प्रकृति में चार अवस्थाएं हैं - पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, और ज्ञानावस्था। विकल्पात्मक विधि से सहअस्तित्व समझ में आने के बाद चार अवस्थाओं का ऐसे नामकरण करना संभव हुआ. चार अवस्थाओं का नाम आपने सुना है, उनको समझना 'अध्ययन विधि' से होता है. रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अध्ययन होता है. जीवन इनको पहचानता है. रूप को भी जीवन ही पहचानता है. चारों अवस्थाओं के रूप को पहचानने में विश्वास हो गया है. इनके गुण, स्वभाव और धर्म स्पष्ट होने के लिए अध्ययन ही एक मात्र विधि है. अध्ययन पूर्वक हर अवस्था का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म स्वीकृत होता है, साक्षात्कार होता है, अनुभव होता है और आगे की पीढ़ी के साथ प्रमाणित होता है.
सूचना इन्द्रियों से आती है. भाषा स्वीकार होकर चित्त में चित्रित हो जाता है. भाषा से अस्तित्व में वस्तु इंगित होती है. वस्तु में रूप-गुण-स्वभाव-धर्म अविभाज्य रूप में वर्तमान होता है. हर अवस्था में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का क्या स्वरूप है, वह आपके सम्मुख सूचना प्रस्तुत करते हैं, और उसको जाँचने (निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण) का काम आपके लिए छोड़ देते हैं. जाँचने पर आपको पता चलता है - हर इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म होता ही है.
जो हम समझे हैं, उसको आपके लिए 'सूचना' रूप में प्रस्तुत करते हैं - जो सारी वास्तविकताओं के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का विश्लेषण है. यह विश्लेषण आपके लिए पहले 'सूचना' है, फिर 'सोच-विचार' है, उसके बाद रूप और गुण का चित्रण है, फिर स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार है. इस तरह चित्त के दो भाग हैं - एक भाग जिसमे चित्रण होता है, दूसरा वह जो चित्रण की सीमा में नहीं आता। चित्रण भी हो, साक्षात्कार भी हो - समझने की स्थली यहाँ है.
ये चारों अवस्थाएं रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के संयुक्त रूप में हैं - इसमें से रूप आपकी आँखों में दिखाई पड़ता है, इससे आपने स्वीकार लिया कि ये चारों अवस्थाएं हैं. ये चारों अवस्थाएं अस्तित्व में हैं. व्यापक वस्तु में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में चार अवस्थाएँ हैं. हर अवस्था का अपने स्वरूप में होना है. होने के रूप में शाश्वत है - यह साक्षात्कार होता है.
साक्षात्कार जिस बात का होना है उसका पहले वृत्ति में विचार/तुलन होता है. यहाँ यह स्पष्ट होता है कि प्रिय-हित-लाभ तुलन इन्द्रिय-सीमावर्ती है, जबकि न्याय-धर्म-सत्य तुलन ज्ञान सीमावर्ती है. फिर तर्क विधि से हम प्रिय-हित-लाभ और न्याय-धर्म-सत्य की तुलना में पहुँच जाते हैं. दोनों की तुलना में क्या चाहिए? तो अंततोगत्वा यह स्वयं में निश्चयन होता है - न्याय-धर्म-सत्य चाहिए! यह निश्चयन होने के बाद चित्त में साक्षात्कार होना शुरू होता है.
जो सूचना मिलती है, उसके गुणानुवादन पूर्वक न्याय-धर्म-सत्य और प्रिय-हित-लाभ में भेद स्पष्ट हो जाता है, स्वीकार हो जाता है. इन दोनों के बीच तुलन होने पर "निश्चयन" होता है. निश्चयन होने के आधार पर साक्षात्कार होता है. साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता है. तुलन में यह निश्चयन हुए बिना साक्षात्कार होने का नौबत ही नहीं आती. वह प्रक्रिया ही शुरू नहीं होती। साक्षात्कार तक पहुँचने में ही सारा समय लगता है. तुलन में प्राथमिकता को तय करने में ही हम पीछे रह जाते हैं. रूप और गुण के बारे में तुलन प्रिय-हित-लाभ के अर्थ में ही होता है. स्वभाव और धर्म के बारे में तुलन न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में ही होता है. दूसरा कोई तरीका ही नहीं है. मेरे अनुसार इसी जगह ज्यादा ध्यान देने की ज़रुरत है. हम सुनकर तुलन को पूरा करते नहीं हैं, छोड़ कर भाग जाते हैं! फिर निश्चयन होता नहीं है, साक्षात्कार होता नहीं है, बोध होता नहीं है, अनुभव होता नहीं है.
तुलन अपने में मनन प्रक्रिया है. साक्षात्कार से पहले मनन प्रक्रिया है. मनन में मन को लगा देने से निश्चयन पूरा होता है. शब्द के अर्थ में यदि मन लगाते हैं तब वह 'मनन' कहलाया। शब्द तक ही रह गए तो 'स्मृति' कहलाया। स्मृति में प्रिय-हित-लाभ सीमावर्ती चित्रण बनता है, लेकिन न्याय-धर्म-सत्य सीमावर्ती चित्रण अनुभव से पहले बन नहीं पाता। मनन पूर्वक यह स्पष्ट होता है कि रूप और गुण प्रिय-हित-लाभ दृष्टि की सीमा में है तथा स्वभाव-धर्म न्याय-धर्म-सत्य दृष्टि में आता है. यही निश्चयन की स्थली है. यह निश्चयन होने के बाद साक्षात्कार-बोध-अनुभव होने में देर नहीं लगती।
न्याय-धर्म-सत्य के साथ जुड़ने वाले आयाम स्वभाव और धर्म हैं. यही मुख्य बात है. यही निश्चयन होने वाली बात है. अध्ययन विधि में चिन्हित अंगुलीन्यास करने योग्य जगह यही है. यह यदि पूरा होता है तो अध्ययन हुआ, नहीं तो कोई अध्ययन नहीं हुआ. सूचना के रूप में जो सारी बात आपके पास आ चुकी है, वह आपके आचरण में चरितार्थ होना है. चरितार्थ होने के लिए साक्षात्कार होना ही पड़ेगा। साक्षात्कार होने के लिए तुलन में मनन पूर्वक निश्चयन होना ही पड़ेगा।
प्रिय-हित-लाभ जितना भी तुलन है - वह चित्त में चित्रण हो जाता है. प्रिय-हित-लाभ सीमावर्ती जितनी भी उपलब्धियाँ हैं, गति है, स्थिति है - वे सब चित्रण तक पहुँच के स्थिर हो जाते हैं. ये सभी इन्द्रियगोचर हैं, जो रूप और गुण तक ही हैं. स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार होने पर बोध और अनुभव होना स्वाभाविक है. प्रिय-हित-लाभ शरीर संवेदना से सम्बद्ध है. कोई भी वस्तु को जब तक हम केवल शरीर संवेदना से सम्बद्ध करते हैं तब तक हमारा अध्ययन पूरा नहीं हुआ. वस्तु को उसके स्वभाव और धर्म के साथ सम्बद्ध कर पाये - तब हमारा अध्ययन पूरा हुआ. अध्ययन पूरा होता है तो साक्षात्कार होता ही है. साक्षात्कार पूरा होता है तो बोध व अनुभव होता ही है. अध्ययन पूरा होने पर हम पहले स्वयं में विश्वस्त हो जाते हैं, फिर दूसरों के साथ अपने सम्बन्ध को प्रमाणित करने लग जाते हैं. स्वयं में विश्वास प्रमाणित करते समय हिलता नहीं है. मेरा विश्वास क्यों नहीं हिलता? मैं अनुभव किया हूँ - इसलिए मेरा विश्वास नहीं हिलता।
प्रश्न: क्या मानव स्वभाव और धर्म का चित्रण कर सकता है?
उत्तर: अनुभव मूलक विधि से कर सकता है. अनुभव के बिना धर्म और स्वभाव का चित्रण होता ही नहीं है. अभी मानव में यही वीरानी का स्थली है. स्वभाव और धर्म भास-आभास तक ही रह गया. स्वभाव और धर्म के चित्रण के आधार पर ही प्रमाणित होना होता है. प्रमाणित होना अनुभव मूलक विधि से ही होता है. प्रमाणित होना प्रयोग या यांत्रिक विधि से नहीं होता। प्रमाणित होना शब्द या किताबी विधि से नहीं होता। अब प्रमाणित होने के लिए यंत्र को मॉडल माना जाए, किताब को मॉडल माना जाए, या मानव को मॉडल माना जाए? अध्ययन करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है. अध्ययन करने के बाद अनुभव करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है. अनुभव करने के बाद प्रमाणित करने का अधिकार हर मानव में समान रूप से है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)