न्याय का स्वरूप मानव-संबंधों में स्पष्ट होता है।
मानव द्वारा अपनी परस्परता में संबंधों को पहचानना एक साधारण प्रक्रिया है। "पिता", "माता", "भाई", "बहन" ये नाम से परस्परता में संबोधन होता ही है। फ़िर पिता के भाई-बहन ("चाचा", "बुआ"), माता के भाई-बहन ("मामा", "मौसी") के संबोधनों के लिए नाम होता ही है। इन संबंधों में शरीर-सम्बन्ध को छोड़ कर व्यवहार करने की बात स्पष्ट होती है।
पति-पत्नी सम्बन्ध ही शरीर-संबंधों के साथ हैं। यह तथ्य समझ में आना आवश्यक है। जीव-अवस्था में जैसे प्रजनन-प्रणाली है, मानव-जाति में भी वैसे ही प्रजनन-प्रणाली है। उस क्रम में पति-पत्नी सम्बन्ध प्रजनन-कार्य पूर्वक संतान-परम्परा के लिए एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। जीव-अवस्था में प्रजनन-कार्य की सीमा में ही सम्बन्ध होना पर्याप्त हो गया, जबकि मानव-परम्परा में पति-पत्नी सम्बन्ध प्रजनन-कार्य की सीमा में ही होना पर्याप्त नहीं हुआ। मानव-परम्परा में बहुत सारे आयाम जुड़ता गया।
मानव समझदारी पूर्वक ही हर सम्बन्ध को प्रयोजनों के अर्थ में पहचान पाता है - फलस्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।
हर मानव-संतान का अपने अभिभावकों को "पोषण-संरक्षण" के अर्थ में पहचानना स्वाभाविक है। जीव-चेतना विधि से पोषण-संरक्षण केवल शरीर से सम्बंधित रहता है। संतान को भाषा से संपन्न बनाना, और प्रचलित-अलंकार से संपन्न कराने का प्रयास बना रहता है। शरीर की सीमा तक ही किया गया पोषण-संरक्षण किसी आयु के बाद नगण्य हो जाता है, या इसकी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं, या कुछ दूसरी भौतिक वस्तुओं से जुडी प्राथमिकताएं स्थापित हो जाती हैं। फलस्वरूप अभिभावकों की अपेक्षा के अनुरूप संतान का व्यवहार न हो पाना घटना के रूप में देखने को मिल रहा है। यही पीढ़ियों के बीच की दूरी (generation gap) के रूप में देखने को मिल रहा है। इस घटना का निराकरण होना जरूरी है। यह निराकरण जीव-चेतना विधि से सम्भव नहीं है। जीव-चेतना विधि में जीवों का ही अनुकरण करना बनता है।
हर जीव-जानवर अपनी संतान के जन्म के समय के तुरंत बाद अतिव्यामोह अथवा प्यार-दुलार करता हुआ देखने को मिलता है। पक्षी अपनी चोंच में आहार-तत्व ला कर अपनी संतान की चोंच में देते हैं। मांसाहारी जानवर अपने शिकार को मार कर अपने संतान के सम्मुख रखना देखा जाता है। मांसाहारी और शाकाहारी दोनों तरह के जानवरों में अपनी संतान को स्तन-पान कराना देखा जाता है। गाय अपनी संतान को दूध पिलाते हुए प्रसन्न होता हुआ देखने को मिलता है। बछड़े को ठीक से घास खाता देखकर आश्वस्त होता हुआ देखने को मिलता है।
मनुष्य द्वारा जीव-चेतना में उपरोक्त का अनुकरण करने का स्वरूप है -
(1) आहार-आवास-अलंकार संबंधी वस्तुओं से पोषण-संरक्षण करना।
(२) कुछ समय बाद संतानों में इसका वरीयता गौण होना पाया जाता है।
(३) हर आगे की पीढी पिछली पीढी से कुछ "और अच्छे तरीके" से इन वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है, और उनके उपयोग में स्वतंत्रता संपन्न होना चाहता है।
इन तीनो के योगफल में अगली पीढी और पिछली पीढी में दूरियां बढ़ती जा रही हैं।
इस स्थिति का निराकरण मानव-चेतना विधि से यह है -
(१) हर मानव संतान का अभिभावकों के साथ अपने संबंधों में प्रयोजनों को स्मरण में रखते हुए कृतज्ञ होना।
(२) विश्वास पूर्वक संबंधों का निर्वाह करना
(३) तन-मन-धन रुपी अर्थ का उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता के अर्थ में अर्पण-समर्पण के लिए उदार-चित्त रहना
इस तरह - संबंधों का निर्वाह होना ही "न्याय" है। संबंधों का प्रयोजन सिद्ध होना, संबंधों में मूल्यों का निर्वाह होना और उभय-तृप्ति होना ही न्याय की व्याख्या है।
इस प्रकार न्याय और न्याय की व्याख्या इस छोटे से लेख के द्वारा मानव-सम्मुख प्रस्तुत है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
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