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Monday, December 7, 2009

समाधान-समृद्धि का अनुकरण

स्वयं में विश्वास नहीं है तो दूसरे पर विश्वास करना सम्भव नहीं है। आज के प्रचलित तरीके से जीने से आदमी अहमता के आधार पर अकेला हो गया है, जबकि वास्तविक रूप में नियति विधि से आदमी सह-अस्तित्व में है।

प्रश्न: मनुष्य के मनुष्य से जुड़ने की विधि क्या हो?

उत्तर: पहले हम "श्रेष्ठता" के साथ जुड़ते हैं, फ़िर "समानता" के साथ जुड़ते हैं। "यह व्यक्ति मेहनत करके कुछ पाया है" - ऐसी श्रेष्ठता के अनुमान के साथ आप मुझसे जुड़े हो। ज्ञान में समानता, विचार में समानता, और प्रयोजन में समानता - इन तीन जगह में समानता आने पर समानता के साथ जीना बन जाता है। समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने के दो बिन्दु पहचाने - (१) अमीरी-गरीबी में संतुलन, (२) नर-नारी में समानता। मनुष्य के इस तरह व्यवस्था में जीने के लिए उसका "समझदार" होना आवश्यक है - यह मैंने स्वीकारा है। समझदारी के पहले आदमी का व्यवस्था में जीना बनेगा नहीं।

प्रश्न: समझदार होने तक क्या किया जाए?

उत्तर: समझदार होने तक समझदार व्यक्ति का अनुकरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति अगर समझदार होता है, तो वह कुछ लोगों को appeal होता है। कुछ लोगों को वह appeal नहीं भी होता है। इसके साथ यह भी है, अनुभवशील व्यक्ति किसी न किसी को appeal होता ही है, कि "यह श्रेष्ठ व्यक्ति है।" श्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी appeal होता है। इसी लिए अनुकरण की सम्भावना बनती है। जिसको प्रमाण के रूप में स्वीकारते हैं, उसका अनुकरण कर सकते हैं। समझदार व्यक्ति को प्रमाण रूप में स्वीकारने की गवाही उसका अनुकरण करने में है।

प्रश्न: अध्ययन काल में (समझदार होने तक) बाकी लोगों के साथ संबंधों में क्या किया जाए?

उत्तर: शिष्टता का निर्वाह। मैं भी समझदार नहीं हुआ हूँ, आप भी समझदार नहीं हुए हैं - उस स्थिति में शिष्टता का निर्वाह हो सकता है। दो में से एक व्यक्ति समझदार होता है, तो अध्ययन और अनुकरण की सम्भावना बनती है। दोनों के समझदार होने पर समानता पूर्वक व्यवस्था में जीने की बात बनती है।

प्रश्न: आपकी किस बात का अनुकरण करें?

उत्तर: समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का। और किस बात का अनुकरण करोगे? समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना अनुकरण योग्य है।

साक्षात्कार-बोध के लिए निरंतर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ऐसे प्रयत्न करते हुए हमारी दिनचर्या भी उसके अनुकूल होना आवश्यक है। अपने "करने" का यदि अपने "सोचने" से विरोधाभास रहता है तो साक्षात्कार-बोध नहीं होता। पुनः हम शरीर-मूलक विधि में ही रह जाते हैं। आवेश के साथ अध्ययन नहीं होता। आवेश अध्ययन के लिए अड़चन है।

पहले रास्ता ठीक होगा, तभी तो गम्य-स्थली तक पहुंचेंगे! रास्ते पर चल कर ही गम्य-स्थली तक पहुँचा जा सकता है। रास्ते पर हम चलें नहीं, और हमें गम्य-स्थली मिल जाए, ऐसा कैसे हो? इसके लिए हमें यह जांचने की ज़रूरत है - क्या हमारा "करना" हमारे गम्य-स्थली तक पहुँचने के लिए अवरोध तो पैदा नहीं कर रहा है? हम जैसा सोचते हैं, वैसा करें भी, वैसा कहें भी, वैसे फल-परिणामो को पाएं भी, वैसा प्रमाणित भी करें - यही "गम्य-स्थली" है।

जैसे - हम "नियम" का अध्ययन कर रहे हैं, और हमारा आचरण नियम के विपरीत हो - तो इसमें अंतर्विरोध हो गया। इस अंतर्विरोध के साथ नियम का साक्षात्कार नहीं होता। अध्ययन के साथ "स्वयं का शोध" चलता रहता है। मैं जो समझ रहा हूँ, क्या मैं उसके अनुरूप जी रहा हूँ? इसको पूरा करने के लिए ही "अनुकरण विधि" है।

अध्ययन एक "निश्चित साधना" है। अध्ययन रुपी साधना के साथ "समाधान-समृद्धि" के मॉडल का अनुकरण किया जा सकता है। यह आदर्शवाद के प्रस्ताव से भिन्न है, जिसमें साधना के साथ सामने कोई मॉडल रहता नहीं है। आदर्शवादी साधना में अनुकरण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भौतिकवाद में साधना का कोई मतलब ही नहीं है। भौतिकवाद में उपलब्धि या गम्य-स्थली के रूप में यंत्र है। यंत्र को खरीदो और प्रयोग करो - इतना ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर २००९, अमरकंटक)

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