जीव चेतना में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता के लिए प्रावधानित है। अभी तक मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता का यही प्रयोग किया है। इसी कल्पनाशीलता के चलते मनुष्य ने एक झोपडी से लेकर आज २७५ मंजिल का इमारत तक बना दिया।
प्रश्न: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का क्या स्वरूप रहता है?
उत्तर: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु समाधान स्वरूप में रहता है। फलस्वरूप समाधान स्वरूप में मनुष्य अपने सारे कार्यक्रम को व्यवस्थित करता है।
प्रश्न: बोध और अनुभव में क्या दूरी है?
उत्तर: दूरी कुछ नहीं है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। क्रमिक रूप से साक्षात्कार हो कर बोध होता है। साक्षात्कार-बोध क्रम में अनुकरण रूप में आचरण संयत होने लगता है।
यह सब सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में होता है, हो रहा है, और होता ही रहेगा - यह अनुभव की महिमा है। अनुभव के बिना ऐसा कहना बनता नहीं है। अनुभव से ही प्रमाण होता है। अनुभव का ही प्रमाण होता है। अनुभव मूलक विधि से जीने पर हम प्रमाण के अधिकारी बनते हैं, जिससे न्याय-धर्म-सत्य जीने में प्रमाणित होता है।
प्रमाणित होने की सीमा है - अध्ययन से लेकर अनुभव तक। प्रमाणित होने का मतलब है - दूसरे को अपने जैसे समझा देना। इसी तरह अनुभव एक से अनेक में अंतरित होता है। यदि अनुभव एक से दूसरे में अंतरित नहीं हो सकता तो ऐसे अनुभव का मतलब ही क्या है? दूसरे व्यक्ति में हमारे अध्ययन कराने से अनुभव होने पर हम प्रमाणित हुए।
प्रश्न: जीवन क्रियाएं परमाण्विक स्वरूप में हैं, यह कब पता चलता है?
उत्तर: आत्मा में अनुभव क्रिया होती है। इसी तरह जीवन के चार परिवेशों में जो क्रियाएं होती हैं, उनकी सूचना आपको मिल गयी है। अब हम क्या कर रहे हैं? - इसको हम शोध कर सकते हैं। शोध करने पर हम जैसा बताया है, वैसा ही पाते हैं। क्रिया जो ही रही है, उसी का शोध करना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
प्रश्न: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का क्या स्वरूप रहता है?
उत्तर: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु समाधान स्वरूप में रहता है। फलस्वरूप समाधान स्वरूप में मनुष्य अपने सारे कार्यक्रम को व्यवस्थित करता है।
प्रश्न: बोध और अनुभव में क्या दूरी है?
उत्तर: दूरी कुछ नहीं है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। क्रमिक रूप से साक्षात्कार हो कर बोध होता है। साक्षात्कार-बोध क्रम में अनुकरण रूप में आचरण संयत होने लगता है।
यह सब सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में होता है, हो रहा है, और होता ही रहेगा - यह अनुभव की महिमा है। अनुभव के बिना ऐसा कहना बनता नहीं है। अनुभव से ही प्रमाण होता है। अनुभव का ही प्रमाण होता है। अनुभव मूलक विधि से जीने पर हम प्रमाण के अधिकारी बनते हैं, जिससे न्याय-धर्म-सत्य जीने में प्रमाणित होता है।
प्रमाणित होने की सीमा है - अध्ययन से लेकर अनुभव तक। प्रमाणित होने का मतलब है - दूसरे को अपने जैसे समझा देना। इसी तरह अनुभव एक से अनेक में अंतरित होता है। यदि अनुभव एक से दूसरे में अंतरित नहीं हो सकता तो ऐसे अनुभव का मतलब ही क्या है? दूसरे व्यक्ति में हमारे अध्ययन कराने से अनुभव होने पर हम प्रमाणित हुए।
प्रश्न: जीवन क्रियाएं परमाण्विक स्वरूप में हैं, यह कब पता चलता है?
उत्तर: आत्मा में अनुभव क्रिया होती है। इसी तरह जीवन के चार परिवेशों में जो क्रियाएं होती हैं, उनकी सूचना आपको मिल गयी है। अब हम क्या कर रहे हैं? - इसको हम शोध कर सकते हैं। शोध करने पर हम जैसा बताया है, वैसा ही पाते हैं। क्रिया जो ही रही है, उसी का शोध करना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
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