This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ANNOUNCEMENTS
Tuesday, June 29, 2010
Monday, June 28, 2010
Saturday, June 26, 2010
व्यापक की वास्तविकता
सभी इकाइयों के बीच में जो खाली-स्थली है - वह व्यापक-वस्तु है। दो धरतियों, दो मनुष्यों, दो परमाणुओं, दो परमाणु-अंशों - सभी के बीच जो खाली-स्थली है, वह व्यापक-वस्तु ही है। व्यापक-वस्तु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं में पारगामी है।
अस्तित्व में व्यापक-वस्तु हर जगह है। कुछ स्थानों पर पदार्थ (प्रकृति) है, कुछ स्थानों पर नहीं है। जहां पदार्थ है, वहां भी व्यापक-वस्तु है। जहां पदार्थ नहीं है, वहां भी व्यापक वस्तु है। इस प्रकार - व्यापक में ही सम्पूर्ण प्रकृति है। व्यापक-वस्तु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं में पारगामी है। पत्थर, लोहे सभी में व्यापक पारगामी है। पारगामियता के फल-स्वरूप ही प्रकृति की इकाइयां ऊर्जा-संपन्न हैं।
प्रश्न: क्या परमाणु-अंश के बीच में भी कोई रिक्त स्थान है, जहां व्यापक तो है - पर पदार्थ नहीं है?
उत्तर: नहीं। परमाणु-अंश के बीच कोई रिक्त-स्थान नहीं है। परमाणु-अंश जहां है, वहां पदार्थ भी है और व्यापक भी है।
क्रमशः
अस्तित्व में व्यापक-वस्तु हर जगह है। कुछ स्थानों पर पदार्थ (प्रकृति) है, कुछ स्थानों पर नहीं है। जहां पदार्थ है, वहां भी व्यापक-वस्तु है। जहां पदार्थ नहीं है, वहां भी व्यापक वस्तु है। इस प्रकार - व्यापक में ही सम्पूर्ण प्रकृति है। व्यापक-वस्तु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण सभी वस्तुओं में पारगामी है। पत्थर, लोहे सभी में व्यापक पारगामी है। पारगामियता के फल-स्वरूप ही प्रकृति की इकाइयां ऊर्जा-संपन्न हैं।
प्रश्न: क्या परमाणु-अंश के बीच में भी कोई रिक्त स्थान है, जहां व्यापक तो है - पर पदार्थ नहीं है?
उत्तर: नहीं। परमाणु-अंश के बीच कोई रिक्त-स्थान नहीं है। परमाणु-अंश जहां है, वहां पदार्थ भी है और व्यापक भी है।
क्रमशः
Friday, June 25, 2010
सह-अस्तित्व का प्रतिरूप
प्रकृति का क्रियाकलाप स्वयं-स्फूर्त है। प्रकृति को कोई पैदा करके "ऐसा करो! वैसा करो!" निर्देश करता हो - ऐसा नहीं है। मनुष्य भी जागृत होने पर स्वयं-स्फूर्त हो जाता है।
एक परमाणु-अंश से परस्परता में पहचान शुरू होती है। पहचान के आधार पर ही निर्वाह करना होता है। निर्वाह करना = आचरण करना। परमाणु से ही स्वयं-स्फूर्त निश्चित-आचरण की शुरुआत होती है। दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण करता है। बीस अंश का परमाणु एक दूसरा निश्चित आचरण करता है। गठन में जितने परमाणु हैं, उसके अनुसार परमाणु की प्रजातियाँ है। जितने प्रजाति के परमाणु हैं, उतनी तरह के आचरण हैं। एक प्रजाति के सभी परमाणु एक ही तरह का आचरण करते हैं।
प्रश्न: ऐसा होने का क्या कारण है? परमाणु का आचरण क्यों निश्चित है? आगे वनस्पतियों, और जीवों के आचरण निश्चित होने का क्या कारण है?
उत्तर: कारण है - व्यवस्था! दूसरे - सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए निरंतर प्रकटन-शील है।
सह-अस्तित्व समझ में आये बिना यह क्यों और कैसे होता है, समझ में आ नहीं सकता। कल्पनाशीलता के अलावा इसको समझने के लिए मनुष्य के पास और कोई औज़ार नहीं है।
प्रश्न: "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" से क्या आशय है?
उत्तर: पदार्थ-अवस्था में सह-अस्तित्व का प्रतिरूप प्रस्तुत होने की शुरुआत है। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व के प्रतिरूप की परिपूर्णता है।
सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए नित्य प्रकटन-शील है। पदार्थ-अवस्था मात्र से सह-अस्तित्व का सम्पूर्ण प्रतिरूप प्रगट नहीं होता। प्राण-अवस्था के शरीरों की रचना और जीवन का प्रकटन इसी क्रम में हुआ। जीवन का प्रकटन जागृत होने के लिए, और जागृति को प्रमाणित करने के लिए हुआ। सह-अस्तित्व का प्रकटन-क्रम पूर्णता की ओर प्रगति है। गठन-पूर्णता के बाद क्रिया-पूर्णता का पड़ाव, क्रिया-पूर्णता के बाद आचरण-पूर्णता का पड़ाव है। सह-अस्तित्व का प्रमाण क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में ही होता है। "सह-अस्तित्व यही है!" - ऐसा प्रमाणित करने वाला ज्ञान-अवस्था का मनुष्य ही है। पूर्णता का प्रमाण भ्रम से मुक्ति है।
स्थिति-पूर्ण सत्ता में संपृक्त स्थिति-शील प्रकृति पूर्णता की ओर प्रकटन-शील है। प्रकृति द्वारा व्यापकता के अनुकरण का प्रमाण विविधता से मुक्ति पाना है। व्यापकता में कोई विविधता नहीं है। सबके साथ समान रूप से पारगामी है, सबके साथ समान रूप से पारदर्शी है, और व्यापक है ही। पदार्थ-अवस्था में जातीय विविधता दिखती है। प्राण-अवस्था में भी जातीय विविधता है। जीव-अवस्था में भी जातीय विविधता है। ज्ञान-अवस्था या मानव में जातीय विविधता नहीं है। मानव जाति एक है। मानव जाति में जागृति पूर्वक सह-अस्तित्व पूरा व्यक्त होता है। इसको "सम्पूर्णता" नाम दिया। मानव जाति एक होना, मानव धर्म एक होना, हर व्यक्ति और हर परिवार का व्यवस्था में भागीदार होना। सर्व-मानव के लिए ज्ञान यही है। इस तरह सम्पूर्णता में प्रमाण है। सम्पूर्णता सह-अस्तित्व ही है।
स्वयं-स्फूर्त प्रकटन ही सृष्टि है। ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। ऊर्जा-सम्पन्नता का स्त्रोत व्यापक-वस्तु है। सह-अस्तित्व का प्रतिरूप ज्ञान-अवस्था में ही पूरा प्रमाणित होता है, और दूसरे कहीं होता नहीं है। पूरा प्रमाणित करना ज्ञान-अवस्था में ही होता है। उसके आन्शिकता में ही बाकी सारी अवस्थाएं कार्य कर रही हैं।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
एक परमाणु-अंश से परस्परता में पहचान शुरू होती है। पहचान के आधार पर ही निर्वाह करना होता है। निर्वाह करना = आचरण करना। परमाणु से ही स्वयं-स्फूर्त निश्चित-आचरण की शुरुआत होती है। दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण करता है। बीस अंश का परमाणु एक दूसरा निश्चित आचरण करता है। गठन में जितने परमाणु हैं, उसके अनुसार परमाणु की प्रजातियाँ है। जितने प्रजाति के परमाणु हैं, उतनी तरह के आचरण हैं। एक प्रजाति के सभी परमाणु एक ही तरह का आचरण करते हैं।
प्रश्न: ऐसा होने का क्या कारण है? परमाणु का आचरण क्यों निश्चित है? आगे वनस्पतियों, और जीवों के आचरण निश्चित होने का क्या कारण है?
उत्तर: कारण है - व्यवस्था! दूसरे - सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए निरंतर प्रकटन-शील है।
सह-अस्तित्व समझ में आये बिना यह क्यों और कैसे होता है, समझ में आ नहीं सकता। कल्पनाशीलता के अलावा इसको समझने के लिए मनुष्य के पास और कोई औज़ार नहीं है।
प्रश्न: "सह-अस्तित्व का प्रतिरूप" से क्या आशय है?
उत्तर: पदार्थ-अवस्था में सह-अस्तित्व का प्रतिरूप प्रस्तुत होने की शुरुआत है। ज्ञान-अवस्था में सह-अस्तित्व के प्रतिरूप की परिपूर्णता है।
सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रस्तुत करने के लिए नित्य प्रकटन-शील है। पदार्थ-अवस्था मात्र से सह-अस्तित्व का सम्पूर्ण प्रतिरूप प्रगट नहीं होता। प्राण-अवस्था के शरीरों की रचना और जीवन का प्रकटन इसी क्रम में हुआ। जीवन का प्रकटन जागृत होने के लिए, और जागृति को प्रमाणित करने के लिए हुआ। सह-अस्तित्व का प्रकटन-क्रम पूर्णता की ओर प्रगति है। गठन-पूर्णता के बाद क्रिया-पूर्णता का पड़ाव, क्रिया-पूर्णता के बाद आचरण-पूर्णता का पड़ाव है। सह-अस्तित्व का प्रमाण क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता में ही होता है। "सह-अस्तित्व यही है!" - ऐसा प्रमाणित करने वाला ज्ञान-अवस्था का मनुष्य ही है। पूर्णता का प्रमाण भ्रम से मुक्ति है।
स्थिति-पूर्ण सत्ता में संपृक्त स्थिति-शील प्रकृति पूर्णता की ओर प्रकटन-शील है। प्रकृति द्वारा व्यापकता के अनुकरण का प्रमाण विविधता से मुक्ति पाना है। व्यापकता में कोई विविधता नहीं है। सबके साथ समान रूप से पारगामी है, सबके साथ समान रूप से पारदर्शी है, और व्यापक है ही। पदार्थ-अवस्था में जातीय विविधता दिखती है। प्राण-अवस्था में भी जातीय विविधता है। जीव-अवस्था में भी जातीय विविधता है। ज्ञान-अवस्था या मानव में जातीय विविधता नहीं है। मानव जाति एक है। मानव जाति में जागृति पूर्वक सह-अस्तित्व पूरा व्यक्त होता है। इसको "सम्पूर्णता" नाम दिया। मानव जाति एक होना, मानव धर्म एक होना, हर व्यक्ति और हर परिवार का व्यवस्था में भागीदार होना। सर्व-मानव के लिए ज्ञान यही है। इस तरह सम्पूर्णता में प्रमाण है। सम्पूर्णता सह-अस्तित्व ही है।
स्वयं-स्फूर्त प्रकटन ही सृष्टि है। ऊर्जा-सम्पन्नता पूर्वक स्वयं-स्फूर्त प्रकटन है। ऊर्जा-सम्पन्नता का स्त्रोत व्यापक-वस्तु है। सह-अस्तित्व का प्रतिरूप ज्ञान-अवस्था में ही पूरा प्रमाणित होता है, और दूसरे कहीं होता नहीं है। पूरा प्रमाणित करना ज्ञान-अवस्था में ही होता है। उसके आन्शिकता में ही बाकी सारी अवस्थाएं कार्य कर रही हैं।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Thursday, June 24, 2010
जीना और भाषा
सार रूप में हम जीते हैं, सूक्ष्म सूक्ष्मतम विस्तार में हम सोचते हैं। हर व्यक्ति में यह अधिकार बना है। विश्लेषण रूप में जीना नहीं होता। विश्लेषण भाषा है। जीना सार है, चारों अवस्थाओं के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जीना होता है। समाधान तो इस सार रूप में जीने में ही होता है। सूचना सूक्ष्मतम विस्तार में रहता है। अनुभव के आधार पर हम सूक्ष्मतम विस्तार में विश्लेषण करने योग्य हो जाते हैं। प्रयोजन के साथ यदि भाषा को जोड़ते हैं तो भाषा संयत हो जाती है। प्रयोजन को छोड़ कर हम भाषा प्रयोग करते हैं, तो हम बिखर जाते हैं।
जीना समग्र है। एक व्यक्ति का "समग्रता के साथ जीना" जागृत-परंपरा की शुरुआत है। समग्रता के साथ जीने में उसके विपुलीकरण की सामग्री बना ही रहता है। पहले जीना है, फिर उसको भाषा के साथ फैलाना है। जीने के लिए जितनी भाषा चाहिए, उतनी भाषा पहले। उसके बाद विस्तार के लिए आगे और भाषा है - जैसे, दार्शनिक-भाषा, विचार-भाषा, शास्त्र-भाषा, संविधान-भाषा। इन चार स्तरों पर भाषा का प्रयोग है। यह सब भाषा अध्ययन की सामग्री बनता है। जीना सार रूप में ही होता है। चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रूप में जीना होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
जीना समग्र है। एक व्यक्ति का "समग्रता के साथ जीना" जागृत-परंपरा की शुरुआत है। समग्रता के साथ जीने में उसके विपुलीकरण की सामग्री बना ही रहता है। पहले जीना है, फिर उसको भाषा के साथ फैलाना है। जीने के लिए जितनी भाषा चाहिए, उतनी भाषा पहले। उसके बाद विस्तार के लिए आगे और भाषा है - जैसे, दार्शनिक-भाषा, विचार-भाषा, शास्त्र-भाषा, संविधान-भाषा। इन चार स्तरों पर भाषा का प्रयोग है। यह सब भाषा अध्ययन की सामग्री बनता है। जीना सार रूप में ही होता है। चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रूप में जीना होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Tuesday, June 22, 2010
अध्ययन विधि
निष्कर्ष पर पहुंचना है कि नहीं - पहले इसको तय किया जाए! व्यवस्था चाहिए तो निष्कर्ष पर पहुंचना आवश्यक है।
समाधान कोई शर्त (condition) नहीं है। व्यवस्था कोई शर्त नहीं है। सुख कोई शर्त नहीं है। अभय कोई शर्त नहीं है। सह-अस्तित्व कोई शर्त नहीं है। समाधान, व्यवस्था, सुख, अभय, सह-अस्तित्व ये सब शर्त-विहीन (unconditional) हैं।
अपनी शर्त लगाने से कोई बात स्पष्ट नहीं होता। "हम हमारे तरीके से ही समझेंगे!" - यह भी एक शर्त है। शर्त लगाते हैं, तो रुक जाते हैं। वस्तु जैसा है, वैसा समझने की जिज्ञासा करने से वस्तु स्पष्ट होता है। शर्त लगाने से ही हम रुकते हैं। शर्त नहीं लगाते, तो हम रुकते नहीं हैं। शर्त न हो, और हम रुक जाएँ - ऐसा हो नहीं सकता! समझने के लिए हम अपनी शर्त नहीं लगाते तो हमारे पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए जो कल्पनाशीलता है, वह नियोजित हो जाती है। शर्त लगाते हैं तो कल्पनाशीलता नियोजित नहीं हो पाती।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।
कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।
अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।
पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।
समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।
आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।
यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।
सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
समाधान कोई शर्त (condition) नहीं है। व्यवस्था कोई शर्त नहीं है। सुख कोई शर्त नहीं है। अभय कोई शर्त नहीं है। सह-अस्तित्व कोई शर्त नहीं है। समाधान, व्यवस्था, सुख, अभय, सह-अस्तित्व ये सब शर्त-विहीन (unconditional) हैं।
अपनी शर्त लगाने से कोई बात स्पष्ट नहीं होता। "हम हमारे तरीके से ही समझेंगे!" - यह भी एक शर्त है। शर्त लगाते हैं, तो रुक जाते हैं। वस्तु जैसा है, वैसा समझने की जिज्ञासा करने से वस्तु स्पष्ट होता है। शर्त लगाने से ही हम रुकते हैं। शर्त नहीं लगाते, तो हम रुकते नहीं हैं। शर्त न हो, और हम रुक जाएँ - ऐसा हो नहीं सकता! समझने के लिए हम अपनी शर्त नहीं लगाते तो हमारे पास तदाकार-तद्रूप होने के लिए जो कल्पनाशीलता है, वह नियोजित हो जाती है। शर्त लगाते हैं तो कल्पनाशीलता नियोजित नहीं हो पाती।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने के बाद ही हम उसको अपनाते हैं। अभी तक जितना आप अपनाए हो, उसी विधि से अपनाए हो। आगे जो अपनाओगे, उसी विधि से अपनाओगे। अध्ययन विधि में पहले सूचना है। सूचना तक पठन है। सूचना से इंगित अर्थ में जाते हैं, तो अस्तित्व में वस्तु के साथ तदाकार होना होता है। तदाकार होने के बाद कोई प्रश्न ही नहीं है।
कल्पनाशीलता द्वारा सच्चाई रुपी अर्थ को स्वीकार लेना ही "तदाकार होना" है। अर्थ को समझते हैं, तो शरीर गौण हो गया - जीवन प्राथमिक हो गया। तदाकार होने के बाद ही बोध होता है। अस्तित्व चार अवस्थाओं के स्वरूप में है। इनके साथ अपने "सही से जीने" के स्वरूप को स्वीकारना ही बोध है। बोध होने के बाद ही अनुभव होता है। अनुभव सच्चाई का प्रमाण होता है। अनुभव पूर्वक यह निश्चयन होता है कि - "पूरी बात को मैं प्रमाणित कर सकता हूँ"। इसको अनुभव-मूलक बोध कहा। जिसके फलस्वरूप चित्त में चिंतन होता है। जिसका फिर चित्रण होता है। चित्रण पुनः वृत्ति और मन द्वारा शरीर के साथ जुड़ता है - संबंधों में जागृति को प्रमाणित करने के लिए। इस तरह - अनुभव जीवन में, प्रमाण मनुष्य में।
अध्ययन है - शब्द (सूचना) के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु को पहचानना। अध्ययन भाषा से शुरू होता है, अर्थ में अंत होता है।
पहले सूचना के लिए जिज्ञासा है। फिर सूचना से इंगित अर्थ के लिए जिज्ञासा है। फिर अर्थ में तदाकार होने के लिए जिज्ञासा है। उसके बाद प्रमाणित होने के लिए जिज्ञासा है। जिज्ञासा के ये चार स्तर हैं।
समझाने वाला समझा-हुआ होना और समझाने के तरीके से संपन्न होना ; और समझने वाले के पास सुनने से लेकर साक्षात्कार करने तक की जिज्ञासा होना - इन दो बातों की आवश्यकता है। इन दोनों के बिना संवाद सफल नहीं होता।
आपका "लक्ष्य" क्या है, और आपके पास उस लक्ष्य को पाने के लिए "पूंजी" क्या है - ये दोनों पहले स्पष्ट होना आवश्यक है।
यदि आपको स्वीकार होता है कि आपका लक्ष्य "सार्वभौम व्यवस्था" है और उस लक्ष्य को पाने के लिए आपके पास "कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता" पूंजी रूप में है - तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए यह पूरा प्रस्ताव ठीक है या नहीं, उसको शोध करना! आपको अपने लक्ष्य के लिए इस प्रस्ताव की आवश्यकता है या नहीं - यह तय करना। फिर उस लक्ष्य के अर्थ में जब आप जीने लगते हैं, तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती जाती हैं।
सार्वभौम-व्यवस्था के लिए जीने का हम रास्ता बनाते हैं, तो सार्वभौम-व्यवस्था के लिए सोचने का रास्ता बन जाता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Saturday, June 19, 2010
सूचना, तदाकार-तद्रूप, प्रमाण
अनुसन्धान पूर्वक जो मुझे समझ आया उसकी सूचना मैंने प्रस्तुत की है। इस सूचना से तदाकार-तद्रूप होना आप सभी के लिए अनुकूल होगा, यह मान कर मैंने इस प्रस्तुत किया है। तदाकार-तद्रूप होने का भाग (कल्पनाशीलता के रूप में ) आप ही के पास है।
"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।
व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।
जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।
"व्यापक प्रकृति में पारगामी है" - यह सूत्र सार्वभौम-व्यवस्था तक पहुंचाता है। इस आधार पर मैंने स्वीकारा - यह सही है!
मैंने एक मार्ग बताया है, जो व्यवस्था तक पहुंचाता है। दूसरे किसी मार्ग से व्यवस्था तक पहुँच सकते हों - तो उसको अपनाने और बताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं ही! व्यवस्था तक पहुंचाने का एक मार्ग मैंने पहचान लिया। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है (जो व्यवस्था तक पहुंचा दे) - ऐसा मैंने नहीं कहा है। अभी तक आदर्शवादी और भौतिकवादी विधि से जो सोचा गया, उससे व्यवस्था घटित नहीं हुआ। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ दर्शन का मार्ग है - जो व्यवस्था तक पहुंचता है। चौथा कोई तरीका हो, तो मुझे वह पता नहीं! "चौथा विधि नहीं है" - यह कहने का अधिकार मेरे पास तो नहीं है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कहता हूँ - "सह-अस्तित्व परम सत्य है।" फिर भी हर व्यक्ति अपने में स्वतन्त्र है, यह कहने के लिए कि - "सत्य और कुछ है"।
"जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो" - प्रताड़ना और कुंठा से मुक्ति के लिए।
प्रश्न: अध्ययन विधि में "मानने" की क्या भूमिका है?
उत्तर: पहले हम मानते ही हैं - कि यह "सच बात" है। सूचना को पहले "मानना" होता है, उसके बाद "जानना" होता है। जीने से ही "जानने" की बात प्रमाणित होती है। प्रमाणित करने के लिए जीने के अलावा और कोई विधि नहीं है। प्रमाण-स्वरूप में जीना ही समाधान है।
समझाने वाले को सच्चा मान कर शुरू करते हैं। सूचना से यह और पुष्ट होता है। सूचना के अर्थ में जाने पर यह और पुष्ट होता है। अर्थ में तदाकार होने पर वह स्वत्व बन जाता है। इतना ही तो बात है।
प्रयोजन ही अर्थ है। जो सूचना दिया, उसके प्रयोजन या अर्थ के साथ तदाकार होना। यदि प्रयोजन के साथ तदाकार नहीं होते, तो सूचना भर रहा गया।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप विधि से पारंगत होने पर अनुभव होता है। अनुभव सर्वतोमुखी समाधान का स्त्रोत है। आपके पास इस प्रस्ताव की सूचना है, इस सूचना में तदाकार-तद्रूप होने की सम्पदा आपके पास है - उसका उपयोग करो! भाषा, सच्चाई, और अर्थ - इन तीनो को एक सूत्र में लाने की कोशिश करो, बात बन जायेगी!
कल्पनाशीलता तदाकार होने के लिए वस्तु है। आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं - उसका शोध करो! कल्पनाशीलता में तदाकार होने का गुण है।
इस बात में सवाल तो एक भी नहीं है। समझना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं - इतना ही है। हम जितना समझे हैं, उतना समझाते हैं - तो आगे और समझ आता जाता है। समझना चाहते हैं, तो समझ आता है। नहीं समझना चाहते, तो नहीं समझ में आता।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
"सूचना और उसमें तदाकार-तद्रूप होना" - यह सिद्धांत है। अभी तक चाहे आबाद, बर्बाद, अच्छा, बुरा जैसे भी मनुष्य जिया हो - इसी सिद्धांत पर चला है। मानव जाति का यही स्वरूप है। अभी भी जो मानव-जाति चल रही है, वह तदाकार-तद्रूप विधि से ही चल रही है।
व्यवस्था में हम सभी जीना चाहते हैं। (मध्यस्थ-दर्शन द्वारा प्रस्तावित) व्यवस्था के स्वरूप को मान करके ही (इसके अध्ययन की) शुरुआत होती है। समझ के लिए जो सूचना आवश्यक है - वह पहले से ही उपलब्ध रहता है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है, तदाकार-तद्रूप होने का भाग आपका है।
जब मैंने शुरू किया था - तब "व्यवस्था के स्वरूप" को समझाने की कोई सूचना नहीं थी। न तदाकार-तद्रूप होने का कोई रास्ता था। उस कष्ट से सभी न गुजरें, इसलिए व्यवस्था के स्वरूप की सूचना प्रस्तुत की है, और उसमें तदाकार-तद्रूप होने की अध्ययन-विधि प्रस्तावित की है। सूचना मैंने प्रस्तुत किया है। उसमें तदाकार-तद्रूप आपको होना है।
"व्यापक प्रकृति में पारगामी है" - यह सूत्र सार्वभौम-व्यवस्था तक पहुंचाता है। इस आधार पर मैंने स्वीकारा - यह सही है!
मैंने एक मार्ग बताया है, जो व्यवस्था तक पहुंचाता है। दूसरे किसी मार्ग से व्यवस्था तक पहुँच सकते हों - तो उसको अपनाने और बताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं ही! व्यवस्था तक पहुंचाने का एक मार्ग मैंने पहचान लिया। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है (जो व्यवस्था तक पहुंचा दे) - ऐसा मैंने नहीं कहा है। अभी तक आदर्शवादी और भौतिकवादी विधि से जो सोचा गया, उससे व्यवस्था घटित नहीं हुआ। इन दोनों के विकल्प में मध्यस्थ दर्शन का मार्ग है - जो व्यवस्था तक पहुंचता है। चौथा कोई तरीका हो, तो मुझे वह पता नहीं! "चौथा विधि नहीं है" - यह कहने का अधिकार मेरे पास तो नहीं है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कहता हूँ - "सह-अस्तित्व परम सत्य है।" फिर भी हर व्यक्ति अपने में स्वतन्त्र है, यह कहने के लिए कि - "सत्य और कुछ है"।
"जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो" - प्रताड़ना और कुंठा से मुक्ति के लिए।
प्रश्न: अध्ययन विधि में "मानने" की क्या भूमिका है?
उत्तर: पहले हम मानते ही हैं - कि यह "सच बात" है। सूचना को पहले "मानना" होता है, उसके बाद "जानना" होता है। जीने से ही "जानने" की बात प्रमाणित होती है। प्रमाणित करने के लिए जीने के अलावा और कोई विधि नहीं है। प्रमाण-स्वरूप में जीना ही समाधान है।
समझाने वाले को सच्चा मान कर शुरू करते हैं। सूचना से यह और पुष्ट होता है। सूचना के अर्थ में जाने पर यह और पुष्ट होता है। अर्थ में तदाकार होने पर वह स्वत्व बन जाता है। इतना ही तो बात है।
प्रयोजन ही अर्थ है। जो सूचना दिया, उसके प्रयोजन या अर्थ के साथ तदाकार होना। यदि प्रयोजन के साथ तदाकार नहीं होते, तो सूचना भर रहा गया।
सूचना के आधार पर तदाकार-तद्रूप विधि से पारंगत होने पर अनुभव होता है। अनुभव सर्वतोमुखी समाधान का स्त्रोत है। आपके पास इस प्रस्ताव की सूचना है, इस सूचना में तदाकार-तद्रूप होने की सम्पदा आपके पास है - उसका उपयोग करो! भाषा, सच्चाई, और अर्थ - इन तीनो को एक सूत्र में लाने की कोशिश करो, बात बन जायेगी!
कल्पनाशीलता तदाकार होने के लिए वस्तु है। आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं - उसका शोध करो! कल्पनाशीलता में तदाकार होने का गुण है।
इस बात में सवाल तो एक भी नहीं है। समझना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं - इतना ही है। हम जितना समझे हैं, उतना समझाते हैं - तो आगे और समझ आता जाता है। समझना चाहते हैं, तो समझ आता है। नहीं समझना चाहते, तो नहीं समझ में आता।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Wednesday, June 16, 2010
पारगामीयता
प्रश्न: सत्ता पारगामी है, यह आपको कैसे समझ में आया?
उत्तर: पहले मैंने स्वचालित वस्तु को देखा। वस्तु स्वचालित कैसे है? - यह शोध करने पर उसके उत्तर में मुझे यह पता चला कि मूलतः साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता है, जिससे क्रियाशीलता है, और कार्य-ऊर्जा के रूप में स्वचालित है। व्यापक-वस्तु जड़ प्रकृति के लिए ऊर्जा है और चैतन्य प्रकृति के लिए ज्ञान है। ज्ञान समाधान को छूता है, सार्वभौमता और अखंडता को छूता है।
व्यापक-वस्तु सर्वत्र पारदर्शीयता विधि से परस्परता में पहचान के रूप में है। पारगामियता विधि से हर वस्तु ऊर्जा-संपन्न है।
प्रश्न: तो हम स्वचालित वस्तु को देख कर, उसके स्वचालित होने के कारण को पहचानने के लिए अनुमान करते हैं कि इस वस्तु के चारों ओर फ़ैली व्यापक-वस्तु इसमें पारगामी होगी, इसलिए यह स्वचालित है?
उत्तर: कारण पता लगने पर कार्य-विधि का पता चलता है। कारण पता चलने के लिए हर व्यक्ति अपने तरीके से अनुमान लगाएगा। अनुमान लगाने का कोई एक तरीका नहीं है।
मेरी साधना-विधि में अनुमान की अवधि कम हो गयी - स्पष्टता अधिक हो गयी। साधना-विधि में जो स्पष्टता हुई, वही स्पष्टता अध्ययन विधि में होने की बात प्रस्तावित की है। हर व्यक्ति साधना विधि से इस स्पष्टता को पायेगा नहीं, इसलिए अध्ययन विधि को जोड़ा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: पहले मैंने स्वचालित वस्तु को देखा। वस्तु स्वचालित कैसे है? - यह शोध करने पर उसके उत्तर में मुझे यह पता चला कि मूलतः साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता है, जिससे क्रियाशीलता है, और कार्य-ऊर्जा के रूप में स्वचालित है। व्यापक-वस्तु जड़ प्रकृति के लिए ऊर्जा है और चैतन्य प्रकृति के लिए ज्ञान है। ज्ञान समाधान को छूता है, सार्वभौमता और अखंडता को छूता है।
व्यापक-वस्तु सर्वत्र पारदर्शीयता विधि से परस्परता में पहचान के रूप में है। पारगामियता विधि से हर वस्तु ऊर्जा-संपन्न है।
प्रश्न: तो हम स्वचालित वस्तु को देख कर, उसके स्वचालित होने के कारण को पहचानने के लिए अनुमान करते हैं कि इस वस्तु के चारों ओर फ़ैली व्यापक-वस्तु इसमें पारगामी होगी, इसलिए यह स्वचालित है?
उत्तर: कारण पता लगने पर कार्य-विधि का पता चलता है। कारण पता चलने के लिए हर व्यक्ति अपने तरीके से अनुमान लगाएगा। अनुमान लगाने का कोई एक तरीका नहीं है।
मेरी साधना-विधि में अनुमान की अवधि कम हो गयी - स्पष्टता अधिक हो गयी। साधना-विधि में जो स्पष्टता हुई, वही स्पष्टता अध्ययन विधि में होने की बात प्रस्तावित की है। हर व्यक्ति साधना विधि से इस स्पष्टता को पायेगा नहीं, इसलिए अध्ययन विधि को जोड़ा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
ज्ञान
ज्ञान होना आवश्यक है - यह सबको पता है। ज्ञान क्या है? - यह पता नहीं है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसन्धान से निकला - ज्ञान मूलतः तीन स्वरूप में है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। इस ज्ञान के अनुरूप सोच-विचार, सोच-विचार के अनुरूप योजना और कार्य-योजना, कार्य-योजना के अनुरूप फल-परिणाम, फल-परिणाम यदि ज्ञान-अनुरूप होता है तो समाधान है - नहीं तो समस्या है। इस तरह संज्ञानीयता पूर्वक जीने की विधि आ गयी।
ज्ञान को समझाने के लिए "शिक्षा विधि" के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उपदेश विधि से ज्ञान को समझाया नहीं जा सकता। शिक्षा और व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ती होने के आशय में व्यापक की चर्चा है, पारगामीयता की चर्चा है, पारगामीयता के प्रयोजन की चर्चा है।
पारगामीयता का प्रयोजन है - जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता, और चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता। जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता प्रमाणित है - कार्य-ऊर्जा के रूप में। मानव में ज्ञान-सम्पन्नता प्रमाणित होना अभी शेष है। जड़-परमाणु स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील है - बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के! उसी तरह चैतन्य-परमाणु (जीवन) को भी स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील होना है। जीवन परमाणु के स्वयं-स्फूर्त काम करने के लिए मानव ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है। मानव से अधिक और प्रगटन नहीं है, अभी तक तो इतना ही देखा गया है। मानव समाधान पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही समाधान पूर्वक जीना बनता है। मानव न्याय पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही न्याय पूर्वक जीना बनता है। मानव सत्य पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही सत्य पूर्वक जीना बनता है। संज्ञानीयता पूर्वक ही हर मनुष्य न्याय, समाधान (धर्म), और सत्य को फलवती बनाता है।
न्याय, धर्म, और सत्य मनुष्य की कल्पनाशीलता के तृप्ति-बिंदु का प्रगटन है। कल्पनाशीलता चैतन्य-इकाई के व्यापक में भीगे रहने का फलन है।
व्यापक-वस्तु ही ज्ञान स्वरूप में मनुष्य को प्राप्त है। ज्ञान अलग से कोई चीज नहीं है। ज्ञान को जलाया नहीं जा सकता, न तोडा जा सकता है, न बर्बाद किया जा सकता है। ज्ञान अपने में अछूता रहता है। ज्ञान को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ज्ञान-संपन्न हुआ जा सकता है।
क्रिया रूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीवों में जीव-शरीरों के अनुसार जीव-चेतना स्वरूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीव-शरीरों को जीवंत बनाता जीवन जीव-चेतना को ही व्यक्त कर सकता है। जीव-चेतना में शरीर को जीवन मान करके वंश-अनुशंगीय विधि से जीना होता है। मानव-शरीर ज्ञान के अनुरूप बना है। सारी पंचायत वही है! वंश-अनुशंगीय विधि से मानव जी कर सुखी हो नहीं सकता। जीवन को पहचान कर संस्कार-अनुशंगीय विधि से जी कर ही मानव सुखी हो सकता है। शरीर-संरचना समान है - चाहे काले हों, भूरे हों, गोरे हों। अब हमको तय करना है - शरीर स्वरूप में जीना है, या जीवन स्वरूप में जीना है।
इस धरती पर पहली बार जीवन का अध्ययन सामने आया है। यही मौलिक अनुसन्धान है। इससे मनुष्य-जाति के जागृत होने की सम्भावना उदय हो गयी है। परिस्थितियां भी मनुष्य को जागृत होने के लिए बाध्य कर रही हैं। सम्भावना उदय होना और परिस्थितियां बाध्य करना - ये दोनों होने से घटना होता है। संभावना यदि उदय नहीं होता तो परिस्थितियों के आगे मनुष्य हताश हो सकता है, निराश हो सकता है। मैंने जब शुरू किया था तो धरती की यह परिस्थिति हो गयी है, यह अज्ञात था। साथ ही सम्भावना भी शून्य था। आज परिस्थिति ज्ञात है - धरती बीमार हो गयी है। अध्ययन पूर्वक जागृत होने की सम्भावना भी उदय हो गयी है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
ज्ञान को समझाने के लिए "शिक्षा विधि" के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उपदेश विधि से ज्ञान को समझाया नहीं जा सकता। शिक्षा और व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ती होने के आशय में व्यापक की चर्चा है, पारगामीयता की चर्चा है, पारगामीयता के प्रयोजन की चर्चा है।
पारगामीयता का प्रयोजन है - जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता, और चैतन्य-प्रकृति में ज्ञान-सम्पन्नता। जड़ प्रकृति में ऊर्जा-सम्पन्नता प्रमाणित है - कार्य-ऊर्जा के रूप में। मानव में ज्ञान-सम्पन्नता प्रमाणित होना अभी शेष है। जड़-परमाणु स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील है - बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के! उसी तरह चैतन्य-परमाणु (जीवन) को भी स्वयं-स्फूर्त क्रियाशील होना है। जीवन परमाणु के स्वयं-स्फूर्त काम करने के लिए मानव ही जिम्मेदार है, और कोई जिम्मेदार नहीं है। मानव से अधिक और प्रगटन नहीं है, अभी तक तो इतना ही देखा गया है। मानव समाधान पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही समाधान पूर्वक जीना बनता है। मानव न्याय पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही न्याय पूर्वक जीना बनता है। मानव सत्य पूर्वक जीना चाहता है - और संज्ञानीयता पूर्वक ही सत्य पूर्वक जीना बनता है। संज्ञानीयता पूर्वक ही हर मनुष्य न्याय, समाधान (धर्म), और सत्य को फलवती बनाता है।
न्याय, धर्म, और सत्य मनुष्य की कल्पनाशीलता के तृप्ति-बिंदु का प्रगटन है। कल्पनाशीलता चैतन्य-इकाई के व्यापक में भीगे रहने का फलन है।
व्यापक-वस्तु ही ज्ञान स्वरूप में मनुष्य को प्राप्त है। ज्ञान अलग से कोई चीज नहीं है। ज्ञान को जलाया नहीं जा सकता, न तोडा जा सकता है, न बर्बाद किया जा सकता है। ज्ञान अपने में अछूता रहता है। ज्ञान को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। ज्ञान-संपन्न हुआ जा सकता है।
क्रिया रूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीवों में जीव-शरीरों के अनुसार जीव-चेतना स्वरूप में ज्ञान व्यक्त होता है। जीव-शरीरों को जीवंत बनाता जीवन जीव-चेतना को ही व्यक्त कर सकता है। जीव-चेतना में शरीर को जीवन मान करके वंश-अनुशंगीय विधि से जीना होता है। मानव-शरीर ज्ञान के अनुरूप बना है। सारी पंचायत वही है! वंश-अनुशंगीय विधि से मानव जी कर सुखी हो नहीं सकता। जीवन को पहचान कर संस्कार-अनुशंगीय विधि से जी कर ही मानव सुखी हो सकता है। शरीर-संरचना समान है - चाहे काले हों, भूरे हों, गोरे हों। अब हमको तय करना है - शरीर स्वरूप में जीना है, या जीवन स्वरूप में जीना है।
इस धरती पर पहली बार जीवन का अध्ययन सामने आया है। यही मौलिक अनुसन्धान है। इससे मनुष्य-जाति के जागृत होने की सम्भावना उदय हो गयी है। परिस्थितियां भी मनुष्य को जागृत होने के लिए बाध्य कर रही हैं। सम्भावना उदय होना और परिस्थितियां बाध्य करना - ये दोनों होने से घटना होता है। संभावना यदि उदय नहीं होता तो परिस्थितियों के आगे मनुष्य हताश हो सकता है, निराश हो सकता है। मैंने जब शुरू किया था तो धरती की यह परिस्थिति हो गयी है, यह अज्ञात था। साथ ही सम्भावना भी शून्य था। आज परिस्थिति ज्ञात है - धरती बीमार हो गयी है। अध्ययन पूर्वक जागृत होने की सम्भावना भी उदय हो गयी है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Monday, June 14, 2010
संपृक्तता, क्रियाशीलता, प्रगटन-शीलता
हर परस्परता के बीच जो रिक्त-स्थली है, वही व्यापक-वस्तु है। इकाइयों के बीच अच्छी दूरी होने का प्रयोजन है - एक दूसरे की पहचान होना। पहचानने का प्रयोजन है - व्यवस्था के स्वरूप में कार्य कर पाना। इकाइयों के कार्य कर पाने का आधार है - व्यापक वस्तु में पारगामियता। व्यापक वस्तु पारगामी है, और परस्परता में पारदर्शी है।
कपड़ा पानी में भीग जाता है, पर पत्थर पानी में नहीं भीगता। पानी कपड़े में पारगामी है, पत्थर में पारगामी नहीं है। जबकि व्यापक पत्थर में, लोहे में, मिट्टी में, झाड में, अणु में, परमाणु में, परमाणु अंश में - हर वस्तु में पारगामी है। हर जड़-चैतन्य परमाणु में व्यापक पारगामी है। साम्य-ऊर्जा व्यापक रहने से पारगामियता स्वाभाविक है। पारगामियता का ज्ञान होना आवश्यक है। इस ज्ञान को अध्ययन-विधि से पूरा किया जा सकता है।
क्रिया के रूप में ही सब कुछ समझ आता है। क्रिया के बिना हम कुछ निश्चित कर ही नहीं सकते। क्रिया एक दूसरे को दिखता है, जिसके आधार पर पहचान है। जैसे - मनुष्य की क्रिया जानवरों से भिन्न है, तभी वह मनुष्य स्वरूप में पहचाना जाता है।
मनुष्य ने अब तक प्रकृति की क्रियाशीलता को पहचाना है, ऊर्जा-सम्पन्नता को पहचाना नहीं है।
प्रश्न: परस्परता में पहचान होने में व्यापक वस्तु की क्या महिमा है?
उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता वश पहचान है। व्यापक वस्तु न हो तो इकाइयों में न ऊर्जा-सम्पन्नता हो, न क्रियाशीलता हो, न परस्पर पहचान हो!
प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के व्यापक में संपृक्तता से क्या होता है?
उत्तर: चैतन्य-प्रकृति के व्यापक में भीगे रहने से कल्पनाशीलता है। मानव में ज्ञान का मूल तत्व है - कल्पना। मानव में ही ज्ञान की परिकल्पना है। कल्पना स्पष्ट होने पर ज्ञान है। कल्पना आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त रूप है। आशा, विचार, और इच्छा के सुनिश्चित स्वरूप में काम करना ही ज्ञान है। उसके पहले कल्पना रूप में रहता है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चैतन्य प्रकृति में समाई हुई प्रक्रिया है।
कल्पनाशीलता जीवन सहज अभिव्यक्ति है। कल्पनाशीलता को हम बना नहीं सकते।
प्रश्न: जीवों में भी तो जीवन है...
उत्तर: जीवों में "जीने की आशा" है - कल्पना नहीं है। जीने की आशा का भ्रूण रूप स्वेदज-संसार से ही शुरू हो जाता है। जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है। जीने की आशा जीवन में होती है, उसके अनुरूप जीव-शरीर रचना होती है। शरीर-रचना जीवन के अनुकूल न हो, तो जीवन शरीर का उपयोग कैसे करेगा?
ज्ञान के अनुरूप जीने के लिए मनुष्य-शरीर रचना का प्रगटन हुआ। ताकि ज्ञान पूर्वक जीना प्रमाणित हो। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि - सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है। सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रमाणित करने के लिए प्रगट किया।
प्रश्न: मनुष्य इतिहास में पहले कल्पना दी गयी थी - "यह सब सृष्टि किसी सर्व-शक्तिमान ईश्वर ने बनाई है।" उसी तरह आप हमको कल्पना दे रहे हैं - "वस्तुओं की क्रियाशीलता के मूल में साम्य-ऊर्जा या व्यापक है।" इनमें फर्क क्या हुआ?
उत्तर: कल्पना होता ही है। कल्पना के बिना अनुमान कैसे होगा? इस अनुमान के अनुसार आपकी कार्य-प्रणाली हो जाए। (मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव के आधार पर) सारे अनुमान संज्ञानीयता पूर्वक जीने के लिए और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को प्रमाणित करने के लिए ही बनते हैं। मानव-लक्ष्य पूरा होता है तो यह अनुमान ठीक है।
मानव की मौलिकता जीवों से अलग दिखने के लिए है - मानव लक्ष्य। मानव-लक्ष्य यदि क्रियान्वित और व्यव्हारान्वित होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित हो गयी। मानव-लक्ष्य यदि पूरा नहीं होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित नहीं हुई।
आप किसी भी कल्पना को ले आईये - उससे मानव-लक्ष्य पूरा होता है या नहीं, यह देख लीजिये!
मानव लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए ही कल्पनाशीलता है।
मानव लक्ष्य सफल होने के लिए ही अध्ययन है।
अध्ययन अभी तक मानव-इतिहास में प्रावधानित नहीं था, न ही मानव-लक्ष्य को पहचाना गया था। ऐसे में आदमी-जात धोखे में फंसेगा या नहीं? मानव धोखे में न फंसे, उद्धार हो जाए, जन्म से ही उसका रास्ता साफ़ रहे, शिक्षा और व्यवस्था सुलभ रहे - इस आशय से मध्यस्थ-दर्शन का ताना-बना प्रस्तुत किया गया है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
कपड़ा पानी में भीग जाता है, पर पत्थर पानी में नहीं भीगता। पानी कपड़े में पारगामी है, पत्थर में पारगामी नहीं है। जबकि व्यापक पत्थर में, लोहे में, मिट्टी में, झाड में, अणु में, परमाणु में, परमाणु अंश में - हर वस्तु में पारगामी है। हर जड़-चैतन्य परमाणु में व्यापक पारगामी है। साम्य-ऊर्जा व्यापक रहने से पारगामियता स्वाभाविक है। पारगामियता का ज्ञान होना आवश्यक है। इस ज्ञान को अध्ययन-विधि से पूरा किया जा सकता है।
क्रिया के रूप में ही सब कुछ समझ आता है। क्रिया के बिना हम कुछ निश्चित कर ही नहीं सकते। क्रिया एक दूसरे को दिखता है, जिसके आधार पर पहचान है। जैसे - मनुष्य की क्रिया जानवरों से भिन्न है, तभी वह मनुष्य स्वरूप में पहचाना जाता है।
मनुष्य ने अब तक प्रकृति की क्रियाशीलता को पहचाना है, ऊर्जा-सम्पन्नता को पहचाना नहीं है।
प्रश्न: परस्परता में पहचान होने में व्यापक वस्तु की क्या महिमा है?
उत्तर: ऊर्जा-सम्पन्नता वश पहचान है। व्यापक वस्तु न हो तो इकाइयों में न ऊर्जा-सम्पन्नता हो, न क्रियाशीलता हो, न परस्पर पहचान हो!
प्रश्न: चैतन्य-प्रकृति (जीवन) के व्यापक में संपृक्तता से क्या होता है?
उत्तर: चैतन्य-प्रकृति के व्यापक में भीगे रहने से कल्पनाशीलता है। मानव में ज्ञान का मूल तत्व है - कल्पना। मानव में ही ज्ञान की परिकल्पना है। कल्पना स्पष्ट होने पर ज्ञान है। कल्पना आशा, विचार, और इच्छा का संयुक्त रूप है। आशा, विचार, और इच्छा के सुनिश्चित स्वरूप में काम करना ही ज्ञान है। उसके पहले कल्पना रूप में रहता है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चैतन्य प्रकृति में समाई हुई प्रक्रिया है।
कल्पनाशीलता जीवन सहज अभिव्यक्ति है। कल्पनाशीलता को हम बना नहीं सकते।
प्रश्न: जीवों में भी तो जीवन है...
उत्तर: जीवों में "जीने की आशा" है - कल्पना नहीं है। जीने की आशा का भ्रूण रूप स्वेदज-संसार से ही शुरू हो जाता है। जीने की आशा के अनुरूप शरीर-रचना विकसित होता गया - इससे यह बात समझ आता है। जीने की आशा जीवन में होती है, उसके अनुरूप जीव-शरीर रचना होती है। शरीर-रचना जीवन के अनुकूल न हो, तो जीवन शरीर का उपयोग कैसे करेगा?
ज्ञान के अनुरूप जीने के लिए मनुष्य-शरीर रचना का प्रगटन हुआ। ताकि ज्ञान पूर्वक जीना प्रमाणित हो। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि - सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है। सह-अस्तित्व अपने प्रतिरूप को प्रमाणित करने के लिए प्रगट किया।
प्रश्न: मनुष्य इतिहास में पहले कल्पना दी गयी थी - "यह सब सृष्टि किसी सर्व-शक्तिमान ईश्वर ने बनाई है।" उसी तरह आप हमको कल्पना दे रहे हैं - "वस्तुओं की क्रियाशीलता के मूल में साम्य-ऊर्जा या व्यापक है।" इनमें फर्क क्या हुआ?
उत्तर: कल्पना होता ही है। कल्पना के बिना अनुमान कैसे होगा? इस अनुमान के अनुसार आपकी कार्य-प्रणाली हो जाए। (मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव के आधार पर) सारे अनुमान संज्ञानीयता पूर्वक जीने के लिए और मानव-लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को प्रमाणित करने के लिए ही बनते हैं। मानव-लक्ष्य पूरा होता है तो यह अनुमान ठीक है।
मानव की मौलिकता जीवों से अलग दिखने के लिए है - मानव लक्ष्य। मानव-लक्ष्य यदि क्रियान्वित और व्यव्हारान्वित होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित हो गयी। मानव-लक्ष्य यदि पूरा नहीं होता है तो मानव की मौलिकता प्रमाणित नहीं हुई।
आप किसी भी कल्पना को ले आईये - उससे मानव-लक्ष्य पूरा होता है या नहीं, यह देख लीजिये!
मानव लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए ही कल्पनाशीलता है।
मानव लक्ष्य सफल होने के लिए ही अध्ययन है।
अध्ययन अभी तक मानव-इतिहास में प्रावधानित नहीं था, न ही मानव-लक्ष्य को पहचाना गया था। ऐसे में आदमी-जात धोखे में फंसेगा या नहीं? मानव धोखे में न फंसे, उद्धार हो जाए, जन्म से ही उसका रास्ता साफ़ रहे, शिक्षा और व्यवस्था सुलभ रहे - इस आशय से मध्यस्थ-दर्शन का ताना-बना प्रस्तुत किया गया है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Sunday, June 13, 2010
साक्षात्कार
साक्षात्कार पक्का होने पर अनुभव होता ही है। अनुमान में हमको टिकना पड़ता है। तदाकार होने पर अनुमान में टिकना होता है। तदाकार होने के लिए हर मानव में कल्पनाशीलता पूंजी के रूप में है। अपनी पूंजी को ही उपयोग करना है। इसमें उधार-बाजी कुछ नहीं है! साक्षात्कार में अनुमान पक्का होता है। उससे पहले अनुमान पक्का नहीं होता, गलती होने की सम्भावना बनी रहती है।
सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना है। उसके लिए चारों अवस्थाओं के बारे में स्पष्ट होना है - और कुछ भी नहीं है। शब्द से इंगित अर्थ स्वरूप में वस्तु को पहचानना है।
इसमें देर लगने का पहला कारण है - तर्क! कल्पनाशीलता को तर्क में न फंसा कर वस्तु से तदाकार होने में लगाने से साक्षात्कार हो जाता है।
देर लगने का दूसरा कारण है - पिछला जो पढ़ा है, उसके साथ जोड़ने का प्रयास करना।
अध्ययन पूर्वक सह-अस्तित्व के लिए अनुमान बन ही जाता है। साक्षात्कार में अनुमान पक्का होता है। जिसके फलस्वरूप अनुभव होता ही है। अनुभव में विस्तार नहीं होता। अनुभव को प्रमाणित करने जाते हैं तो रेशा-रेशा स्पष्ट होता जाता है। हम पहले रेशे-रेशे के बारे में स्पष्ट होना चाहें तो उसमें अटक जाते हैं। अनुभव के बाद जैसा जिज्ञासा होता है, हम वैसे व्यक्त हो जाते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना है। उसके लिए चारों अवस्थाओं के बारे में स्पष्ट होना है - और कुछ भी नहीं है। शब्द से इंगित अर्थ स्वरूप में वस्तु को पहचानना है।
इसमें देर लगने का पहला कारण है - तर्क! कल्पनाशीलता को तर्क में न फंसा कर वस्तु से तदाकार होने में लगाने से साक्षात्कार हो जाता है।
देर लगने का दूसरा कारण है - पिछला जो पढ़ा है, उसके साथ जोड़ने का प्रयास करना।
अध्ययन पूर्वक सह-अस्तित्व के लिए अनुमान बन ही जाता है। साक्षात्कार में अनुमान पक्का होता है। जिसके फलस्वरूप अनुभव होता ही है। अनुभव में विस्तार नहीं होता। अनुभव को प्रमाणित करने जाते हैं तो रेशा-रेशा स्पष्ट होता जाता है। हम पहले रेशे-रेशे के बारे में स्पष्ट होना चाहें तो उसमें अटक जाते हैं। अनुभव के बाद जैसा जिज्ञासा होता है, हम वैसे व्यक्त हो जाते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उपयोगिता और आवश्यकता
उपयोगिता वस्तु के साथ है।
आवश्यकता मनुष्य के साथ है।
मनुष्य की (भौतिक) आवश्यकता कम हो जाने से उस भौतिक वस्तु की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। जैसे एक कौर रोटी खाने के बाद, और खाने की आवश्यकता कम हो जाती है। आप के एक कौर रोटी खाने के बाद रोटी की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। वस्तु की गलती नहीं है। मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं समय अनुसार कम और ज्यादा होती हैं। वस्तु की उपयोगिता का मूल्याँकन व्यवस्था के अर्थ में है, न कि मनुष्य की परिवर्तनशील भौतिक-आवश्यकता के अर्थ में।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
आवश्यकता मनुष्य के साथ है।
मनुष्य की (भौतिक) आवश्यकता कम हो जाने से उस भौतिक वस्तु की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। जैसे एक कौर रोटी खाने के बाद, और खाने की आवश्यकता कम हो जाती है। आप के एक कौर रोटी खाने के बाद रोटी की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। वस्तु की गलती नहीं है। मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं समय अनुसार कम और ज्यादा होती हैं। वस्तु की उपयोगिता का मूल्याँकन व्यवस्था के अर्थ में है, न कि मनुष्य की परिवर्तनशील भौतिक-आवश्यकता के अर्थ में।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Thursday, June 10, 2010
प्रयोजन और कार्य
प्रश्न: सत्ता में सम्पृक्तता वश चुम्बकीय-बल संपन्न परमाणु-अंश एक दूसरे से आ कर जुड़ क्यों नहीं जाते? "क्यों" वे निश्चित-अच्छी दूरी के रूप में व्यवस्था बनाए रखते हैं?
उत्तर: व्यवस्था प्रयोजन के अर्थ में ही दो परमाणु-अंश जुड़ते हैं। दो परमाणु-अंश अच्छी निश्चित दूरी को बनाए रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि अनेक प्रजाति के परमाणुओं को बनना है। अनेक प्रजाति के परमाणुओं के बिना रासायनिक क्रिया ही नहीं होगा। व्यवस्था प्रयोजन के अर्थ में ही परमाणु-अंश निश्चित अच्छी दूरी बनाए रखते हैं।
प्रश्न: "कैसे" निश्चित अच्छी दूरी बनाए रखते हैं?
उत्तर: परमाणु-अंश घूर्णन गति द्वारा अपना प्रभाव-क्षेत्र बनाए रखते हैं। अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखते हुए, दूसरे परमाणु-अंश के साथ जुड़ कर काम करते हैं। घूर्णन गति के प्रभाव वश वे एक सीमा से अधिक पास आ नहीं सकते। इस तरह परमाणु-अंश का वर्चस्व बना रहता है। दो परमाणु-अंशों के साथ होने पर उनका स्वतंत्रता समाप्त नहीं हो जाता।
अस्तित्व का प्रयोजन है - चारों अवस्थाओं की निरंतरता प्रमाणित होना। अस्तित्व की हर स्थिति-गति का यही प्रयोजन है।
प्रयोजन के लिए कार्य होता है।
किसी स्थिति का कार्य "कैसे" होता है, इसका उत्तर उससे आता है - अस्तित्व का प्रयोजन (उस स्थिति के) किस कार्य से सिद्ध होगा?
जैसे - परमाणु-अंश यदि अच्छी निश्चित दूरी में रह कर कार्य नहीं करेंगे तो चारों अवस्थाओं की निरंतरता प्रमाणित होने का प्रयोजन सिद्ध ही नहीं होगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: व्यवस्था प्रयोजन के अर्थ में ही दो परमाणु-अंश जुड़ते हैं। दो परमाणु-अंश अच्छी निश्चित दूरी को बनाए रखते हुए कार्य करते हैं, क्योंकि अनेक प्रजाति के परमाणुओं को बनना है। अनेक प्रजाति के परमाणुओं के बिना रासायनिक क्रिया ही नहीं होगा। व्यवस्था प्रयोजन के अर्थ में ही परमाणु-अंश निश्चित अच्छी दूरी बनाए रखते हैं।
प्रश्न: "कैसे" निश्चित अच्छी दूरी बनाए रखते हैं?
उत्तर: परमाणु-अंश घूर्णन गति द्वारा अपना प्रभाव-क्षेत्र बनाए रखते हैं। अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखते हुए, दूसरे परमाणु-अंश के साथ जुड़ कर काम करते हैं। घूर्णन गति के प्रभाव वश वे एक सीमा से अधिक पास आ नहीं सकते। इस तरह परमाणु-अंश का वर्चस्व बना रहता है। दो परमाणु-अंशों के साथ होने पर उनका स्वतंत्रता समाप्त नहीं हो जाता।
अस्तित्व का प्रयोजन है - चारों अवस्थाओं की निरंतरता प्रमाणित होना। अस्तित्व की हर स्थिति-गति का यही प्रयोजन है।
प्रयोजन के लिए कार्य होता है।
किसी स्थिति का कार्य "कैसे" होता है, इसका उत्तर उससे आता है - अस्तित्व का प्रयोजन (उस स्थिति के) किस कार्य से सिद्ध होगा?
जैसे - परमाणु-अंश यदि अच्छी निश्चित दूरी में रह कर कार्य नहीं करेंगे तो चारों अवस्थाओं की निरंतरता प्रमाणित होने का प्रयोजन सिद्ध ही नहीं होगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Sunday, June 6, 2010
अनुसन्धान और अध्ययन - भाग २
जब किसी को अनुभव होगा तो मुझे जैसा हुआ, वैसा ही होगा - चाहे समाधि-संयम विधि से हो, या अध्ययन-विधि से हो। इसी आधार पर "समझदारी में समानता" की बात मैंने सोचा। मैं जो समझा हूँ, और जैसे जीता हूँ - इसको समझ कर आप मुझसे कम नहीं, मुझसे ज्यादा अच्छे ही जियोगे। आगे की पीढी आगे! ऐसा आपके साथ ही होगा, दूसरे के साथ नहीं - ऐसा नहीं है। सबके साथ ऐसा ही है! एक अपंग व्यक्ति के साथ भी यही स्थिति है। इसी लिए, इस बात के लोकव्यापीकरण की तृषा में हम अभी काम कर रहे हैं।
प्रश्न: अनुभव के बाद क्या और कुछ जानने को शेष रहता है?
उत्तर: नहीं। अनुभव के बाद समझने को "नया" कुछ शेष नहीं रहता।
प्रश्न: क्या अनुभव के बाद, उदाहरण के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने के बारे में जो मैं जानना चाहता हूँ, वह भी प्राप्त हो जाएगा?
उत्तर: नहीं। वह कला है, जो "सीखने" की वस्तु है। कला अनुभव की वस्तु नहीं है। कला कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने के अर्थ में है। सीखने में प्रयोग करना पड़ेगा। रासायनिक-भौतिक संसार संबंधी सभी ज्ञान-अर्जन के लिए प्रयोग आवश्यक है। कर्म-अभ्यास उसी का नाम है, जिसके अनेक आयाम हैं। उदाहरण के लिए - गाय की सेवा करना कर्म-अभ्यास है, कृषि करना कर्म-अभ्यास है, औषधियों को पहचानना और बनाना कर्म-अभ्यास है। अनुभव के बाद हर कला को जल्दी सीखा जा सकता है।
प्रश्न: अनुभव पूर्वक जल्दी कैसे सीखा जा सकता है?
उत्तर: अनुभव की रोशनी में जल्दी सीखा जाता है, क्योंकि हमारा मन फंसा नहीं रहता। भय-प्रलोभन या सुविधा-संग्रह में मन फंसा नहीं रहता, इस कारण अनुभव पूर्वक जल्दी सीखा जाता है।
कर्म-अभ्यास को अनुभव से न जोड़ा जाए! कर्म-अभ्यास पुरुषार्थ की सीमा में है। मैंने अनुभव किया है, पर मैं सभी आयामों में कर्म-अभ्यास संपन्न हूँ - ऐसा नहीं है। मैं जिन आयामों में कर्म-अभ्यास करना चाहता हूँ, वह कर सकता हूँ - ऐसा अधिकार बना है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर यह अधिकार बना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
प्रश्न: अनुभव के बाद क्या और कुछ जानने को शेष रहता है?
उत्तर: नहीं। अनुभव के बाद समझने को "नया" कुछ शेष नहीं रहता।
प्रश्न: क्या अनुभव के बाद, उदाहरण के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने के बारे में जो मैं जानना चाहता हूँ, वह भी प्राप्त हो जाएगा?
उत्तर: नहीं। वह कला है, जो "सीखने" की वस्तु है। कला अनुभव की वस्तु नहीं है। कला कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने के अर्थ में है। सीखने में प्रयोग करना पड़ेगा। रासायनिक-भौतिक संसार संबंधी सभी ज्ञान-अर्जन के लिए प्रयोग आवश्यक है। कर्म-अभ्यास उसी का नाम है, जिसके अनेक आयाम हैं। उदाहरण के लिए - गाय की सेवा करना कर्म-अभ्यास है, कृषि करना कर्म-अभ्यास है, औषधियों को पहचानना और बनाना कर्म-अभ्यास है। अनुभव के बाद हर कला को जल्दी सीखा जा सकता है।
प्रश्न: अनुभव पूर्वक जल्दी कैसे सीखा जा सकता है?
उत्तर: अनुभव की रोशनी में जल्दी सीखा जाता है, क्योंकि हमारा मन फंसा नहीं रहता। भय-प्रलोभन या सुविधा-संग्रह में मन फंसा नहीं रहता, इस कारण अनुभव पूर्वक जल्दी सीखा जाता है।
कर्म-अभ्यास को अनुभव से न जोड़ा जाए! कर्म-अभ्यास पुरुषार्थ की सीमा में है। मैंने अनुभव किया है, पर मैं सभी आयामों में कर्म-अभ्यास संपन्न हूँ - ऐसा नहीं है। मैं जिन आयामों में कर्म-अभ्यास करना चाहता हूँ, वह कर सकता हूँ - ऐसा अधिकार बना है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर यह अधिकार बना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Friday, June 4, 2010
अनुसन्धान और अध्ययन - भाग १
प्रश्न: अनुसन्धान पूर्वक आपके समझने की प्रक्रिया और अध्ययन पूर्वक हमारे समझने की प्रक्रिया में क्या भेद है?
उत्तर: प्रक्रिया तो दोनों में अध्ययन ही है। मैंने सीधा प्रकृति में अध्ययन किया। आप प्रकृति में जिसने अध्ययन करके अनुभव किया, उसका अनुकरण करके अध्ययन कर रहे हैं।
प्रश्न: आप जो शब्दों द्वारा प्रस्तुत करते हैं, उसके साथ हम अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके "अर्थ" स्वरूप में वस्तु को पाने का प्रयास कर रहे हैं। आपके अध्ययन में शब्द तो नहीं था?
उत्तर: मुझे भी वैसे ही अध्ययन हुआ है। जो भी गति या दृश्य हम देखते हैं, वह पहले शब्द में ही परिवर्तित होता है। जो दृश्य को मैंने देखा उसका नामकरण किया। नामकरण करते हुए मैंने दृश्य के रूप में अर्थ को स्वीकार लिया। ऐसा मेरे साथ हुआ। आपके पास कल्पनाशीलता है, जिससे आप उस अर्थ तक पहुँच ही सकते हैं।
साक्षात्कार पूर्वक अर्थ बोध होना, अर्थ-बोध होने के बाद अनुभव होना, फिर अनुभव-प्रमाण बोध होना, फिर प्रमाण को संप्रेषित करना - यह परमार्थ है। पुरुषार्थ साक्षात्कार तक ही है।
प्रश्न: क्या आपने प्रकृति की एक-एक वस्तु के बारे में सोचा, फिर अध्ययन किया?
उत्तर: नहीं। प्रकृति अपने आप से जो प्रस्तुत हुई उसी का मैंने अध्ययन किया। जैसे - मैंने पत्थर को नहीं सोचा था। पत्थर स्वयं सामने आया और बिखर गया। बिखरते-बिखरते स्वायत्त विधि से काम करता हुआ दिखा। उसको मैंने "परमाणु" नाम दिया। फिर जैसे पत्ता आया। पत्ता विघटित होते-होते प्राण-कोषा तक को दिखा दिया।
प्रश्न: ऐसे कैसे देखा? आपने "देखा" शब्द का प्रयोग किया। "देखने" का क्या मतलब है?
उत्तर: देखने का तरीका ऐसा पारदर्शी बन जाता है कि दिख जाता है। जीवंत शरीर के साथ मुझ में ये स्वीकृतियां हुई, इसलिए मैंने "देखा" शब्द प्रयोग किया। देखने का मतलब समझना है। समझा नहीं, तो देखा नहीं है।
इस तरह देखने के लिए मेरा "अपेक्षा" कुछ नहीं था। अपने आप से हुआ।
प्रश्न: आपमें देखने का अपेक्षा न होते हुए भी देखना कैसे बना? बिना अपेक्षा के "देखने वाले" का क्या अर्थ हुआ?
उत्तर: "देखने वाला" जीवन (मैं) ही था। इसमें रहस्य कुछ भी नहीं है। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह जिज्ञासा मुझ में पहले से था ही। उसके उत्तर में यह स्वयं-स्फूर्त घटित हुआ। मेरी जिज्ञासा के आधार पर यह अध्ययन हुआ।
आप जो मुझ से अध्ययन करते हैं - उसमें अपेक्षा भी है, जिज्ञासा भी है, ध्वनि भी है, भाषा भी है।
प्रश्न: आपके अध्ययन में जिज्ञासा बना रहा, पर आपने अपनी कल्पनाशीलता को दिशा नहीं दिया...
उत्तर: हाँ। मेरी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता मेरी जिज्ञासा के लिए समाहित हो गया। इसी का नाम है चित्त-वृत्तियाँ निरोध होना। चित्त-वृत्तियाँ निरोध होने के बाद यह अध्ययन हुआ है। समाधि में चित्त वृत्तियाँ निरोध होता है। समाधि के बिना संयम नहीं होता। आज भी यदि कोई संयम में अध्ययन करना चाहते हैं तो उसी मार्ग पर चलना होगा। दूसरा तरीका है - आप यह मानें "प्रकृति किसी को यह समझ दे दिया"। प्रकृति-प्रदत्त यह वस्तु अध्ययन-गम्य है या नहीं है, सच्चाई है या नहीं? - इसको आप शोध करें! यदि आप यह मानें "प्रकृति नहीं दिया" - तो आप पहले जिस तरीके से रह रहे हैं, वैसे ही रहिये! वह रास्ता तो आपके लिए रखा ही है।
जीवन में जिज्ञासा, जिज्ञासा के साथ जीवन द्वारा प्रयास, प्रयास के फलन में प्रकृति द्वारा उत्तर। इस तरह मैंने इस बात को पाया। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह तीव्र जिज्ञासा जीवन (मुझ) में था, जिसकी आपूर्ति के लिए यह सब हुआ।
प्रश्न: तो आपकी जिज्ञासा मूल में रही, साधना से आपकी पारदर्शीयता पूर्वक देखने की स्थिति बनी, और प्रकृति आपके सम्मुख प्रस्तुत हुई, जिसका आपने अध्ययन किया। क्या ऐसा है?
उत्तर: हाँ। मुझको भी पहले साक्षात्कार, फिर बोध,फिर अनुभव हुआ। अनुभव होने के बाद मैंने उसे सम्पूर्ण मानव-जाति का सम्पदा माना। ऐसा सोच कर इसको मानव के हाथ में सौंपने का कोशिश किया। जैसे-जैसे यह किया, इस काम के लिए परिस्थितयां और अनुकूल होता गया। इसको भी मैं प्रकृति का देन और मानव का पुण्य मानता हूँ।
प्रश्न: तो आपमें जो घटा उसको आपने नाम दिया। यह जो घटा यह "साक्षात्कार" है। यह जो घटा यह "बोध" है। क्या ऐसे हुआ?
उत्तर: हाँ - वही है। जो घटा - उसी का नामकरण मैंने किया।
प्रश्न: क्या यह भी आपको दिखा - "यह घटना जीवन-परमाणु के इस परिवेश में हो रही है"।
उत्तर: हाँ। जीवन-ज्ञान के बाद ही यह (साक्षात्कार, बोध, अनुभव) घटित हुआ था। जीवन-ज्ञान के बाद घटित होने से - किसमें क्या होता है, यह स्पष्ट होता गया। यही मैंने दर्शन में लिखा भी है। मैंने जो लिखा है, वह वेदों के reference से नहीं है। वेदों में जो बताया गया है, यह वह नहीं है। वेदों में जीवन (गठन पूर्ण परमाणु) की चर्चा नहीं है।
साक्षात्कार, बोध, अनुभव होने पर प्रमाण को मैं लिखा हूँ। उस प्रमाण से आपको बोध होना है, अनुभव होना है, पुनः प्रमाण होना है। ऐसे एक से दुसरे में अंतरित होने की बात होती है। यदि हम दुसरे को समझा नहीं पाते हैं, तो हमारी समझ का प्रमाण कहाँ हुआ?
प्रश्न: क्या आपकी साधना विधि और हमारी अध्ययन विधि का फल एक ही है?
उत्तर: मेरी साधना विधि वाला पुरुषार्थ कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता है। सभी जो कर सकते हैं - उस अध्ययन-विधि को मैंने प्रस्तुत किया है। साधना विधि और अध्ययन-विधि का फल एक ही है। साधना विधि से "ज्यादा" अनुभव होता हो, अध्ययन-विधि से "कम" अनुभव होता हो - वह भी नहीं है। अनुभव के बाद आपको भी वैसा ही दिखेगा, जैसा मुझे दिखता है। यह वैसे ही है - लोटे से भी पानी लाया जा सकता है, घड़े से भी पानी लाया जा सकता है। साधना-विधि से पाना है तो उसी पर चल के देखो। अध्ययन-विधि से पाना है तो उस पर चल कर देखो।
प्रकृति जैसा है, वैसा मेरे सम्मुख प्रस्तुत हुआ
अब प्रकृति जैसा है, वैसा आपको अध्ययन कराने के लिए मैंने प्रस्तुत किया है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: प्रक्रिया तो दोनों में अध्ययन ही है। मैंने सीधा प्रकृति में अध्ययन किया। आप प्रकृति में जिसने अध्ययन करके अनुभव किया, उसका अनुकरण करके अध्ययन कर रहे हैं।
प्रश्न: आप जो शब्दों द्वारा प्रस्तुत करते हैं, उसके साथ हम अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करके "अर्थ" स्वरूप में वस्तु को पाने का प्रयास कर रहे हैं। आपके अध्ययन में शब्द तो नहीं था?
उत्तर: मुझे भी वैसे ही अध्ययन हुआ है। जो भी गति या दृश्य हम देखते हैं, वह पहले शब्द में ही परिवर्तित होता है। जो दृश्य को मैंने देखा उसका नामकरण किया। नामकरण करते हुए मैंने दृश्य के रूप में अर्थ को स्वीकार लिया। ऐसा मेरे साथ हुआ। आपके पास कल्पनाशीलता है, जिससे आप उस अर्थ तक पहुँच ही सकते हैं।
साक्षात्कार पूर्वक अर्थ बोध होना, अर्थ-बोध होने के बाद अनुभव होना, फिर अनुभव-प्रमाण बोध होना, फिर प्रमाण को संप्रेषित करना - यह परमार्थ है। पुरुषार्थ साक्षात्कार तक ही है।
प्रश्न: क्या आपने प्रकृति की एक-एक वस्तु के बारे में सोचा, फिर अध्ययन किया?
उत्तर: नहीं। प्रकृति अपने आप से जो प्रस्तुत हुई उसी का मैंने अध्ययन किया। जैसे - मैंने पत्थर को नहीं सोचा था। पत्थर स्वयं सामने आया और बिखर गया। बिखरते-बिखरते स्वायत्त विधि से काम करता हुआ दिखा। उसको मैंने "परमाणु" नाम दिया। फिर जैसे पत्ता आया। पत्ता विघटित होते-होते प्राण-कोषा तक को दिखा दिया।
प्रश्न: ऐसे कैसे देखा? आपने "देखा" शब्द का प्रयोग किया। "देखने" का क्या मतलब है?
उत्तर: देखने का तरीका ऐसा पारदर्शी बन जाता है कि दिख जाता है। जीवंत शरीर के साथ मुझ में ये स्वीकृतियां हुई, इसलिए मैंने "देखा" शब्द प्रयोग किया। देखने का मतलब समझना है। समझा नहीं, तो देखा नहीं है।
इस तरह देखने के लिए मेरा "अपेक्षा" कुछ नहीं था। अपने आप से हुआ।
प्रश्न: आपमें देखने का अपेक्षा न होते हुए भी देखना कैसे बना? बिना अपेक्षा के "देखने वाले" का क्या अर्थ हुआ?
उत्तर: "देखने वाला" जीवन (मैं) ही था। इसमें रहस्य कुछ भी नहीं है। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह जिज्ञासा मुझ में पहले से था ही। उसके उत्तर में यह स्वयं-स्फूर्त घटित हुआ। मेरी जिज्ञासा के आधार पर यह अध्ययन हुआ।
आप जो मुझ से अध्ययन करते हैं - उसमें अपेक्षा भी है, जिज्ञासा भी है, ध्वनि भी है, भाषा भी है।
प्रश्न: आपके अध्ययन में जिज्ञासा बना रहा, पर आपने अपनी कल्पनाशीलता को दिशा नहीं दिया...
उत्तर: हाँ। मेरी कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता मेरी जिज्ञासा के लिए समाहित हो गया। इसी का नाम है चित्त-वृत्तियाँ निरोध होना। चित्त-वृत्तियाँ निरोध होने के बाद यह अध्ययन हुआ है। समाधि में चित्त वृत्तियाँ निरोध होता है। समाधि के बिना संयम नहीं होता। आज भी यदि कोई संयम में अध्ययन करना चाहते हैं तो उसी मार्ग पर चलना होगा। दूसरा तरीका है - आप यह मानें "प्रकृति किसी को यह समझ दे दिया"। प्रकृति-प्रदत्त यह वस्तु अध्ययन-गम्य है या नहीं है, सच्चाई है या नहीं? - इसको आप शोध करें! यदि आप यह मानें "प्रकृति नहीं दिया" - तो आप पहले जिस तरीके से रह रहे हैं, वैसे ही रहिये! वह रास्ता तो आपके लिए रखा ही है।
जीवन में जिज्ञासा, जिज्ञासा के साथ जीवन द्वारा प्रयास, प्रयास के फलन में प्रकृति द्वारा उत्तर। इस तरह मैंने इस बात को पाया। "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह तीव्र जिज्ञासा जीवन (मुझ) में था, जिसकी आपूर्ति के लिए यह सब हुआ।
प्रश्न: तो आपकी जिज्ञासा मूल में रही, साधना से आपकी पारदर्शीयता पूर्वक देखने की स्थिति बनी, और प्रकृति आपके सम्मुख प्रस्तुत हुई, जिसका आपने अध्ययन किया। क्या ऐसा है?
उत्तर: हाँ। मुझको भी पहले साक्षात्कार, फिर बोध,फिर अनुभव हुआ। अनुभव होने के बाद मैंने उसे सम्पूर्ण मानव-जाति का सम्पदा माना। ऐसा सोच कर इसको मानव के हाथ में सौंपने का कोशिश किया। जैसे-जैसे यह किया, इस काम के लिए परिस्थितयां और अनुकूल होता गया। इसको भी मैं प्रकृति का देन और मानव का पुण्य मानता हूँ।
प्रश्न: तो आपमें जो घटा उसको आपने नाम दिया। यह जो घटा यह "साक्षात्कार" है। यह जो घटा यह "बोध" है। क्या ऐसे हुआ?
उत्तर: हाँ - वही है। जो घटा - उसी का नामकरण मैंने किया।
प्रश्न: क्या यह भी आपको दिखा - "यह घटना जीवन-परमाणु के इस परिवेश में हो रही है"।
उत्तर: हाँ। जीवन-ज्ञान के बाद ही यह (साक्षात्कार, बोध, अनुभव) घटित हुआ था। जीवन-ज्ञान के बाद घटित होने से - किसमें क्या होता है, यह स्पष्ट होता गया। यही मैंने दर्शन में लिखा भी है। मैंने जो लिखा है, वह वेदों के reference से नहीं है। वेदों में जो बताया गया है, यह वह नहीं है। वेदों में जीवन (गठन पूर्ण परमाणु) की चर्चा नहीं है।
साक्षात्कार, बोध, अनुभव होने पर प्रमाण को मैं लिखा हूँ। उस प्रमाण से आपको बोध होना है, अनुभव होना है, पुनः प्रमाण होना है। ऐसे एक से दुसरे में अंतरित होने की बात होती है। यदि हम दुसरे को समझा नहीं पाते हैं, तो हमारी समझ का प्रमाण कहाँ हुआ?
प्रश्न: क्या आपकी साधना विधि और हमारी अध्ययन विधि का फल एक ही है?
उत्तर: मेरी साधना विधि वाला पुरुषार्थ कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता है। सभी जो कर सकते हैं - उस अध्ययन-विधि को मैंने प्रस्तुत किया है। साधना विधि और अध्ययन-विधि का फल एक ही है। साधना विधि से "ज्यादा" अनुभव होता हो, अध्ययन-विधि से "कम" अनुभव होता हो - वह भी नहीं है। अनुभव के बाद आपको भी वैसा ही दिखेगा, जैसा मुझे दिखता है। यह वैसे ही है - लोटे से भी पानी लाया जा सकता है, घड़े से भी पानी लाया जा सकता है। साधना-विधि से पाना है तो उसी पर चल के देखो। अध्ययन-विधि से पाना है तो उस पर चल कर देखो।
प्रकृति जैसा है, वैसा मेरे सम्मुख प्रस्तुत हुआ
अब प्रकृति जैसा है, वैसा आपको अध्ययन कराने के लिए मैंने प्रस्तुत किया है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Thursday, June 3, 2010
समाधान का अनुकरण
प्रश्न: "समाधान का अनुकरण" से क्या आशय है?
उत्तर: शब्द या लेख के आधार पर अनुकरण - पठन के रूप में। उसके बाद अर्थ के आधार पर अनुकरण - अध्ययन के रूप में। अध्ययन के फलन में अनुभव के आधार पर स्वत्व हो जाता है। अनुकरण का विधि और प्रयोजन यही है।
वेदज्ञों के परिवार में जन्मने के बाद मैंने उनका अनुकरण किया, उनका भाषा प्रयोग किया, उसके बाद उसके अर्थ में गया। अर्थ में गया तो सारा वितंडावाद हो गया। अनुभव तो दूर रह गया! इस कष्ट को मिटाने के लिए अनुसन्धान किया, जिससे मध्यस्थ-दर्शन उपलब्ध हुआ।
अब मध्यस्थ-दर्शन में पठन, अध्ययन, और अनुभव का क्रम सध गया। अनुभव-मूलक विधि से जीने वाले का अनुकरण करने से शब्द के अर्थ में जाना बन जाता है। शब्द के अर्थ में जाने के बाद अनुभव में जीना बन जाता है। अनुभव में जीना बनता है तो प्रमाण होता ही है।
अध्ययन को छोड़ कर केवल अनुकरण करने से कुछ समय तक तृप्ति है, पर तृप्ति की निरंतरता नहीं बनती। यही अध्ययन और अनुभव की आवश्यकता है।
सूचना को दोहराने से अर्थ की ओर ध्यान जाता ही है। अर्थ को जब शोध करते हैं तो अपना स्वत्व होने की जगह में पहुँच ही जाते हैं। अध्ययन को आत्मसात करने की विधि है - अनुकरण।
प्रश्न: "सूचना को दोहराना" अकेले में या परस्परता में?
उत्तर: किसी के साथ हम बोलते ही हैं। किसी के साथ हम शब्दों को बोले नहीं, ऐसा कोई आदमी होता नहीं है। एक गूंगा भी दूसरों के साथ अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। अभिव्यक्ति अध्ययन-क्रम में सबसे सशक्त भाग है। पहले पढ़ कर विचारों का आदान-प्रदान करके अच्छा लगता है। फिर उससे यह निकलता ही है - इसको समझ के जीना कितना अच्छा लगेगा? हर मनुष्य में कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता है, इसलिए यह स्वयं-स्फूर्त होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: शब्द या लेख के आधार पर अनुकरण - पठन के रूप में। उसके बाद अर्थ के आधार पर अनुकरण - अध्ययन के रूप में। अध्ययन के फलन में अनुभव के आधार पर स्वत्व हो जाता है। अनुकरण का विधि और प्रयोजन यही है।
वेदज्ञों के परिवार में जन्मने के बाद मैंने उनका अनुकरण किया, उनका भाषा प्रयोग किया, उसके बाद उसके अर्थ में गया। अर्थ में गया तो सारा वितंडावाद हो गया। अनुभव तो दूर रह गया! इस कष्ट को मिटाने के लिए अनुसन्धान किया, जिससे मध्यस्थ-दर्शन उपलब्ध हुआ।
अब मध्यस्थ-दर्शन में पठन, अध्ययन, और अनुभव का क्रम सध गया। अनुभव-मूलक विधि से जीने वाले का अनुकरण करने से शब्द के अर्थ में जाना बन जाता है। शब्द के अर्थ में जाने के बाद अनुभव में जीना बन जाता है। अनुभव में जीना बनता है तो प्रमाण होता ही है।
अध्ययन को छोड़ कर केवल अनुकरण करने से कुछ समय तक तृप्ति है, पर तृप्ति की निरंतरता नहीं बनती। यही अध्ययन और अनुभव की आवश्यकता है।
सूचना को दोहराने से अर्थ की ओर ध्यान जाता ही है। अर्थ को जब शोध करते हैं तो अपना स्वत्व होने की जगह में पहुँच ही जाते हैं। अध्ययन को आत्मसात करने की विधि है - अनुकरण।
प्रश्न: "सूचना को दोहराना" अकेले में या परस्परता में?
उत्तर: किसी के साथ हम बोलते ही हैं। किसी के साथ हम शब्दों को बोले नहीं, ऐसा कोई आदमी होता नहीं है। एक गूंगा भी दूसरों के साथ अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। अभिव्यक्ति अध्ययन-क्रम में सबसे सशक्त भाग है। पहले पढ़ कर विचारों का आदान-प्रदान करके अच्छा लगता है। फिर उससे यह निकलता ही है - इसको समझ के जीना कितना अच्छा लगेगा? हर मनुष्य में कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता है, इसलिए यह स्वयं-स्फूर्त होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
जड़ और चैतन्य
जैसे हम घर का उपयोग करते हैं, वैसे अपने शरीर का उपयोग भी करते हैं। जीते हैं, जीवन में ही। शरीर को छोड़ कर भी जीते हैं, शरीर के साथ भी जीते हैं। शरीर के साथ जीते हुए जागृति-विधि से ही जीना है। जागृति सहअस्तित्व विधि से ही होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
सह-अस्तित्व का प्रतिरूप
व्यवस्था का साक्षात्कार नहीं होगा तो व्यवस्था में हम जियेंगे कैसे? व्यवस्था के अर्थ में यदि अस्तित्व को समझते हैं तो व्यवस्था के अर्थ में जीना बनता है। व्यवस्था के अर्थ में ही जड़ और चैतन्य है। वह व्यवस्था सह-अस्तित्व ही है। अनुभव होने के बाद मानव सह-अस्तित्व के प्रतिरूप स्वरूप में कार्य करता है। सह-अस्तित्व के प्रतिरूप का मतलब - चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित स्वरूप में जीना। मनुष्येत्तर प्रकृति पहले से ही संतुलित है। मानव का संतुलित होना अनुभव मूलक विधि से ही संभव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
चुम्बकीयता
प्रश्न: चुम्बकीयता क्या है?
उत्तर: रासायनिक-भौतिक संसार तक ही चुम्बकीयता की बात है। हर जड़-इकाई में आकर्षण और विकर्षण के सम्मिलित-स्वरूप को चुम्बकीयता कहा है। आकर्षण-विकर्षण के आधार पर ही संगठन-विघटन होता है। भौतिक-रासायनिक संसार में व्यवस्था के अर्थ में ही आकर्षण और विकर्षण है।
भ्रमित चैतन्य प्रकृति में वही चुम्बकीयता भय और प्रलोभन के स्वरूप में कार्य कर रहा है।
व्यापक (मूल ऊर्जा) में भीगे रहने के आधार पर रासायनिक-भौतिक वस्तु द्वारा चुम्बकीयता की अभिव्यक्ति है। मूल ऊर्जा सम्पन्नता वश जड़-प्रकृति में जो चेष्टा होती है, उसी से श्रम, गति, परिणाम होता है। श्रम, गति, परिणाम होने से पुनः कार्य-ऊर्जा प्रगट होती है। कार्य-ऊर्जा का आंकलन और गणना प्रचलित-विज्ञान ने भी किया है। सम्पूर्ण प्रकृति का प्रगटन श्रम, गति, परिणाम के आधार पर है। परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, और गति का गंतव्य ही विकास और जागृति का आधार है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
उत्तर: रासायनिक-भौतिक संसार तक ही चुम्बकीयता की बात है। हर जड़-इकाई में आकर्षण और विकर्षण के सम्मिलित-स्वरूप को चुम्बकीयता कहा है। आकर्षण-विकर्षण के आधार पर ही संगठन-विघटन होता है। भौतिक-रासायनिक संसार में व्यवस्था के अर्थ में ही आकर्षण और विकर्षण है।
भ्रमित चैतन्य प्रकृति में वही चुम्बकीयता भय और प्रलोभन के स्वरूप में कार्य कर रहा है।
व्यापक (मूल ऊर्जा) में भीगे रहने के आधार पर रासायनिक-भौतिक वस्तु द्वारा चुम्बकीयता की अभिव्यक्ति है। मूल ऊर्जा सम्पन्नता वश जड़-प्रकृति में जो चेष्टा होती है, उसी से श्रम, गति, परिणाम होता है। श्रम, गति, परिणाम होने से पुनः कार्य-ऊर्जा प्रगट होती है। कार्य-ऊर्जा का आंकलन और गणना प्रचलित-विज्ञान ने भी किया है। सम्पूर्ण प्रकृति का प्रगटन श्रम, गति, परिणाम के आधार पर है। परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, और गति का गंतव्य ही विकास और जागृति का आधार है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Wednesday, June 2, 2010
कल्पनाशीलता, अनुभव, और प्रमाण
जीव चेतना में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता के लिए प्रावधानित है। अभी तक मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता का यही प्रयोग किया है। इसी कल्पनाशीलता के चलते मनुष्य ने एक झोपडी से लेकर आज २७५ मंजिल का इमारत तक बना दिया।
प्रश्न: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का क्या स्वरूप रहता है?
उत्तर: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु समाधान स्वरूप में रहता है। फलस्वरूप समाधान स्वरूप में मनुष्य अपने सारे कार्यक्रम को व्यवस्थित करता है।
प्रश्न: बोध और अनुभव में क्या दूरी है?
उत्तर: दूरी कुछ नहीं है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। क्रमिक रूप से साक्षात्कार हो कर बोध होता है। साक्षात्कार-बोध क्रम में अनुकरण रूप में आचरण संयत होने लगता है।
यह सब सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में होता है, हो रहा है, और होता ही रहेगा - यह अनुभव की महिमा है। अनुभव के बिना ऐसा कहना बनता नहीं है। अनुभव से ही प्रमाण होता है। अनुभव का ही प्रमाण होता है। अनुभव मूलक विधि से जीने पर हम प्रमाण के अधिकारी बनते हैं, जिससे न्याय-धर्म-सत्य जीने में प्रमाणित होता है।
प्रमाणित होने की सीमा है - अध्ययन से लेकर अनुभव तक। प्रमाणित होने का मतलब है - दूसरे को अपने जैसे समझा देना। इसी तरह अनुभव एक से अनेक में अंतरित होता है। यदि अनुभव एक से दूसरे में अंतरित नहीं हो सकता तो ऐसे अनुभव का मतलब ही क्या है? दूसरे व्यक्ति में हमारे अध्ययन कराने से अनुभव होने पर हम प्रमाणित हुए।
प्रश्न: जीवन क्रियाएं परमाण्विक स्वरूप में हैं, यह कब पता चलता है?
उत्तर: आत्मा में अनुभव क्रिया होती है। इसी तरह जीवन के चार परिवेशों में जो क्रियाएं होती हैं, उनकी सूचना आपको मिल गयी है। अब हम क्या कर रहे हैं? - इसको हम शोध कर सकते हैं। शोध करने पर हम जैसा बताया है, वैसा ही पाते हैं। क्रिया जो ही रही है, उसी का शोध करना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
प्रश्न: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का क्या स्वरूप रहता है?
उत्तर: मानव-चेतना में कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु समाधान स्वरूप में रहता है। फलस्वरूप समाधान स्वरूप में मनुष्य अपने सारे कार्यक्रम को व्यवस्थित करता है।
प्रश्न: बोध और अनुभव में क्या दूरी है?
उत्तर: दूरी कुछ नहीं है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। क्रमिक रूप से साक्षात्कार हो कर बोध होता है। साक्षात्कार-बोध क्रम में अनुकरण रूप में आचरण संयत होने लगता है।
यह सब सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में होता है, हो रहा है, और होता ही रहेगा - यह अनुभव की महिमा है। अनुभव के बिना ऐसा कहना बनता नहीं है। अनुभव से ही प्रमाण होता है। अनुभव का ही प्रमाण होता है। अनुभव मूलक विधि से जीने पर हम प्रमाण के अधिकारी बनते हैं, जिससे न्याय-धर्म-सत्य जीने में प्रमाणित होता है।
प्रमाणित होने की सीमा है - अध्ययन से लेकर अनुभव तक। प्रमाणित होने का मतलब है - दूसरे को अपने जैसे समझा देना। इसी तरह अनुभव एक से अनेक में अंतरित होता है। यदि अनुभव एक से दूसरे में अंतरित नहीं हो सकता तो ऐसे अनुभव का मतलब ही क्या है? दूसरे व्यक्ति में हमारे अध्ययन कराने से अनुभव होने पर हम प्रमाणित हुए।
प्रश्न: जीवन क्रियाएं परमाण्विक स्वरूप में हैं, यह कब पता चलता है?
उत्तर: आत्मा में अनुभव क्रिया होती है। इसी तरह जीवन के चार परिवेशों में जो क्रियाएं होती हैं, उनकी सूचना आपको मिल गयी है। अब हम क्या कर रहे हैं? - इसको हम शोध कर सकते हैं। शोध करने पर हम जैसा बताया है, वैसा ही पाते हैं। क्रिया जो ही रही है, उसी का शोध करना है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०१०, अमरकंटक)
Tuesday, June 1, 2010
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