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Saturday, November 7, 2009

अनुभव शिविर उदबोधन (जनवरी २००६ )

इस सौभाग्यशाली मुहूर्त में आप हम सब यहाँ (अमरकंटक में) उपस्थित हुए हैं। इस स्थान को युगों से हम मानव सर्वोपरि पवित्र-स्थल मान कर चले हैं। "यहाँ सभी प्रकार के लोप दोष से मनुष्य दूर हो जाता है" - ऐसा पुराणों, भागवत आदि ग्रंथों में लिखा है। यहाँ मैंने लगभग ५५ वर्ष तक निवास किया। यह जो (पुराणों आदि में) कही गयी बात है - वह पूरा सही है, लेकिन उसमें एक शर्त है। उस शर्त की ओर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है - वह है "पवित्रता"।

(1) पवित्रता की ओर हमें "ध्यान" देने की ज़रूरत है।
(2) पवित्रता की "आवश्यकता" महसूस करने की ज़रूरत है।
(3) पवित्रता को "प्रयोजनशील" बनाने की ज़रूरत है
(4) पवित्रता को "प्रमाणित करने" की ज़रूरत है।

ऐसी चार स्थितियां बनी हैं। इसमें से चौथी स्थिति में मैं अपने को मानते हुए इस शरीर को जीवित रखता हुआ अनुभव करता हूँ। इस जगह को "तीर्थ-स्थली" कहा जाता है। तीर्थ-स्थली के बारे में कहा गया है - "स्वयं तरता, पराम तारयेत"। इसी को "तरण-तारण" शब्द दिया गया है।

जितने भी कायिक, वाचिक, मानसिक गलतियाँ हैं उनसे मुक्ति दिलाना ही "तारण" है। उन गलतियों से मुक्त हो कर स्वयं को प्रमाणित करना ही "तरण" है।

क्या समझ में आने से "तरण-तारण" होगा? - इसको खोजने गए तो विगत में उसे "रहस्य" में ले गए। ज्ञान से ही "तरण-तारण" होगा - यह करीब-करीब सभी समुदायों में स्वीकृत है, ऐसा मेरा सोचना है। विगत में जिसको "ज्ञान" बताया था, उसको "जीने" के बारे में सोचा तो वह रहस्य में चला गया। इन दो बातों को मैं यहाँ आने से पहले सुन-समझ के आया था। यहाँ आने के बाद मेरे साथ जो घटनाएं हुई - साधना के बाद समाधि, समाधि के बाद संयम, संयम के बाद जो कुछ मुखरण या प्रस्तुति हुई, उससे "सुख" और "दुःख" के स्वरूप का पता चल गया। कैसे हम सब सुखी होते हैं, कैसे हम सब दुखी होते हैं - यह पता चल गया।

सारे गलतियों से मुक्ति "सुख" है। सारे गलतियों को सही मान करके चलना "दुःख" है। इतना ही बात है। समस्या के समीकरण में दुःख है, समाधान के समीकरण में सुख है। इसको मैं समझा, और समझने के बाद जिया। जीने के बाद ऐसा लगा - "यह बात ठीक है।" ऐसा लगने के बाद कुछ लोगों के बीच में मैंने स्वयं का परीक्षण करना शुरू किया।

मैंने स्वयं को संसार द्वारा "परीक्षण" कराने के लिए प्रस्तुत किया है, कोई "उपदेश" देने के लिए प्रस्तुत नहीं किया है। आप मुझको परीक्षण कर सकते हैं, मेरी कही हुई बातों को समझ कर परीक्षण कर सकते हैं। मेरा परीक्षण, और मेरे द्वारा कहे गए तथ्यों का परीक्षण आप कर सकते हैं। इन दोनों बातों को लेकर मैं आज चल रहा हूँ।

इस तरह चलने पर एक बहुत अच्छी सूझ आयी - मनुष्य किस विधि से "सुखी" हो जाता है? और किस विधि से दुखी हो जाता है? उसकी थोड़ी सी झलक आपके सामने प्रस्तुत करना चाह रहे हैं।

मनुष्य को मैंने समझा है। मनुष्य के पास पाँच विभूतियाँ रहता है - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। इन पाँच प्रकार की विभूतियों से हर व्यक्ति संपन्न रहता ही है। इन पाँचों विभोतियों के साथ मनुष्य कैसे "सुखी" होता है - इसको मैंने समझा। इन पाँच विभूतियों के रहते हुए भी मनुष्य के "दुखी" होने की बात तो आदिकाल से ही है। लेकिन इन विभूतियों से सुखी होना "समझदारी" के बाद होता है, "समझदारी" के पहले होता नहीं। समझदारी के पहले "मनमानी" होती है, और उसका अपने तरीके का "फल" होता ही है। जो शाश्वत और निरंतर होगा वही "सिद्धांत" है।

रूप (शरीर) से सुख मिलने की विधि "सद्चरित्रता" है.

मानव अपने रूप (शरीर) के साथ यदि सद्चरित्रता का पालन करता है तो उसे रूप का सुख है। मनुष्य जड़ और चैतन्य का संयुक्त स्वरूप है। शरीर का रूप होता है। जीवन का रूप सूक्ष्म होता है - जो आंखों से दिखता नहीं है, लेकिन समझ में आता है। शरीर-रूप का सुख भोगने वाला जीवन ही है। शरीर रूप को चलाने वाला जीवन ही है। रूप को चलाने की विधि "सद्चरित्रता" होने पर रूप का सुख मिलता है।

सद्चरित्रता क्या है?

मानवीयता पूर्ण आचरण को मैं पाया। मैं स्वयं मानवीयता पूर्ण आचरण को करता हूँ। उसमें "मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" - ये तीन भाग समाये हैं। उसमें "चरित्र" का जो भाग है उससे शरीर को सुख-रूप में पहचानने की विधि बनती है। वह है - स्व-धन, स्व-नारी/स्व-पुरूष, और दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार। इससे शरीर से सुख पाने का स्त्रोत बना है। कहीं भी इसको कोई भी आदमी आजमा ले, शोध कर ले, और परीक्षण कर ले। मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही जीवित दिखता है। यदि जीवन भाग जाता है तो मनुष्य संज्ञा नहीं रहता। इस आधार पर शरीर के स्वरूप में जो रूप है उससे सुख मिलने की विधि यही है - सद्चरित्रता के साथ सुख।

जीवन जब शरीर को जीवंत बनाता है तो - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध - पाँच संवेदनाएं प्रकट होती हैं। विगत में मानव के इतिहास में हम कई बार इन संवेदनाओं के पक्ष में लट्टू हुए हैं। इनके विरोध में तप किए हैं। लट्टू होने का मतलब - हमने संवेदनाओं को राजी करने में ही पूरा शरीर-यात्रा समर्पित कर दिया। कई शरीर-यात्रा इसी लिए दे दिया। भौतिकवादी विधि से कहा - इन्ही संवेदनाओं का ही पूजा करना है, इन्ही को ही संपन्न करना है। यह "अतिवाद" हो गया।

दूसरे इसके विपरीत - संवेदनाएं होना ही नहीं चाहिए, इसके लिए जूझ पड़े! इसको तप या विरक्ति कहा गया। "विरक्ति" का मतलब - संवेदनाओं को नकारने का कार्य। ऐसे विरक्तिवादी मन को "तप" से संपन्न करने का आश्वासन शास्त्रों में लिखा हुआ है। इस आश्वासन को परीक्षण करने के लिए बहुत अच्छे-अच्छे लोग अपने आप को अर्पित किए - लेकिन अंत में कोई "प्रमाण" मिला नहीं। विरक्ति से संवेदनाओं को "नकारने" की बात तो चिन्हित हुई, लेकिन "क्या पाना है" - यह बात चिन्हित नहीं हुई। क्या पाना है, उसके बारे में भाषा के रूप में "ज्ञान" को बताया। फ़िर ज्ञान रहस्य में छुप गया।

कुल मिला कर "सामान्य मनुष्य" के लिए न तो "तप" सुलभ हुआ, और न ही संवेदनाओं को सदा राजी रखना सुलभ हुआ। सब लोगों को "विरक्ति" मिल नहीं सकती, न सब लोगों से संवेदनाओं की पूजा-पाठ हो सकती है। सारा मनुष्य का रोना, गाना, तलवार चलाना, और फूल-माला चढाना इसी बात को लेकर है। इस बात में हमको ध्यान देने की ज़रूरत है। ये दोनों भाग "अतिवाद" में गिरफ्त हो गया - यही इनकी समीक्षा है। अब क्या किया जाए? सबको मिलने वाली क्या चीज हो सकता है? - इस बात पर सोचा जाए! यह सोचने पर पता चला - "समाधान-समृद्धि" पूर्वक हर व्यक्ति जी सकता है। हर परिवार जी सकता है। हर व्यक्ति शरीर-रूप के साथ जुड़ा है। शरीर के साथ संवेदनाएं जुडी हैं। संवेदनाओं के साथ सुखी होने की विधि है - सद्चरित्रता। स्व-धन, स्व-नारी/स्व-पुरूष, दया-पूर्ण कार्य-व्यवहार विधि से हमको ज्ञान के साथ संवेदनाओं से मिलने वाला सुख मिलता है।

ज्ञान है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। ज्ञान में संपुटित होने पर ही संवेदनाएं नियंत्रित हो पाती हैं। संज्ञानीयता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। इसको मैंने अच्छे से परिशीलन करके यह निष्कर्ष निकाला है। संज्ञानीयता पूर्वक (या मानव-चेतना पूर्वक) हम जब संवेदनाओं को नियंत्रित पाते हैं तो हम "सद्चरित्र" होते हैं। संवेदनाएं नियंत्रित होने के प्रमाण में ही हम सद्चरित्र होते हैं। इसकी ज़रूरत है या नहीं है? - इसको आप सभी सोच सकते हैं, उसके अनुसार स्वीकार सकते हैं।

बल को "दया" पूर्वक प्रयोग करने से हम सुखी होते हैं।

मानव के पास दूसरी विभूति है - बल। बल क्या है? शरीर-बल, मनोबल। मन के बिना शरीर में कोई बल होता नहीं है। मनोबल के साथ ही शरीर का बल प्रकट होता है। ये आप हम सबके लिए अनुभव करने का मुद्दा है। जीवन शरीर को जीवंत बनाए रखता है, और जीवन ही के कारण से शरीर-कार्यकलाप के रूप में शरीर-बल प्रकट होता है। यह जो बल प्रकट होता है, उसका प्रयोग करने में हम कैसे सुखी होते हैं - और कैसे दुखी होते हैं?

बल को "दया" पूर्वक प्रयोग करने से हम सुखी होते हैं।

"दया" की परिभाषा है - पात्रता के अनुरूप वस्तु उपलब्ध कराने का क्रियाकलाप। इसको हर अभिभावक अनुभव कर सकते हैं। हर मानव-संतान में मानव-चेतना को ग्रहण करने का पात्रता बना रहता है। इसको मैं एक बार दोहराता हूँ - "हर मानव संतान में मानव-चेतना को पूरा का पूरा ग्रहण करने का पात्रता बना ही रहता है।" यह यदि आपको स्वीकार होता है, तो जो ऐसे हर संतान में ग्रहण करने की पात्रता बनी हुई है, उसमें मानव-चेतना को स्थापित कर देना ही "पात्रता के अनुरूप वस्तु उपलब्ध कराने" का तात्विक रूप में प्रमाण है। तार्किक रूप में इसी बात को कहा है - "मनाकार को साकार करने के साथ-साथ मनः स्वस्थता भी प्रमाणित हो जाए।" यही बात को व्यवहारिक रूप में कहा - "दया पूर्वक वस्तु उपलब्ध करा दी जाए।"

हर अभिभावक को अपनी संतान के साथ दया करने का अधिकार बना रहता है। हर मानव अभिभावक में अपनी संतान के प्रति दया प्रकट करने का प्रवृत्ति बनी ही रहती है। उसके लिए कोई अलग से ट्रेनिंग लेने की ज़रूरत नहीं है। दया-पूर्वक यदि "बल" (शरीर-बल और मनोबल) का प्रयोग कर पाएं तो संतान में मानव-चेतना स्थापित होगी। जिससे अभिभावक भी सुखी होंगे, और संतान भी सुखी होगी।

तन, मन, और धन - ये तीन प्रकार से "अर्थ" होता है। धन से हम कैसे, क्या करके सुखी होते हैं?

धन के साथ हम "उदारता" पूर्वक सुखी होते हैं।

उदारता का मतलब है - धन को उपयोग करने, सदुपयोग करने, और प्रयोजनशील बनाने की क्रिया। धन का परिवार में "उपयोग" करना, अखंड-समाज में "सदुपयोग" करना, और सार्वभौम-व्यवस्था में "प्रयोजनशील" बनाने की क्रिया है - उदारता। हर अभिभावक में अपने बच्चों के प्रति उदारता रहता ही है। सभी ने अपने बच्चों के प्रति उदारता प्रकट किया है, भले ही कुछ समय तक ही क्यों न हो। मानव में संबंधों में उदारता प्रकट करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। उदारता से धन से सुख पाने की विधि बनती है।

पद से "न्याय" पूर्वक सुखी होना बनता है.

हम मानव नैसर्गिक-विधि से ज्ञान-अवस्था में है। ज्ञान-अवस्था एक पद है। यह "देव पद" है। हमारे पद के अनुरूप हम न्याय करने से हम पद से सुखी हो जाते हैं। न्याय-पूर्वक जीने से हमारा देव-पद में जीते हुए सदा-सदा के लिए सुखी रहना बन जाता है। न्याय से हम सुखी होते हैं, अन्याय से दुखी होते हैं। उसी तरह - उदारता पूर्वक हम सुखी होते हैं, कृपणता पूर्वक हम दुखी होते हैं। दया पूर्वक हम सुखी होते हैं, निष्ठुरता पूर्वक हम दुखी होते हैं। इन सब बातों को अपने में अच्छे से गाँठ बाँध कर रखने की बात है - इसका नाम है, संस्कार। इन विधियों को जीवन में प्रमाणित करना ही संस्कार है।

बुद्धि के साथ "विवेक" पूर्वक हम सुखी होते हैं.

बुद्धि के साथ सुखी होने की विधि है - विवेक। अविवेक पूर्वक हम दुखी होते हैं। विवेक के बारे हमें विगत में पूर्वजों ने बताया था - "आत्मा का अमरत्व और शरीर का नश्वरत्व विवेक है"। सह-अस्तित्व वादी विधि से हम यहाँ बता रहे हैं - जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व, और व्यवहार के नियम ये तीन मिला करके विवेक है। जीवन के रूप में मैं अमर हूँ - यह समझ में आना। शरीर गर्भ में जैसा रहता है, बाहर वैसा नहीं रहता, और बड़े होने पर वैसा नहीं रहता, फ़िर एक दिन शरीर विरचित भी होता है - यह हमारे सामने घटित घटनाएं हैं। शरीर प्राण-कोशों से रचित एक रचना है। रचना का विरचना होता ही है। शरीर नश्वर है - यह समझ में आना। शरीर को विरचित होना ही है, तो इसका क्या किया जाए? सदुपयोग किया जाए। शरीर का सदुपयोग करने हेतु हम "व्यवहार के नियम" पर जाते हैं। शरीर के नश्वरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। जीवन के अमरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। व्यवहार के नियमो के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। बुद्धि की ताकत इन तीनो को समझने से है। विवेक पूर्वक जीने से हम "सुखी" होते हैं।

अविवेक पूर्वक सोचते हैं, तो शरीर को अमर मानना शुरू कर देते हैं। जीवन को अमर मानने की जगह शरीर को अमर मानने पर दुखी होना स्वाभाविक है। "शरीर का नश्वरत्व" को स्वीकारना नियति-सहज स्वीकृति है। नियति-सहज का मतलब - शरीर का विरचित होना एक अस्तित्व-सहज क्रियाकलाप है। अस्तित्व सहज जो भी क्रियाकलाप है, उसको नियति-सहज माना। मानव अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश शरीर को अमर माना है, उससे दुखी होना निश्चित ही है। शरीर को जीवन मानते हैं, तो शरीर में होने वाला छोटा सा परिवर्तन हमको भयंकर विध्न जैसा प्रतीत होने लगता है। इसीलिये - शरीर को शरीर मानने की आवश्यकता है, जीवन को जीवन मानने की आवश्यकता है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव संज्ञा में होने की बात को स्वीकारने की आवश्यकता है। इन स्वीकृतियों के साथ हम विवेक पूर्वक जीते हैं। विवेक पूर्वक जीने से हम सुखी होते हैं।

विवेक को हटाया - मतलब, "जीवन के अमरत्व" को भुलावा दे दिया। फ़िर हमारे लिए शरीर ही जीवन हो गया। शरीर को जीवन मानने के बाद दुःख का रोड़ा शुरू हो गया। इतना ही बात है।

इस तरह से मनुष्य के पास ये पाँच विभूतियाँ (रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि) सदा-सदा है। कोई आदमी नहीं है, जो इन पाँचों से रिक्त हो। अपने में इनको अनुभव करना है, कि मैं इन पाँचों से संपन्न मनुष्य हूँ। ये बात पता चला - हम सभी सुखी होने के इच्छुक हैं। फ़िर रूप के साथ सद्चरित्र, बल के साथ दया, धन के साथ उदारता, पद के साथ न्याय, और बुद्धि के साथ विवेक पूर्वक हम सुखी होते हैं। इतना ही बात है।

सारा मनुष्य जाति का सुखी या दुखी होने का इतिहास इतना ही है। चाहे विगत में हो, वर्तमान में हो, या भविष्य में हो। तीनो काल में सुखी या दुखी होने की प्रक्रिया इतना ही है। ये "निर्णायक" विधि से स्पष्ट है। "निर्णायक" मतलब - इसमें अब तर्क कुछ भी नहीं है।

विद्यार्थी निष्ठा से सुखी होते हैं। 

विद्या को पाने का निष्ठा यदि बना रहता है तो विद्यार्थी सुखी रहता है। निष्ठा जब टूट जाती है तो दुखी रहता है, इधर-उधर झांकता है। विद्या का मतलब है - ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न होना। ज्ञान, विज्ञान, विवेक संपन्न होने के लिए जो उपक्रम है, उसमें सदा-सदा अपना ध्यान लगा रहता है - इसका नाम है "निष्ठा"। यदि अपना ध्यान लगना बंद हो जाता है, या ध्यान उचट जाता है - उसका मतलब निष्ठा नहीं है। निष्ठा नहीं होने से मानव का विद्या से संपन्न होना या ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न होना सम्भव नहीं है। समझने के लिए निष्ठा चाहिए, हमारा मन लगना चाहिए, हमको इसमें तुलना चाहिए। विद्या से संपन्न होने की अपेक्षा को बनाए रखना चाहिए। विद्या से संपन्न होने के बीच में कोई रोड़ा नहीं लाना चाहिए। बीच में रोड़ा हो तो समझना बनता नहीं है। इतना ही निष्ठा का मतलब है।

निष्ठा पूर्वक हम समझने लगते हैं। निष्ठा पूर्वक समझना सुगम हो जाता है। निष्ठा नहीं होने से दुर्गम है ही - यह तो स्वाभाविक है।

अध्ययन पूर्वक ही मनुष्य समझदार होता है। दूसरा किसी विधि से समझदार नहीं होता। अध्ययन का मतलब है - अनुभव की रोशनी में स्मरण-पूर्वक किया गया कार्य-कलाप। शब्दों को हम स्मरण में लाते हैं, शब्दों से इंगित वस्तु को अस्तित्व में पहचान लिया - मतलब, अध्ययन हुआ। जैसे - "पानी" एक शब्द है। पानी एक वस्तु है। पानी अस्तित्व में एक अस्तित्व-सहज वस्तु है। "पानी" जो शब्द बोला वह स्मरण में जाता है। पानी वस्तु अस्तित्व में होता है। वस्तु का बोध होता है। वस्तु का बोध होने के चार भाग हैं - जानना, मानना, पहचानना, और निर्वाह करना।

जब कभी वस्तु का बोध होता है तो वह अपने सम्पूर्णता के साथ होता है। उसके बाद वस्तु क्यों है और कैसा है - इसका जो ज्ञान होता है, वह अनुभव है। ज्ञान रूप में हम जब संपन्न होते हैं, प्रमाणित होते हैं - उसका नाम है, अनुभव। वस्तु का नाम बताना - यह कोई ज्ञान नहीं है। वेदों में लाखों ऋचाएं हैं। हमारे पूर्वजों ने शब्द को "प्रमाण" माना। शब्द को बोल कर पहले संतुष्टि होता होगा, अब नहीं होता। अब शब्द के साथ "अर्थ" का निष्पत्ति आवश्यक हो गया है। अर्थ के साथ ज्ञान होना आवश्यक हो गया है। इस तरह शब्द, शब्द का अर्थ, अर्थ का ज्ञान।  अर्थ क्या होता है? अर्थ अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु क्यों है, कैसा है? - इसका ज्ञान होता है। वस्तु का ज्ञान होता है, मतलब हम वस्तु को समझ गए। वस्तु को समझ गए - मतलब वस्तु के "दृष्टा" हुए।

- अनुभव-शिविर (जनवरी २००६ ), अमरकंटक में बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन से

1 comment:

Raja Lahiri said...

The content is too useful. Babaji had elaborately explained and it is appropriate for such Anubhav Shivir. I felt very satisfying...
Raja Lahiri