हर परस्परता के बीच जो रिक्त-स्थली है, वही व्यापक-वस्तु है। इकाइयों के बीच अच्छी दूरी होने का प्रयोजन है - एक दूसरे की पहचान होना। पहचानने का प्रयोजन है - व्यवस्था के स्वरूप में कार्य कर पाना। इकाइयों के कार्य कर पाने का आधार है - व्यापक वस्तु में पारगामियता। व्यापक वस्तु पारगामी है, और परस्परता में पारदर्शी है।
कपड़ा पानी में भीग जाता है, पर पत्थर पानी में नहीं भीगता। पानी कपड़े में पारगामी है, पत्थर में पारगामी नहीं है। जबकि व्यापक पत्थर में, लोहे में, मिट्टी में, झाड में, अणु में, परमाणु में, परमाणु अंश में - हर वस्तु में पारगामी है। हर जड़-चैतन्य परमाणु में व्यापक पारगामी है। साम्य-ऊर्जा व्यापक रहने से पारगामियता स्वाभाविक है। पारगामियता का ज्ञान होना आवश्यक है। इस ज्ञान को अध्ययन-विधि से पूरा किया जा सकता है।
क्रिया के रूप में ही सब कुछ समझ आता है। क्रिया के बिना हम कुछ निश्चित कर ही नहीं सकते। क्रिया एक दूसरे को दिखता है, जिसके आधार पर पहचान है। जैसे - मनुष्य की क्रिया जानवरों से भिन्न है, तभी वह मनुष्य स्वरूप में पहचाना जाता है।
मनुष्य ने अब तक प्रकृति की क्रियाशीलता को पहचाना है, ऊर्जा-सम्पन्नता को पहचाना नहीं है।
प्रश्न: परस्परता में पहचान होने में व्यापक वस्तु की क्या महिमा है?
उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता वश पहचान है। व्यापक वस्तु न हो तो इकाइयों में न ऊर्जा-सम्पन्नता हो, न क्रियाशीलता हो, न परस्पर पहचान हो!
प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के व्यापक में संपृक्तता से क्या होता है?
उत्तर: चैतन्य-प्रकृति के व्यापक में भीगे रहने से कल्पनाशीलता है। मानव में ज्ञान का मूल तत्व है - कल्पना। मानव में ही ज्ञान की परिकल्पना है। कल्पना स्पष्ट होने पर ज्ञान है। कल्पना आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त रूप है। आशा, विचार, और इच्छा के सुनिश्चित स्वरूप में काम करना ही ज्ञान है। उसके पहले कल्पना रूप में रहता है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चैतन्य प्रकृति में समाई हुई प्रक्रिया है।
कल्पनाशीलता जीवन सहज अभिव्यक्ति है। कल्पनाशीलता को हम बना नहीं सकते।
प्रश्न: जीवों में भी तो जीवन है...
उत्तर: जीवों में "जीने की आशा" है - कल्पना नहीं है। जीने की आशा का भ्रूण रूप स्वेदज-संसार से ही शुरू हो जाता है। जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है। जीने की आशा जीवन में होती है, उसके अनुरूप जीव-शरीर रचना होती है। शरीर-रचना जीवन के अनुकूल न हो, तो जीवन शरीर का उपयोग कैसे करेगा?
ज्ञान के अनुरूप जीने के लिए मनुष्य-शरीर रचना का प्रगटन हुआ। ताकि ज्ञान पूर्वक जीना प्रमाणित हो। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि - सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है। सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रमाणित करने के लिए प्रगट किया।
प्रश्न: मनुष्य इतिहास में पहले कल्पना दी गयी थी - "यह सब सृष्टि किसी सर्व-शक्तिमान ईश्वर ने बनाई है।" उसी तरह आप हमको कल्पना दे रहे हैं - "वस्तुओं की क्रियाशीलता के मूल में साम्य-ऊर्जा या व्यापक है।" इनमें फर्क क्या हुआ?
उत्तर: कल्पना होता ही है। कल्पना के बिना अनुमान कैसे होगा? इस अनुमान के अनुसार आपकी कार्य-प्रणाली हो जाए। (मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव के आधार पर) सारे अनुमान संज्ञानीयता पूर्वक जीने के लिए और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को प्रमाणित करने के लिए ही बनते हैं। मानव-लक्ष्य पूरा होता है तो यह अनुमान ठीक है।
मानव की मौलिकता जीवों से अलग दिखने के लिए है - मानव लक्ष्य। मानव-लक्ष्य यदि क्रियान्वित और व्यव्हारान्वित होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित हो गयी। मानव-लक्ष्य यदि पूरा नहीं होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित नहीं हुई।
आप किसी भी कल्पना को ले आईये - उससे मानव-लक्ष्य पूरा होता है या नहीं, यह देख लीजिये!
मानव लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए ही कल्पनाशीलता है।
मानव लक्ष्य सफल होने के लिए ही अध्ययन है।
अध्ययन अभी तक मानव-इतिहास में प्रावधानित नहीं था, न ही मानव-लक्ष्य को पहचाना गया था। ऐसे में आदमी-जात धोखे में फंसेगा या नहीं? मानव धोखे में न फंसे, उद्धार हो जाए, जन्म से ही उसका रास्ता साफ़ रहे, शिक्षा और व्यवस्था सुलभ रहे - इस आशय से मध्यस्थ-दर्शन का ताना-बना प्रस्तुत किया गया है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
कपड़ा पानी में भीग जाता है, पर पत्थर पानी में नहीं भीगता। पानी कपड़े में पारगामी है, पत्थर में पारगामी नहीं है। जबकि व्यापक पत्थर में, लोहे में, मिट्टी में, झाड में, अणु में, परमाणु में, परमाणु अंश में - हर वस्तु में पारगामी है। हर जड़-चैतन्य परमाणु में व्यापक पारगामी है। साम्य-ऊर्जा व्यापक रहने से पारगामियता स्वाभाविक है। पारगामियता का ज्ञान होना आवश्यक है। इस ज्ञान को अध्ययन-विधि से पूरा किया जा सकता है।
क्रिया के रूप में ही सब कुछ समझ आता है। क्रिया के बिना हम कुछ निश्चित कर ही नहीं सकते। क्रिया एक दूसरे को दिखता है, जिसके आधार पर पहचान है। जैसे - मनुष्य की क्रिया जानवरों से भिन्न है, तभी वह मनुष्य स्वरूप में पहचाना जाता है।
मनुष्य ने अब तक प्रकृति की क्रियाशीलता को पहचाना है, ऊर्जा-सम्पन्नता को पहचाना नहीं है।
प्रश्न: परस्परता में पहचान होने में व्यापक वस्तु की क्या महिमा है?
उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता वश पहचान है। व्यापक वस्तु न हो तो इकाइयों में न ऊर्जा-सम्पन्नता हो, न क्रियाशीलता हो, न परस्पर पहचान हो!
प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के व्यापक में संपृक्तता से क्या होता है?
उत्तर: चैतन्य-प्रकृति के व्यापक में भीगे रहने से कल्पनाशीलता है। मानव में ज्ञान का मूल तत्व है - कल्पना। मानव में ही ज्ञान की परिकल्पना है। कल्पना स्पष्ट होने पर ज्ञान है। कल्पना आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त रूप है। आशा, विचार, और इच्छा के सुनिश्चित स्वरूप में काम करना ही ज्ञान है। उसके पहले कल्पना रूप में रहता है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चैतन्य प्रकृति में समाई हुई प्रक्रिया है।
कल्पनाशीलता जीवन सहज अभिव्यक्ति है। कल्पनाशीलता को हम बना नहीं सकते।
प्रश्न: जीवों में भी तो जीवन है...
उत्तर: जीवों में "जीने की आशा" है - कल्पना नहीं है। जीने की आशा का भ्रूण रूप स्वेदज-संसार से ही शुरू हो जाता है। जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है। जीने की आशा जीवन में होती है, उसके अनुरूप जीव-शरीर रचना होती है। शरीर-रचना जीवन के अनुकूल न हो, तो जीवन शरीर का उपयोग कैसे करेगा?
ज्ञान के अनुरूप जीने के लिए मनुष्य-शरीर रचना का प्रगटन हुआ। ताकि ज्ञान पूर्वक जीना प्रमाणित हो। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि - सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है। सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रमाणित करने के लिए प्रगट किया।
प्रश्न: मनुष्य इतिहास में पहले कल्पना दी गयी थी - "यह सब सृष्टि किसी सर्व-शक्तिमान ईश्वर ने बनाई है।" उसी तरह आप हमको कल्पना दे रहे हैं - "वस्तुओं की क्रियाशीलता के मूल में साम्य-ऊर्जा या व्यापक है।" इनमें फर्क क्या हुआ?
उत्तर: कल्पना होता ही है। कल्पना के बिना अनुमान कैसे होगा? इस अनुमान के अनुसार आपकी कार्य-प्रणाली हो जाए। (मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव के आधार पर) सारे अनुमान संज्ञानीयता पूर्वक जीने के लिए और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को प्रमाणित करने के लिए ही बनते हैं। मानव-लक्ष्य पूरा होता है तो यह अनुमान ठीक है।
मानव की मौलिकता जीवों से अलग दिखने के लिए है - मानव लक्ष्य। मानव-लक्ष्य यदि क्रियान्वित और व्यव्हारान्वित होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित हो गयी। मानव-लक्ष्य यदि पूरा नहीं होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित नहीं हुई।
आप किसी भी कल्पना को ले आईये - उससे मानव-लक्ष्य पूरा होता है या नहीं, यह देख लीजिये!
मानव लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए ही कल्पनाशीलता है।
मानव लक्ष्य सफल होने के लिए ही अध्ययन है।
अध्ययन अभी तक मानव-इतिहास में प्रावधानित नहीं था, न ही मानव-लक्ष्य को पहचाना गया था। ऐसे में आदमी-जात धोखे में फंसेगा या नहीं? मानव धोखे में न फंसे, उद्धार हो जाए, जन्म से ही उसका रास्ता साफ़ रहे, शिक्षा और व्यवस्था सुलभ रहे - इस आशय से मध्यस्थ-दर्शन का ताना-बना प्रस्तुत किया गया है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
6 comments:
Hi Rakesh,
"जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है।"
Does this statement relates with Darwin's theory of evolution?
Does this statement tell that jeevan helped in evolution by selecting/choosing/promoting the bodily features it wanted ?
or it conveys something totally different.
Regards,
-Gopal..
Hi Gopal,
"Evolution happens, Creation doesn't happen" - in that much there is commonality between Darwin's proposition and Madhyasth Darshan's proposition. Why and How evolution happens - there are some basic differences.
Darwin's theory of evolution is based on "principle of natural-selection". Principle of natural-selection is also referred sometimes as - "survival of the fittest". Evolution happens due to struggle for survival, is the proposition of Darwin.
Secondly, Darwin recognized evolution in structure or composition of body and stated Living beings are functioning due to their physiochemical structure. Darwin didn't recognize jeevan - or the conscious-unit which is distinct from body. Madhyasth-Darshan recognizes living-beings to be combined expressions of jeevan (constitutionally-complete atom) and body (physiochemical formation).
Thirdly, Darwin recognizes human-being to be not qualitatively different from animals. While Madhyasth-Darshan recognizes human-being to be an entity of knowledge-order, which is qualitatively-distinct from animals.
In Madhyasth-Darshan - the essential proposition is: "Existence is harmonious and progressive for successive emergence." The evolution happens due to this directionality in existence. This directionality is not just in bodies, but in jeevan also. In jeevan, the evolution is in terms of level of consciousness. It begins with animal-consciousness and culminates in divine-consciousness. Human-consciousness, Godly-consciousness, and Divine-consciousness is realizable through human-body only. The evolution of body happens till emergence of human-body. After that there is no evolution in body. The continuity in different statuses of evolution till human-being is realizable only with awakening in humankind - is also a key proposition of MD, which can't be derived from Darwin's propositions.
I feel, it is not possible to mend or improve the prevalent explanations of existence (be it from Idealism or from Science) - without entering into unending debates with their followers.
regards,
Rakesh.
Does this statement tell that jeevan helped in evolution by selecting/choosing/promoting the bodily features it wanted ?
- I think, it doesn't say that Jeevans (conscious units) helped in evolution of bodies. Evolution of bodies is outcome of progressiveness in pranic-cells.
Evolution of body happened - naturally, without "willful intervention" of conscious-units (jeevans).
Jeevan was capable of enlivening successively more-evolved bodies.
Jeevans enlivened those bodies as they emerged in accordance to the specie - and evidenced specie-conformance.
This continued till emergence of human-body, where specie-conformance rule didn't work anymore due to expression of imagination and free-will by jeevan.
regards,
Rakesh.
Hi Rakesh,
"जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है।"
You mentioned the following :
Existence is harmonious and progressive for successive emergence." The evolution happens due to this directionality in existence.
So If I combine what Baba said and what you mentioned then the direction of evolution really matched with "jeene ki aasha" of jeevan. So the evolution of bodies and "jeene ki aasha" went hand in hand.
Also there have been some evidence that bodies emerged at some point ( even before humans emerged ) are extinct now. Why is that so ? Probably because those were needed at that time and not anymore.
Let me have your take on these two points.
Best,
Gopal.
Hi Rakesh,
The way I am trying to understand is this.
There is directionality in existence and it tries to express itself in terms of better and better forms of co-existence. Human body probably is best form of co-existence of the inert nature.
As emergence/evolution happens in terms of successive better forms of coexistence, naturally jeevan would like to live those bodies, because those are much better for jeevan and fulfilling its jeene ki aasha.
So in general jeene ki assha is always for the better and better bodies, but which is how the evolution happens. I guess this is what Baba meant by that statement.
As far as my second point goes, existence is always inclined for expressing better forms of co-existence. why? because existence is coexistence. Every entity in existence always tries to better coexist with rest of the entities. This goes on at every level, whether subatomic particles, atoms, molecules, animals. It does not seem so obvious at times. Due to this natural inclination higher forms of coexistence emerge. Some of these forms are needed only at some point. When the purpose is fulfilled, they extinct but other forms of higher coexistence emerge. They do play a role in emergence though. Because if they dont play a role, they wont even emerge ( we can not really separate cause [ force ] and action [ activity ] ).
Best,
-Gopal.
Yes. I have also understood it the same way.
Nature at its atomic, sub-atomic level is energized in absolute-energy, and therefore it is active. Existence is naturally-inclined for emergence - of ever higher realms of co-existence. The "events" of successive-emergence in natural-world happened due to combination of "possibilities" and "circumstances".
The grandeur of nature emerged chronologically. First material-order emerged in its full glory - soils, stones, gems, and metals. Then plants and vegetations emerged - and the Earth became colourful and with numerous odours. Then emerged the living beings - from simpletons to mammoths! Some species of plants and animals withered away "naturally" - to lay ground for more evolved beings. All this emergence happened naturally, and without any willful interference. The willful activity on Earth started happening with emergence of humankind, which had imagination, the conscious power which couldn't be limited to instinctual-living like animals.
Jeevan thirsts for fulfillment or happiness only in human-living. In animals, it just lives by base-instincts (food, sleep, sex, and fight/flight) according to specie. A jeevan changes the specie it is running (upon the event of death) when there is such possibility and circumstance. So there's no "race" or "competition" happening in jeevans for taking higher states... The progression in jeevan's "aasha gati" is gradual and spontaneous.
regards,
Rakesh
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