जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। आत्मा जीवन का मध्यांश है।
प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाओं की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: भ्रमित-मनुष्य के जीवन में बुद्धि और आत्मा की क्रियाएं चुप रहती हैं। आत्मा और बुद्धि की क्रियाओं के चुप रहने के फलन में ही भ्रमित-मनुष्य में "सुख की आशा" बनी हुई है।
प्रश्न: अध्ययन-काल में आत्मा की क्या स्थिति होती है?
उत्तर: अनुभव के प्रगट होते तक आत्मा चुप रहता है। अध्ययन काल में आत्मा की कोई क्रिया नहीं है। प्रबोधन को स्वीकारते स्वीकारते अंततोगत्वा आत्मा क्रियाशील हो जाता है। अनुभव-संपन्न हो जाता है। अनुभव-सम्पन्नता जीवन में तृप्ति का आधार है। अनुभव को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव-शीलता (अनुभव की निरंतरता) है। अनुभव पूर्वक मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, और संतुलन प्रमाणित होता है। अनुभव पूर्वक मनुष्य-प्रकृति के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)
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