प्रकृति का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त है। प्रकृति को कोई पैदा करके "ऐसा करो! वैसा करो!" निर्देश करता हो - ऐसा नहीं है। मनुष्य भी जागृत होने पर स्वयं-स्फूर्त हो जाता है।
एक परमाणु-अंश से परस्परता में पहचान शुरू होती है। पहचान के आधार पर ही निर्वाह करना होता है। निर्वाह करना = आचरण करना। परमाणु से ही स्वयं-स्फूर्त निश्चित-आचरण की शुरुआत होती है। दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण करता है। बीस अंश का परमाणु एक दूसरा निश्चित आचरण करता है। गठन में जितने परमाणु हैं, उसके अनुसार परमाणु की प्रजातियाँ है। जितने प्रजाति के परमाणु हैं, उतनी तरह के आचरण हैं। एक प्रजाति के सभी परमाणु एक ही तरह का आचरण करते हैं।
प्रश्न: ऐसा होने का क्या कारण है? परमाणु का आचरण क्यों निश्चित है? आगे वनस्पतियों, और जीवों के आचरण निश्चित होने का क्या कारण है?
उत्तर: कारण है - व्यवस्था! दूसरे - सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए निरंतर प्रकटन-शील है।
सह-अस्तित्व समझ में आये बिना यह क्यों और कैसे होता है, समझ में आ नहीं सकता। कल्पनाशीलता के अलावा इसको समझने के लिए मनुष्य के पास और कोई औज़ार नहीं है।
प्रश्न: "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" से क्या आशय है?
उत्तर: पदार्थ-अवस्था में सह-अस्तित्व का प्रतिरूप प्रस्तुत होने की शुरुआत है। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व के प्रतिरूप की परिपूर्णता है।
सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए नित्य प्रकटन-शील है। पदार्थ-अवस्था मात्र से सह-अस्तित्व का सम्पूर्ण प्रतिरूप प्रगट नहीं होता। प्राण-अवस्था के शरीरों की रचना और जीवन का प्रकटन इसी क्रम में हुआ। जीवन का प्रकटन जागृत होने के लिए, और जागृति को प्रमाणित करने के लिए हुआ। सह-अस्तित्व का प्रकटन-क्रम पूर्णता की ओर प्रगति है। गठन-पूर्णता के बाद क्रिया-पूर्णता का पड़ाव, क्रिया-पूर्णता के बाद आचरण-पूर्णता का पड़ाव है। सह-अस्तित्व का प्रमाण क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में ही होता है। "सह-अस्तित्व यही है!" - ऐसा प्रमाणित करने वाला ज्ञान-अवस्था का मनुष्य ही है। पूर्णता का प्रमाण भ्रम से मुक्ति है।
स्थिति-पूर्ण सत्ता में संपृक्त स्थिति-शील प्रकृति पूर्णता की ओर प्रकटन-शील है। प्रकृति द्वारा व्यापकता के अनुकरण का प्रमाण विविधता से मुक्ति पाना है। व्यापकता में कोई विविधता नहीं है। सबके साथ समान रूप से पारगामी है, सबके साथ समान रूप से पारदर्शी है, और व्यापक है ही। पदार्थ-अवस्था में जातीय विविधता दिखती है। प्राण-अवस्था में भी जातीय विविधता है। जीव-अवस्था में भी जातीय विविधता है। ज्ञान-अवस्था या मानव में जातीय विविधता नहीं है। मानव जाति एक है। मानव जाति में जागृति पूर्वक सह-अस्तित्व पूरा व्यक्त होता है। इसको "सम्पूर्णता" नाम दिया। मानव जाति एक होना, मानव धर्म एक होना, हर व्यक्ति और हर परिवार का व्यवस्था में भागीदार होना। सर्व-मानव के लिए ज्ञान यही है। इस तरह सम्पूर्णता में प्रमाण है। सम्पूर्णता सह-अस्तित्व ही है।
स्वयं-स्फूर्त प्रकटन ही सृष्टि है। ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। ऊर्जा-सम्पन्नता का स्त्रोत व्यापक-वस्तु है। सह-अस्तित्व का प्रतिरूप ज्ञान-अवस्था में ही पूरा प्रमाणित होता है, और दूसरे कहीं होता नहीं है। पूरा प्रमाणित करना ज्ञान-अवस्था में ही होता है। उसके आन्शिकता में ही बाकी सारी अवस्थाएं कार्य कर रही हैं।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
एक परमाणु-अंश से परस्परता में पहचान शुरू होती है। पहचान के आधार पर ही निर्वाह करना होता है। निर्वाह करना = आचरण करना। परमाणु से ही स्वयं-स्फूर्त निश्चित-आचरण की शुरुआत होती है। दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण करता है। बीस अंश का परमाणु एक दूसरा निश्चित आचरण करता है। गठन में जितने परमाणु हैं, उसके अनुसार परमाणु की प्रजातियाँ है। जितने प्रजाति के परमाणु हैं, उतनी तरह के आचरण हैं। एक प्रजाति के सभी परमाणु एक ही तरह का आचरण करते हैं।
प्रश्न: ऐसा होने का क्या कारण है? परमाणु का आचरण क्यों निश्चित है? आगे वनस्पतियों, और जीवों के आचरण निश्चित होने का क्या कारण है?
उत्तर: कारण है - व्यवस्था! दूसरे - सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए निरंतर प्रकटन-शील है।
सह-अस्तित्व समझ में आये बिना यह क्यों और कैसे होता है, समझ में आ नहीं सकता। कल्पनाशीलता के अलावा इसको समझने के लिए मनुष्य के पास और कोई औज़ार नहीं है।
प्रश्न: "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" से क्या आशय है?
उत्तर: पदार्थ-अवस्था में सह-अस्तित्व का प्रतिरूप प्रस्तुत होने की शुरुआत है। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व के प्रतिरूप की परिपूर्णता है।
सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए नित्य प्रकटन-शील है। पदार्थ-अवस्था मात्र से सह-अस्तित्व का सम्पूर्ण प्रतिरूप प्रगट नहीं होता। प्राण-अवस्था के शरीरों की रचना और जीवन का प्रकटन इसी क्रम में हुआ। जीवन का प्रकटन जागृत होने के लिए, और जागृति को प्रमाणित करने के लिए हुआ। सह-अस्तित्व का प्रकटन-क्रम पूर्णता की ओर प्रगति है। गठन-पूर्णता के बाद क्रिया-पूर्णता का पड़ाव, क्रिया-पूर्णता के बाद आचरण-पूर्णता का पड़ाव है। सह-अस्तित्व का प्रमाण क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में ही होता है। "सह-अस्तित्व यही है!" - ऐसा प्रमाणित करने वाला ज्ञान-अवस्था का मनुष्य ही है। पूर्णता का प्रमाण भ्रम से मुक्ति है।
स्थिति-पूर्ण सत्ता में संपृक्त स्थिति-शील प्रकृति पूर्णता की ओर प्रकटन-शील है। प्रकृति द्वारा व्यापकता के अनुकरण का प्रमाण विविधता से मुक्ति पाना है। व्यापकता में कोई विविधता नहीं है। सबके साथ समान रूप से पारगामी है, सबके साथ समान रूप से पारदर्शी है, और व्यापक है ही। पदार्थ-अवस्था में जातीय विविधता दिखती है। प्राण-अवस्था में भी जातीय विविधता है। जीव-अवस्था में भी जातीय विविधता है। ज्ञान-अवस्था या मानव में जातीय विविधता नहीं है। मानव जाति एक है। मानव जाति में जागृति पूर्वक सह-अस्तित्व पूरा व्यक्त होता है। इसको "सम्पूर्णता" नाम दिया। मानव जाति एक होना, मानव धर्म एक होना, हर व्यक्ति और हर परिवार का व्यवस्था में भागीदार होना। सर्व-मानव के लिए ज्ञान यही है। इस तरह सम्पूर्णता में प्रमाण है। सम्पूर्णता सह-अस्तित्व ही है।
स्वयं-स्फूर्त प्रकटन ही सृष्टि है। ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। ऊर्जा-सम्पन्नता का स्त्रोत व्यापक-वस्तु है। सह-अस्तित्व का प्रतिरूप ज्ञान-अवस्था में ही पूरा प्रमाणित होता है, और दूसरे कहीं होता नहीं है। पूरा प्रमाणित करना ज्ञान-अवस्था में ही होता है। उसके आन्शिकता में ही बाकी सारी अवस्थाएं कार्य कर रही हैं।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
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