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Saturday, June 19, 2010

सूचना, तदाकार-तद्रूप, प्रमाण

अनुसन्धान पूर्वक जो मुझे समझ आया उसकी सूचना मैंने प्रस्तुत की है। इस सूचना से तदाकार-तद्रूप होना आप सभी के लिए अनुकूल होगा, यह मान कर मैंने इस प्रस्तुत किया है। तदाकार-तद्रूप होने का भाग (कल्पनाशीलता के रूप में ) आप ही के पास है।

"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।

व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।

जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।

"व्यापक प्रकृति में पारगामी है" - यह सूत्र सार्वभौम-व्यवस्था तक पहुंचाता है। इस आधार पर मैंने स्वीकारा - यह सही है!

मैंने एक मार्ग बताया है, जो व्यवस्था तक पहुंचाता है। दूसरे किसी मार्ग से व्यवस्था तक पहुँच सकते हों - तो उसको अपनाने और बताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं ही! व्यवस्था तक पहुंचाने का एक मार्ग मैंने पहचान लिया। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है (जो व्यवस्था तक पहुंचा दे) - ऐसा मैंने नहीं कहा है। अभी तक आदर्शवादी और भौतिकवादी विधि से जो सोचा गया, उससे व्यवस्था घटित नहीं हुआ। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ दर्शन का मार्ग है - जो व्यवस्था तक पहुंचता है। चौथा कोई तरीका हो, तो मुझे वह पता नहीं! "चौथा विधि नहीं है" - यह कहने का अधिकार मेरे पास तो नहीं है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कहता हूँ - "सह-अस्तित्व परम सत्य है।" फिर भी हर व्यक्ति अपने में स्वतन्त्र है, यह कहने के लिए कि - "सत्य और कुछ है"।

"जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो" - प्रताड़ना और कुंठा से मुक्ति के लिए।

प्रश्न: अध्ययन विधि में "मानने" की क्या भूमिका है?

उत्तर: पहले हम मानते ही हैं - कि यह "सच बात" है। सूचना को पहले "मानना" होता है, उसके बाद "जानना" होता है। जीने से ही "जानने" की बात प्रमाणित होती है। प्रमाणित करने के लिए जीने के अलावा और कोई विधि नहीं है। प्रमाण-स्वरूप में जीना ही समाधान है।

समझाने वाले को सच्चा मान कर शुरू करते हैं। सूचना से यह और पुष्ट होता है। सूचना के अर्थ में जाने पर यह और पुष्ट होता है। अर्थ में तदाकार होने पर वह स्वत्व बन जाता है। इतना ही तो बात है।

प्रयोजन ही अर्थ है। जो सूचना दिया, उसके प्रयोजन या अर्थ के साथ तदाकार होना। यदि प्रयोजन के साथ तदाकार नहीं होते, तो सूचना भर रहा गया।

सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप विधि से पारंगत होने पर अनुभव होता है। अनुभव सर्वतोमुखी समाधान का स्त्रोत है। आपके पास इस प्रस्ताव की सूचना है, इस सूचना में तदाकार-तद्रूप होने की सम्पदा आपके पास है - उसका उपयोग करो! भाषा, सच्चाई, और अर्थ - इन तीनो को एक सूत्र में लाने की कोशिश करो, बात बन जायेगी!

कल्पनाशीलता तदाकार होने के लिए वस्तु है। आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं - उसका शोध करो! कल्पनाशीलता में तदाकार होने का गुण है।

इस बात में सवाल तो एक भी नहीं है। समझना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं - इतना ही है। हम जितना समझे हैं, उतना समझाते हैं - तो आगे और समझ आता जाता है। समझना चाहते हैं, तो समझ आता है। नहीं समझना चाहते, तो नहीं समझ में आता।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

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