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Monday, February 29, 2016

जीवन और जन्म

"जीवन संस्कारशील है, जन्म भोगशील है.  भोग सापेक्षता में जीवन का विस्मृति ही प्रधानतः अज्ञान है.  जीवन मूल्य की अपेक्षा में ही जीवन का कार्यक्रम निर्धारित होता है.
" - श्री ए नागराज


सौजन्यता

"सौजन्यता सीमित नहीं है, यदि सीमित है तो सौजन्यता नहीं है.  वर्गभावना या संस्थानुरूप अनुसरण में सौजन्यता का पूर्ण विकास संभव नहीं है.  क्योंकि जो व्यक्ति वर्गभावना से ओतप्रोत रहता है वह उस वर्ग की सीमा में अत्यंत सौजन्यता से प्रस्तुत होता है एवं अन्य वर्ग के साथ निष्ठुरता पूर्वक प्रस्तुत होता है.  अतः वर्ग सीमा में मनुष्य की सौजन्यता परिपूर्ण नहीं है, और इसी अपरिपूर्णता वश ही स्वयं में स्वयं का विश्वास नहीं हो पाता।  यह घटना पराभव का कारण होती है.  इस पीड़ा से मुक्ति का एकमात्र उपाय अध्ययन पूर्वक जागृत होना ही है."  - श्री ए नागराज


Sunday, February 28, 2016

विश्वास

"विश्वास स्थापित मूल्यों में से साम्य मूल्य है.  विश्वास मूल्य की अनुभूति मानवीयता में ही होती है.  विश्वास मूल्य ही क्रम से पूर्ण मूल्यानुभूति पर्यन्त प्रगतिशीलता के लिए बाध्य करता है, प्रेरित करता है.  इसी क्रम में मानव में गुणात्मक परिवर्तन होता है.  अध्ययन क्रम में अस्तित्व को सहअस्तित्व रूप में,जीवन के अमरत्व एवं परस्परता में सम्बन्ध को अवधारणा के रूप में स्वीकारने के क्रम में विश्वास का उदय होना सिद्ध है." - श्री ए नागराज


Friday, February 26, 2016

धरती की दुर्दशा

"पूर्व में हमारे पूर्वजों ने कहा भक्ति, विरक्ति में कल्याण है किन्तु मानव जाति के कल्याण की परंपरा हुई नहीं।  भौतिकवाद आया तो पहले से प्रलोभन से ग्रसित मानव सुविधा-संग्रह में फंस गया.  इसके चलते मानव शोषण, अपराध, युद्ध जैसे कृत्यों को करता रहा और आज भी कर रहा है.  सुविधा-संग्रह के लिए मानव ने धरती का शोषण किया और धरती का पेट फाड़ कर खनिज निकाला, जंगल काट डाला।  इससे धरती बीमार हो गयी और ऋतु संतुलन प्रतिकूल हो गया.  ईंधन अवशेष और परमाणु परीक्षण से उत्पन्न ऊष्मा और प्रदूषण से धरती पर और विपदा आ गयी, अब यह धरती मानव के रहने लायक कितने दिन बचेगी - यह प्रश्न चिन्ह लग गया.  इसको हम मानव जाति का विकास बता कर डींग हाँक रहे हैं?  अभी तक इस मुद्दे पर तथाकथित बुद्धिजीवी केवल चर्चा कर रहे हैं." - श्री ए नागराज

Tuesday, February 23, 2016

मूल्यों की समझ

"अस्तित्व में परस्परता में सम्बन्ध हैं ही.  अस्तित्व में हर वस्तु प्रयोजन सहित ही है.  सम्बन्ध को उनके प्रयोजन को पहचान कर निर्वाह करते हैं तो उनमे निहित मूल्यों का दर्शन होता है - क्योंकि मूल्य विहीन सम्बन्ध नहीं हैं.  और मूल्य शाश्वतीयता के अर्थ में ही हैं, अर्थात सम्बन्ध भी शाश्वत ही हैं.  मानव समबन्ध में विचार व्यवहार का प्रत्यक्ष स्वरूप मूल्य ही है.  मूल्यों सहित व्यवहार ही तृप्तिदायक है, यही न्याय है.

मूल्यों का स्वरूप क्या है?  मूल्यों को स्वयं में कैसे जाँचा जाये?  अन्य के लिए हमारे मन में सदैव (निर्बाध) अभ्युदयकारी, पुष्टिकारी, संरक्षणकारी भाव और विचारों का होना और तदनुरूप व्यवहार होना ही मूल्यों की समझ का प्रमाण है.  न्याय के साक्षात्कार का प्रमाण है.  यदि हम इन भावों सहित जीते हैं, अभिव्यक्त होते हैं तो न्याय समझ में आया.  अन्यथा केवल पठन हुआ."  - श्री ए नागराज


Monday, February 22, 2016

समाज

"संबंधों का ताना-बाना ही समाज है.  सम्पूर्ण सम्बन्ध संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था वादी हैं.  समाज के यही चार आयाम हैं.  इसकी सार्वभौमता ही इनका वैभव है.  समाज की पूर्णता साम्प्रदायिक चरित्र और सुविधा व भोगवादी वस्तुओं के आधार पर सिद्ध नहीं हुआ.  वस्तुओं के साथ समाज मूल्य नहीं वर्तता है.  यह केवल मानव मूल्यों व समाज मूल्यों के वैभव में ही है.  समाज में न्याय के लिए मूल्य ही आधार है.  सामाजिक मूल्यों के साथ विश्वास और निष्ठा वर्तमान है.  प्रामाणिकता स्वयं में विश्वास और निष्ठा के रूप में ही सम्प्रेषित होती है.  मानव की प्रामाणिकता ही समाज व्यवस्था का आधार है." - श्री ए नागराज




Sunday, February 21, 2016

कृतज्ञता - राष्ट्रीय चरित्र का आधार

"विकास व उन्नति के प्रति प्राप्त सहायता जिससे भी मिली हो, उसकी स्वीकृति ही कृतज्ञता है.  उपकारान्वित एवं सहयातान्वित होना स्वयं की गरिमा न होते हुए भी गरिमा संपन्न होने की संभावना होती है, यदि कृतज्ञता हो तो. गरिमा सम्पन्नता का तात्पर्य उपकार व सहायता करने की क्षमता से है.  प्रत्येक व्यक्ति गरिमा संपन्न होना चाहता है.  कृतज्ञता का प्रयोजन गरिमा संपन्न होने के अर्थ में ही है, और गरिमा संपन्न होना ही सामाजिकता की पुष्टि है.  इस प्रकार कृतज्ञतावादी, कारी चरित्र ही मानवीय चरित्र है और मानवीय चरित्र ही राष्ट्रीय चरित्र है.  अतः कृतज्ञता राष्ट्रीय चरित्र का आधार हुआ."  - श्री ए नागराज


स्वत्व

"स्वयं से वियोग न होना ही स्वत्व है.  मनुष्य में पाये जाने वाले मूल तत्व निपुणता, कुशलता और पाण्डित्य हैं -  जिनका वियोग संभव नहीं है.  इसलिए यह मनुष्य का स्वत्व सिद्ध हुआ.  जो स्वयं के अधीन हो, जिससे स्व-विचार, इच्छा, संकल्प एवं आशानुरूप नियोजन पूर्वक प्रमाण सिद्ध हो, यही स्वत्व का प्रत्यक्ष प्रमाण है.  क्षमता, योग्यता, पात्रता ही स्वत्व है.  इसके अतिरिक्त वस्तु का संग्रह, सम्पत्तिकरण पूर्वक स्वत्व को पाने का प्रयास मनुष्य ने किया है." - श्री ए नागराज



Friday, February 19, 2016

नित्य वर्तमान

"अस्तित्व नित्य वर्तमान का मतलब है, स्थितिशील और गतिशील निरंतरता।  जड़ चैतन्य प्रकृति के लिए यही वर्तमान है.  स्थिति-गतिशीलता सहित वर्तमान है.  जड़-चैतन्य प्रकृति स्थिति-गति स्वरूप में वर्तता ही रहता है.  यह कभी रुकने वाला नहीं है इसलिए नित्य वर्तमान है.  किसी भी वस्तु का होना निरंतरता के अर्थ में ही है.  निरंतरता का बोध होना ही अध्ययन का प्रमाण है, जिससे ही मानव अभय होता है." - श्री ए नागराज

Wednesday, February 17, 2016

क्षमा

"क्षमा ::- अन्य के विकास के लिए की जाने वाली सहायता के समय उसके ह्रास पक्ष से अप्रभावित रहने की क्षमता।

अनावश्यकता के प्रति उदासीन अथवा विस्मरण

क्षमा करने वाला मानव भ्रमित मानव की गलतियों से अप्रभावित रहने पर ही क्षमा कर सकेगा।  गलतियों से प्रभावित होने पर क्षमा के स्थान पर प्रतिक्रिया होगी - जिससे घृणा, क्रोध, द्वेष होगा।" - श्री ए नागराज

Tuesday, February 16, 2016

कल्पनाशीलता का प्रयोग

"कल्पनाशीलता समझ नहीं है, किन्तु अस्तित्व में वस्तु को पहचानने के लिए आधार है.  कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए हमें वस्तु को पहचानना है.

समझने के लिए जब तीव्र जिज्ञासा बन जाती है तभी अध्ययन प्रारम्भ होता है.  जीवन में शब्द द्वारा कल्पनाशीलता से जो स्वरूप बनता है, उसके मूल में जो वस्तु है उसे जब जीवन स्वीकार लेता है तब साक्षात्कार हुआ.  जैसे - न्याय को समझ लेना अर्थात न्याय को स्वीकार लेना।  इसका आशय है, हमारे आशा, विचार, इच्छा में न्याय स्थापित हो जाना।  ऐसा हो गया तो न्याय साक्षात्कार हुआ." - श्री ए नागराज


Sunday, February 14, 2016

स्वभाव-धर्म

"इकाई का स्वभाव उसके अस्तित्व सहज प्रयोजन को स्पष्ट करता है.  कोई भी इकाई अस्तित्व में 'क्यों है?' - इस प्रश्न का उत्तर उसके स्वभाव को पहचानने से मिलता है.  स्वभाव ही वस्तु का मूल्य है.

इकाई का धर्म उसके होने को स्पष्ट करता है.  कोई भी इकाई अस्तित्व में 'कैसे है?' - इसका उत्तर उसके धर्म को पहचानने से मिलता है.  धर्म शाश्वतीयता के अर्थ में है.  'होने' का ही दर्शन है.  'होने' को समझने के बाद ही मानव जागृति को प्रमाणित करता है." - श्री ए नागराज


Friday, February 12, 2016

अध्ययन विधि से अनुभव

"भ्रमित अवस्था में भी बुद्धि चित्त में होने वाले चित्रणों का दृष्टा बना रहता है.  मध्यस्थ दर्शन के अस्तित्व सहज प्रस्ताव का चित्रण जब चित्त में बनता है तो बुद्धि उससे 'सहमत' होती है.  यही कारण है इस प्रस्ताव को सुनने से रोमांचकता होती है.  रोमांचकता का मतलब यह नहीं है कि कुछ बोध हो गया!  इस रोमांचकता में तृप्ति की निरंतरता नहीं है.

अध्ययन पूर्वक तुलन में न्याय, धर्म, सत्य को प्रधानता दी जाए.  न्याय, धर्म और सत्य का आशा, विचार और इच्छा में स्थिर होना ही 'मनन' है.  इस आधार पर हम स्वयं की जाँच शुरू कर देते हैं कि न्याय सोच रहे हैं या अन्याय।  जाँच होने पर हम न्याय-धर्म-सत्य की प्राथमिकता को स्वयं में स्वीकार लेते हैं, और न्याय-धर्म-सत्य क्या है? - इस शोध में लगते हैं.  इस शोध के फलस्वरूप हम इस निम्न निष्कर्षों पर पहुँचते हैं: -

१. सहअस्तित्व ही परम सत्य है
२. सर्वतोमुखी समाधान ही धर्म है
३. मूल्यों का निर्वाह ही न्याय है

इन निष्कर्षों के आने पर तत्काल साक्षात्कार हो कर बुद्धि में बोध होता है.  बुद्धि में जब यह स्वीकार हो जाता है तो आत्म-बोध हो कर अनुभव हो जाता है. "  - श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, February 11, 2016

प्रस्ताव अधिकार में न आने का कारण

"मानव चेतना संपन्न होने के लिए मध्यस्थ दर्शन प्रस्ताव अपने अधिकार में न आने का बड़ा कारण है - मनुष्य का जीव चेतना में अपने जीने के कुछ पक्षों को सही माने रहना।  जबकि मानव चेतना और जीव चेतना के किसी भी पक्ष में समानता नहीं है.

जब तक अध्ययन शुरू नहीं होता, तब तक हमारी पूर्व स्मृतियाँ बाधाएं डालता ही है.  मूलतः बाधा डालने वाली बात है - शरीर को जीवन मानना।

पठन (श्रवण) पूर्वक सूचना से मानव चेतना की श्रेष्ठता के प्रति हमारी कल्पना में प्राथमिकता (मनन पूर्वक) बन जाती है.  वहाँ से अध्ययन शुरू होता है.  उसके बाद साक्षात्कार होता है.

प्राथमिकता का अर्थ है - मनन विधि से न्याय-धर्म-सत्य रूपी वांछित वस्तु में चित्त-वृत्ति संयत होना।" - श्री ए नागराज 

Wednesday, February 10, 2016

मनन का महत्त्व

प्रकृति में चार अवस्थाएं हैं - पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, और ज्ञानावस्था।  विकल्पात्मक विधि से सहअस्तित्व समझ में आने के बाद चार अवस्थाओं का ऐसे नामकरण करना संभव हुआ.  चार अवस्थाओं का नाम आपने सुना है, उनको समझना 'अध्ययन विधि' से होता है.  रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अध्ययन होता है.  जीवन इनको पहचानता है.  रूप को भी जीवन ही पहचानता है.  चारों अवस्थाओं के रूप को पहचानने में विश्वास हो गया है.  इनके गुण, स्वभाव और धर्म  स्पष्ट होने के लिए अध्ययन ही एक मात्र विधि है.  अध्ययन पूर्वक हर अवस्था का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म स्वीकृत होता है, साक्षात्कार होता है, अनुभव होता है और आगे की पीढ़ी के साथ प्रमाणित होता है.

सूचना इन्द्रियों से आती है.  भाषा स्वीकार होकर चित्त में चित्रित हो जाता है.  भाषा से अस्तित्व में वस्तु इंगित होती है.  वस्तु में रूप-गुण-स्वभाव-धर्म अविभाज्य रूप में वर्तमान होता है.  हर अवस्था में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का क्या स्वरूप है, वह आपके सम्मुख सूचना प्रस्तुत करते हैं, और उसको जाँचने (निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण) का काम आपके लिए छोड़ देते हैं.  जाँचने पर आपको पता चलता है - हर इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म होता ही है.

जो हम समझे हैं, उसको आपके लिए 'सूचना' रूप में प्रस्तुत करते हैं - जो सारी वास्तविकताओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का विश्लेषण है.  यह विश्लेषण आपके लिए पहले 'सूचना' है, फिर 'सोच-विचार' है, उसके बाद रूप और गुण का चित्रण है, फिर स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार है.  इस तरह चित्त के दो भाग हैं - एक भाग जिसमे चित्रण होता है, दूसरा वह जो चित्रण की सीमा में नहीं आता।  चित्रण भी हो, साक्षात्कार भी हो - समझने की स्थली यहाँ है.

ये चारों अवस्थाएं रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के संयुक्त रूप में हैं - इसमें से रूप आपकी आँखों में दिखाई पड़ता है, इससे आपने स्वीकार लिया कि ये चारों अवस्थाएं हैं. ये चारों अवस्थाएं अस्तित्व में हैं.  व्यापक वस्तु में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में चार अवस्थाएँ हैं.  हर अवस्था का अपने स्वरूप में होना है.  होने के रूप में शाश्वत है - यह साक्षात्कार होता है.

साक्षात्कार जिस बात का होना है उसका पहले वृत्ति में  विचार/तुलन होता है.  यहाँ यह स्पष्ट होता है कि प्रिय-हित-लाभ तुलन इन्द्रिय-सीमावर्ती है, जबकि न्याय-धर्म-सत्य तुलन ज्ञान सीमावर्ती है.  फिर तर्क विधि से हम प्रिय-हित-लाभ और न्याय-धर्म-सत्य की तुलना में पहुँच जाते हैं.  दोनों की तुलना में क्या चाहिए?  तो अंततोगत्वा यह स्वयं में निश्चयन होता है - न्याय-धर्म-सत्य चाहिए!  यह निश्चयन होने के बाद चित्त में साक्षात्कार होना शुरू होता है.

जो सूचना मिलती है, उसके गुणानुवादन पूर्वक न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में भेद स्पष्ट हो जाता है, स्वीकार हो जाता है.  इन दोनों के बीच तुलन होने पर "निश्चयन" होता है.  निश्चयन होने के आधार पर साक्षात्कार होता है.  साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता है.  तुलन में यह निश्चयन हुए बिना साक्षात्कार होने का नौबत ही नहीं आती.  वह प्रक्रिया ही शुरू नहीं होती।  साक्षात्कार तक पहुँचने में ही सारा समय लगता है.  तुलन में प्राथमिकता को तय करने में ही हम पीछे रह जाते हैं.  रूप और गुण के बारे में तुलन प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में ही होता है.  स्वभाव और धर्म के बारे में तुलन न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में ही होता है.  दूसरा कोई तरीका ही नहीं है.  मेरे अनुसार इसी जगह ज्यादा ध्यान देने की ज़रुरत है.  हम सुनकर तुलन को पूरा करते नहीं हैं, छोड़ कर भाग जाते हैं!  फिर निश्चयन होता नहीं है, साक्षात्कार होता नहीं है, बोध होता नहीं है, अनुभव होता नहीं है.  

तुलन अपने में मनन प्रक्रिया है.  साक्षात्कार से पहले मनन प्रक्रिया है.  मनन में मन को लगा देने से निश्चयन पूरा होता है.  शब्द के अर्थ में यदि मन लगाते हैं तब वह 'मनन' कहलाया।  शब्द तक ही रह गए तो 'स्मृति' कहलाया।  स्मृति में प्रिय-हित-लाभ सीमावर्ती चित्रण बनता है, लेकिन न्याय-धर्म-सत्य सीमावर्ती चित्रण अनुभव से पहले बन नहीं पाता।  मनन पूर्वक यह स्पष्ट होता है कि रूप और गुण प्रिय-हित-लाभ दृष्टि की सीमा में है तथा स्वभाव-धर्म न्याय-धर्म-सत्य दृष्टि में आता है.  यही निश्चयन की स्थली है.  यह निश्चयन होने के बाद साक्षात्कार-बोध-अनुभव होने में देर नहीं लगती।  

न्याय-धर्म-सत्य के साथ जुड़ने वाले आयाम स्वभाव और धर्म हैं.  यही मुख्य बात है.  यही निश्चयन होने वाली बात है. अध्ययन विधि में चिन्हित अंगुलीन्यास करने योग्य जगह यही है.   यह यदि पूरा होता है तो अध्ययन हुआ, नहीं तो कोई अध्ययन नहीं हुआ.  सूचना के रूप में जो सारी बात आपके पास आ चुकी है, वह आपके आचरण में चरितार्थ होना है.  चरितार्थ होने के लिए साक्षात्कार होना ही पड़ेगा।  साक्षात्कार होने के लिए तुलन में मनन पूर्वक निश्चयन होना ही पड़ेगा।  

प्रिय-हित-लाभ जितना भी तुलन है - वह चित्त में चित्रण हो जाता है.  प्रिय-हित-लाभ सीमावर्ती जितनी भी उपलब्धियाँ हैं, गति है, स्थिति है - वे सब चित्रण तक पहुँच के स्थिर हो जाते हैं.  ये सभी इन्द्रियगोचर हैं, जो रूप और गुण तक ही हैं.  स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव होना स्वाभाविक है.  प्रिय-हित-लाभ शरीर संवेदना से सम्बद्ध है.  कोई भी वस्तु को जब तक हम केवल शरीर संवेदना से सम्बद्ध करते हैं तब तक हमारा अध्ययन पूरा नहीं हुआ.  वस्तु को उसके स्वभाव और धर्म के साथ सम्बद्ध कर पाये - तब हमारा अध्ययन पूरा हुआ.  अध्ययन पूरा होता है तो साक्षात्कार होता ही है.  साक्षात्कार पूरा होता है तो बोध व अनुभव होता ही है.  अध्ययन पूरा होने पर हम पहले स्वयं में विश्वस्त हो जाते हैं, फिर दूसरों के साथ अपने सम्बन्ध को प्रमाणित करने लग जाते हैं.  स्वयं में विश्वास प्रमाणित करते समय हिलता नहीं है.  मेरा विश्वास क्यों नहीं हिलता?  मैं अनुभव किया हूँ - इसलिए मेरा विश्वास नहीं हिलता।

प्रश्न: क्या मानव स्वभाव और धर्म का चित्रण कर सकता है?  

उत्तर: अनुभव मूलक विधि से कर सकता है.  अनुभव के बिना धर्म और स्वभाव का चित्रण होता ही नहीं है.  अभी मानव में यही वीरानी का स्थली है.  स्वभाव और धर्म भास-आभास तक ही रह गया.  स्वभाव और धर्म के चित्रण के आधार पर ही प्रमाणित होना होता है.  प्रमाणित होना अनुभव मूलक विधि से ही होता है.  प्रमाणित होना प्रयोग या यांत्रिक विधि से नहीं होता।  प्रमाणित होना शब्द या किताबी विधि से नहीं होता।  अब प्रमाणित होने के लिए यंत्र को मॉडल माना जाए, किताब को मॉडल माना जाए, या मानव को मॉडल माना जाए?  अध्ययन करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है.  अध्ययन करने के बाद अनुभव करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है.  अनुभव करने के बाद प्रमाणित करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

सर्वशुभ और परंपरा

"ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्मत निर्णयवादी कार्य-विचार-मानसिकता सहित समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व सहज प्रमाण ही सर्वशुभ और परंपरा है.  अभिव्यक्ति, सम्प्रेष्णा, प्रकाशन मानव में, से, के लिए जीता जागता व्यवहार और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट होता है." - श्री ए नागराज 

Saturday, February 6, 2016

समाधान सहज मूल्यांकन

"भ्रमवश समीक्षा आलोचना को मूल्यांकन मान लिया गया, ऐसे 'मूल्यांकन' से कोई समाधान उत्पन्न नहीं होता, बल्कि द्वेष पैदा होता है.  जागृत परंपरा में सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार का मूल्यांकन मानवीयता पूर्ण व्यवस्था के अंगभूत होने के कारण मूल्यांकन सदा समाधान सहज होना पाया गया है.  अर्थात मूल्यांकन से समाधान निष्पन्न होता है और मूल्यांकन से उत्सवित-प्रेरित होना होता है." - श्री ए नागराज

Thursday, February 4, 2016

संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित होना

"भ्रमित मानव  में जीवन शरीर के माध्यम से तृप्ति पूरा करने का प्रयास करता है.  इन्द्रिय तृप्ति क्षणिक होती है, इसलिए जीवन अतृप्त बना रहता है.  निरंतर तृप्ति की तलाश में जीवन समाधान के लिए प्रयास करना प्रारम्भ करता है.  समाधान (जागृति) होने पर जीवन तृप्त बना रहता है, अतः शरीर संवेदनाओं को तृप्ति के अर्थ में उपयोग नहीं करता बल्कि शरीर स्वास्थ्य और मानवीय परंपरा के लिए उपयोग करता है.  इस तरह संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित होना प्रमाणित होता है.

संवेदनाओं का नियंत्रण हो सकता है, उनको चुप नहीं कराया जा सकता।"  - श्री ए नागराज

"In an illusioned human being, Jeevan seeks fulfillment through body (senses).  Sensory fulfillment is momentary, therefore jeevan remains in unfulfilled state.  In pursuit of fulfillment's continuity, jeevan starts trying for Resolution. Upon Resolution (Awakening), Jeevan remains in fulfilled state, therefore it doesn't use senses for its own fulfillment anymore, instead it uses senses for bodily health and (participation and furthering) tradition of humaneness.  In this way, senses become (naturally) restrained upon achieving cognitive perfection.

Senses can be restrained but they can't be silenced." - Shree A. Nagraj

Wednesday, February 3, 2016

अनुभव

"सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति स्वरूपी अस्तित्व क्यों है? कैसा है? - इसका उत्तर स्वयं में स्थापित होना ही अनुभव है." - श्री ए नागराज 

Tuesday, February 2, 2016

कुछ परिभाषाएँ

पद्दति :- वाँछित पद की ओर गति

अभीष्ट : - अभ्युदय के अर्थ में ईष्ट

सहायता : - अभाव को भाव में परिणित करना सहायता है

अवलोकन : - अवधारणा के रूप में वस्तु को देखने की विधि

स्त्रोत: मध्यस्थ दर्शन