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Friday, June 4, 2010

अनुसन्धान और अध्ययन - भाग १

प्रश्न: अनुसन्धान पूर्वक आपके समझने की प्रक्रिया और अध्ययन पूर्वक हमारे समझने की प्रक्रिया में क्या भेद है?

उत्तर: प्रक्रिया तो दोनों में अध्ययन ही है। मैंने सीधा प्रकृति में अध्ययन किया। आप प्रकृति में जिसने अध्ययन करके अनुभव किया, उसका अनुकरण करके अध्ययन कर रहे हैं।

प्रश्न: आप जो शब्दों द्वारा प्रस्तुत करते हैं, उसके साथ हम अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके "अर्थ" स्वरूप में वस्तु को पाने का प्रयास कर रहे हैं। आपके अध्ययन में शब्द तो नहीं था?

उत्तर: मुझे भी वैसे ही अध्ययन हुआ है। जो भी गति या दृश्य हम देखते हैं, वह पहले शब्द में ही परिवर्तित होता है। जो दृश्य को मैंने देखा उसका नामकरण किया। नामकरण करते हुए मैंने दृश्य के रूप में अर्थ को स्वीकार लिया। ऐसा मेरे साथ हुआ। आपके पास कल्पनाशीलता है, जिससे आप उस अर्थ तक पहुँच ही सकते हैं।

साक्षात्कार पूर्वक अर्थ बोध होना, अर्थ-बोध होने के बाद अनुभव होना, फिर अनुभव-प्रमाण बोध होना, फिर प्रमाण को संप्रेषित करना - यह परमार्थ है। पुरुषार्थ साक्षात्कार तक ही है।

प्रश्न: क्या आपने प्रकृति की एक-एक वस्तु के बारे में सोचा, फिर अध्ययन किया?

उत्तर: नहीं। प्रकृति अपने आप से जो प्रस्तुत हुई उसी का मैंने अध्ययन किया। जैसे - मैंने पत्थर को नहीं सोचा था। पत्थर स्वयं सामने आया और बिखर गया। बिखरते-बिखरते स्वायत्त विधि से काम करता हुआ दिखा। उसको मैंने "परमाणु" नाम दिया। फिर जैसे पत्ता आया। पत्ता विघटित होते-होते प्राण-कोषा तक को दिखा दिया।

प्रश्न: ऐसे कैसे देखा? आपने "देखा" शब्द का प्रयोग किया। "देखने" का क्या मतलब है?

उत्तर: देखने का तरीका ऐसा पारदर्शी बन जाता है कि दिख जाता है। जीवंत शरीर के साथ मुझ में ये स्वीकृतियां हुई, इसलिए मैंने "देखा" शब्द प्रयोग किया। देखने का मतलब समझना है। समझा नहीं, तो देखा नहीं है।

इस तरह देखने के लिए मेरा "अपेक्षा" कुछ नहीं था। अपने आप से हुआ।

प्रश्न: आपमें देखने का अपेक्षा न होते हुए भी देखना कैसे बना? बिना अपेक्षा के "देखने वाले" का क्या अर्थ हुआ?

उत्तर: "देखने वाला" जीवन (मैं) ही था। इसमें रहस्य कुछ भी नहीं है। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह जिज्ञासा मुझ में पहले से था ही। उसके उत्तर में यह स्वयं-स्फूर्त घटित हुआ। मेरी जिज्ञासा के आधार पर यह अध्ययन हुआ।

आप जो मुझ से अध्ययन करते हैं - उसमें अपेक्षा भी है, जिज्ञासा भी है, ध्वनि भी है, भाषा भी है।

प्रश्न: आपके अध्ययन में जिज्ञासा बना रहा, पर आपने अपनी कल्पनाशीलता को दिशा नहीं दिया...

उत्तर: हाँ। मेरी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता मेरी जिज्ञासा के लिए समाहित हो गया। इसी का नाम है चित्त-वृत्तियाँ निरोध होना। चित्त-वृत्तियाँ निरोध होने के बाद यह अध्ययन हुआ है। समाधि में चित्त वृत्तियाँ निरोध होता है। समाधि के बिना संयम नहीं होता। आज भी यदि कोई संयम में अध्ययन करना चाहते हैं तो उसी मार्ग पर चलना होगा। दूसरा तरीका है - आप यह मानें "प्रकृति किसी को यह समझ दे दिया"। प्रकृति-प्रदत्त यह वस्तु अध्ययन-गम्य है या नहीं है, सच्चाई है या नहीं? - इसको आप शोध करें! यदि आप यह मानें "प्रकृति नहीं दिया" - तो आप पहले जिस तरीके से रह रहे हैं, वैसे ही रहिये! वह रास्ता तो आपके लिए रखा ही है।

जीवन में जिज्ञासा, जिज्ञासा के साथ जीवन द्वारा प्रयास, प्रयास के फलन में प्रकृति द्वारा उत्तर। इस तरह मैंने इस बात को पाया। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह तीव्र जिज्ञासा जीवन (मुझ) में था, जिसकी आपूर्ति के लिए यह सब हुआ।

प्रश्न: तो आपकी जिज्ञासा मूल में रही, साधना से आपकी पारदर्शीयता पूर्वक देखने की स्थिति बनी, और प्रकृति आपके सम्मुख प्रस्तुत हुई, जिसका आपने अध्ययन किया। क्या ऐसा है?

उत्तर: हाँ। मुझको भी पहले साक्षात्कार, फिर बोध,फिर अनुभव हुआ। अनुभव होने के बाद मैंने उसे सम्पूर्ण मानव-जाति का सम्पदा माना। ऐसा सोच कर इसको मानव के हाथ में सौंपने का कोशिश किया। जैसे-जैसे यह किया, इस काम के लिए परिस्थितयां और अनुकूल होता गया। इसको भी मैं प्रकृति का देन और मानव का पुण्य मानता हूँ।

प्रश्न: तो आपमें जो घटा उसको आपने नाम दिया। यह जो घटा यह "साक्षात्कार" है। यह जो घटा यह "बोध" है। क्या ऐसे हुआ?

उत्तर: हाँ - वही है। जो घटा - उसी का नामकरण मैंने किया।

प्रश्न: क्या यह भी आपको दिखा - "यह घटना जीवन-परमाणु के इस परिवेश में हो रही है"।

उत्तर: हाँ। जीवन-ज्ञान के बाद ही यह (साक्षात्कार, बोध, अनुभव) घटित हुआ था। जीवन-ज्ञान के बाद घटित होने से - किसमें क्या होता है, यह स्पष्ट होता गया। यही मैंने दर्शन में लिखा भी है। मैंने जो लिखा है, वह वेदों के reference से नहीं है। वेदों में जो बताया गया है, यह वह नहीं है। वेदों में जीवन (गठन पूर्ण परमाणु) की चर्चा नहीं है।

साक्षात्कार, बोध, अनुभव होने पर प्रमाण को मैं लिखा हूँ। उस प्रमाण से आपको बोध होना है, अनुभव होना है, पुनः प्रमाण होना है। ऐसे एक से दुसरे में अंतरित होने की बात होती है। यदि हम दुसरे को समझा नहीं पाते हैं, तो हमारी समझ का प्रमाण कहाँ हुआ?

प्रश्न: क्या आपकी साधना विधि और हमारी अध्ययन विधि का फल एक ही है?

उत्तर: मेरी साधना विधि वाला पुरुषार्थ कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता है। सभी जो कर सकते हैं - उस अध्ययन-विधि को मैंने प्रस्तुत किया है। साधना विधि और अध्ययन-विधि का फल एक ही है। साधना विधि से "ज्यादा" अनुभव होता हो, अध्ययन-विधि से "कम" अनुभव होता हो - वह भी नहीं है। अनुभव के बाद आपको भी वैसा ही दिखेगा, जैसा मुझे दिखता है। यह वैसे ही है - लोटे से भी पानी लाया जा सकता है, घड़े से भी पानी लाया जा सकता है। साधना-विधि से पाना है तो उसी पर चल के देखो। अध्ययन-विधि से पाना है तो उस पर चल कर देखो।

प्रकृति जैसा है, वैसा मेरे सम्मुख प्रस्तुत हुआ
अब प्रकृति जैसा है, वैसा आपको अध्ययन कराने के लिए मैंने प्रस्तुत किया है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)

2 comments:

Devansh Mittal said...

This is an amazing article. Your blog has become a great resource of discussions with Babaji.
Kindly keep taking backups also regularly. I remember, once you had lost lot of blogs.

With Regards,
Devansh

Rakesh Gupta said...

Yes, I agree - this is "amazing"!

Thanks to Praveen (pravsing@gmail.com).

We are working towards publishing some of this stuff this year, which should help in making this info accessible to more people. Also printed medium is more "readable" than electronic.

Will take care of backups.

Regards,
Rakesh.