निष्कर्ष पर पहुंचना है कि नहीं - पहले इसको तय किया जाए! व्यवस्था चाहिए तो निष्कर्ष पर पहुंचना आवश्यक है।
समाधान कोई शर्त (condition) नहीं है। व्यवस्था कोई शर्त नहीं है। सुख कोई शर्त नहीं है। अभय कोई शर्त नहीं है। सह-अस्तित्व कोई शर्त नहीं है। समाधान, व्यवस्था, सुख, अभय, सह-अस्तित्व ये सब शर्त-विहीन (unconditional) हैं।
अपनी शर्त लगाने से कोई बात स्पष्ट नहीं होता। "हम हमारे तरीके से ही समझेंगे!" - यह भी एक शर्त है। शर्त लगाते हैं, तो रुक जाते हैं। वस्तु जैसा है, वैसा समझने की जिज्ञासा करने से वस्तु स्पष्ट होता है। शर्त लगाने से ही हम रुकते हैं। शर्त नहीं लगाते, तो हम रुकते नहीं हैं। शर्त न हो, और हम रुक जाएँ - ऐसा हो नहीं सकता! समझने के लिए हम अपनी शर्त नहीं लगाते तो हमारे पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए जो कल्पनाशीलता है, वह नियोजित हो जाती है। शर्त लगाते हैं तो कल्पनाशीलता नियोजित नहीं हो पाती।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।
कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।
अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।
पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।
समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।
आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।
यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।
सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
समाधान कोई शर्त (condition) नहीं है। व्यवस्था कोई शर्त नहीं है। सुख कोई शर्त नहीं है। अभय कोई शर्त नहीं है। सह-अस्तित्व कोई शर्त नहीं है। समाधान, व्यवस्था, सुख, अभय, सह-अस्तित्व ये सब शर्त-विहीन (unconditional) हैं।
अपनी शर्त लगाने से कोई बात स्पष्ट नहीं होता। "हम हमारे तरीके से ही समझेंगे!" - यह भी एक शर्त है। शर्त लगाते हैं, तो रुक जाते हैं। वस्तु जैसा है, वैसा समझने की जिज्ञासा करने से वस्तु स्पष्ट होता है। शर्त लगाने से ही हम रुकते हैं। शर्त नहीं लगाते, तो हम रुकते नहीं हैं। शर्त न हो, और हम रुक जाएँ - ऐसा हो नहीं सकता! समझने के लिए हम अपनी शर्त नहीं लगाते तो हमारे पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए जो कल्पनाशीलता है, वह नियोजित हो जाती है। शर्त लगाते हैं तो कल्पनाशीलता नियोजित नहीं हो पाती।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।
कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।
अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।
पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।
समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।
आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।
यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।
सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
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