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Wednesday, June 16, 2010

ज्ञान

ज्ञान होना आवश्यक है - यह सबको पता है। ज्ञान क्या है? - यह पता नहीं है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसन्धान से निकला - ज्ञान मूलतः तीन स्वरूप में है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। इस ज्ञान के अनुरूप सोच-विचार, सोच-विचार के अनुरूप योजना और कार्य-योजना, कार्य-योजना के अनुरूप फल-परिणाम, फल-परिणाम यदि ज्ञान-अनुरूप होता है तो समाधान है - नहीं तो समस्या है। इस तरह संज्ञानीयता पूर्वक जीने की विधि आ गयी।

ज्ञान को समझाने के लिए "शिक्षा विधि" के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उपदेश विधि से ज्ञान को समझाया नहीं जा सकता। शिक्षा और व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ती होने के आशय में व्यापक की चर्चा है, पारगामीयता की चर्चा है, पारगामीयता के प्रयोजन की चर्चा है।

पारगामीयता का प्रयोजन है - जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता, और चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता। जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता प्रमाणित है - कार्य-ऊर्जा के रूप में। मानव में ज्ञान-सम्पन्नता प्रमाणित होना अभी शेष है। जड़-परमाणु स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील है - बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के! उसी तरह चैतन्य-परमाणु (जीवन) को भी स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील होना है। जीवन परमाणु के स्वयं-स्फूर्त काम करने के लिए मानव ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है। मानव से अधिक और प्रगटन नहीं है, अभी तक तो इतना ही देखा गया है। मानव समाधान पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही समाधान पूर्वक जीना बनता है। मानव न्याय पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही न्याय पूर्वक जीना बनता है। मानव सत्य पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही सत्य पूर्वक जीना बनता है। संज्ञानीयता पूर्वक ही हर मनुष्य न्याय, समाधान (धर्म), और सत्य को फलवती बनाता है।

न्याय, धर्म, और सत्य मनुष्य की कल्पनाशीलता के तृप्ति-बिंदु का प्रगटन है। कल्पनाशीलता चैतन्य-इकाई के व्यापक में भीगे रहने का फलन है।

व्यापक-वस्तु ही ज्ञान स्वरूप में मनुष्य को प्राप्त है। ज्ञान अलग से कोई चीज नहीं है। ज्ञान को जलाया नहीं जा सकता, न तोडा जा सकता है, न बर्बाद किया जा सकता है। ज्ञान अपने में अछूता रहता है। ज्ञान को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ज्ञान-संपन्न हुआ जा सकता है।

क्रिया रूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीवों में जीव-शरीरों के अनुसार जीव-चेतना स्वरूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीव-शरीरों को जीवंत बनाता जीवन जीव-चेतना को ही व्यक्त कर सकता है। जीव-चेतना में शरीर को जीवन मान करके वंश-अनुशंगीय विधि से जीना होता है। मानव-शरीर ज्ञान के अनुरूप बना है। सारी पंचायत वही है! वंश-अनुशंगीय विधि से मानव जी कर सुखी हो नहीं सकता। जीवन को पहचान कर संस्कार-अनुशंगीय विधि से जी कर ही मानव सुखी हो सकता है। शरीर-संरचना समान है - चाहे काले हों, भूरे हों, गोरे हों। अब हमको तय करना है - शरीर स्वरूप में जीना है, या जीवन स्वरूप में जीना है।

इस धरती पर पहली बार जीवन का अध्ययन सामने आया है। यही मौलिक अनुसन्धान है। इससे मनुष्य-जाति के जागृत होने की सम्भावना उदय हो गयी है। परिस्थितियां भी मनुष्य को जागृत होने के लिए बाध्य कर रही हैं। सम्भावना उदय होना और परिस्थितियां बाध्य करना - ये दोनों होने से घटना होता है। संभावना यदि उदय नहीं होता तो परिस्थितियों के आगे मनुष्य हताश हो सकता है, निराश हो सकता है। मैंने जब शुरू किया था तो धरती की यह परिस्थिति हो गयी है, यह अज्ञात था। साथ ही सम्भावना भी शून्य था। आज परिस्थिति ज्ञात है - धरती बीमार हो गयी है। अध्ययन पूर्वक जागृत होने की सम्भावना भी उदय हो गयी है।

बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

2 comments:

Gopal Bairwa said...

Hi Rakesh,

Following statement seem very significant in understanding the MD.

"जड़-परमाणु स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील है - बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के! उसी तरह चैतन्य-परमाणु (जीवन) को भी स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील होना है। जीवन परमाणु के स्वयं-स्फूर्त काम करने के लिए मानव ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है।"

Probably what it means is when budhhi and atma gets activated ,jeevan becomes driven by its own knowledge and not by external stimuli ( fear or greed ). Until jagarti we are constantly being driven by external forces directly or indirectly.

Regards,
-Gopal.

Rakesh Gupta said...

Hi Gopal,

I totally agree... :)

Human-body (composition of physiochemical atoms) in a way assists jeevan to achieve its self-organized status. When jeevan does achieve that status - through anusandhan or adhyayan, it becomes able to realize itself through body.

regards,
Rakesh