंतर मैंने अपने विवेक से संयम करने का निश्चय किया।

संयम में जब मैं तदाकार हुआ तो यह पूरा अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में होना समझ में आया। चारों अवस्थाएं विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति रूप में होना समझ में आया। मेरा स्वयं का ज्ञान-अवस्था में अस्तित्व में अविभाज्य होना समझ में आया। इसी को "अनुभव" और "बोध" कहा जा रहा है। पूरे तथ्य समझ में आने पर मेरी जिज्ञासा का उत्तर हो गया। मैंने सह-अस्तित्व में ही जीवन को एक विकसित परमाणु के रूप में गठन-पूर्णता के साथ मनोगति से वर्तमान होना देखा। यही जीवन भ्रमित हो कर, अर्थात शरीर को जीवन मान कर मनुष्य के सारे कार्य-व्यवहार में समस्याओं को प्रकाशित करता है। समस्याएं जीवन का वांछित फल नहीं हैं। समयाओं से पीड़ित होना ही "बंधन" का स्वरूप है। मानव-परम्परा आदि-काल से चली आयी तौर-तरीकों से अधिमूल्यन, अवमूल्यन, और निर्मुल्यन के आधार पर समस्याओं के चंगुल में फंस चुकी है।

इस स्थिति से उद्धार समाधान पूर्वक ही है। समाधान समझदारी से होता है। समझदारी को अध्ययन विधि से मानव-जाति को अर्पित करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

ऐसा प्रस्ताव विगत में कभी भी न होने के आधार पर इसे समझने की विधि क्या है? - यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक रहा। इसका उत्तर है - "परिभाषा विधि" से यह पूरा अध्ययन होता है। परिभाषा अपने स्वरूप में भाषा में इंगित अर्थ को निर्देशित करने की प्रक्रिया ही है।

परिभाषा विधि आदर्शवादी विधि से भिन्न है। जैसे - "धर्म" एक शब्द है। आदर्शवादी विधि में शब्द के आधार पर ही व्याख्या है। धर्म शब्द के मूल में "धृ" धातु है। धृ का मतलब - धारणा। इस तरह धर्म की व्याख्या करने पर धर्म पहनने वाला, ओढ़ने वाला, उतार कर फैंकने वाला भी हो गया! इस आधार पर धर्मांतरण समंब्धी वाद-विवाद सदा से चलते आए। परिभाषा विधि से धर्म को शाश्वत रूप में, निश्चित रूप में, निर्दिष्ट रूप में व्यक्त करना सम्भव हुआ। धर्म की परिभाषा दी - "जिससे जिसका विलगीकरण न हो, वही उसका धर्म है।" इस परिभाषा से अस्तित्व की चारों अवस्थाओं का निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक मानव का सुख-धर्मी होना, जीवों का आशा-धर्मी होना, पेड़-पौधों का पुष्टि-धर्मी होना, और पदार्थों का अस्तित्व-धर्मी होना अध्ययन किया जा सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

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