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Friday, December 5, 2008

अध्ययन-क्रम में अपना मूल्यांकन

अध्ययन-क्रम में जीवन की ४.५ क्रियाएं १० क्रियाओं को पूरा करने के पक्ष में रहती हैं। अध्ययन पूरा करने के बाद ही दसों क्रियाओं का प्रमाण हो पाता है।

प्रश्न: अध्ययन करते समय स्वयं को ४.५ क्रिया में माने या उससे अधिक?

कहाँ मान सकते हैं ४.५ से अधिक? यही कह सकते हैं - ४.५ क्रिया से जो प्रयोजन था, वह पूरा होता जा रहा है। साड़े चार क्रिया पूर्वक आप भ्रमित पहले जी रहे थे। वहाँ आपको अनुमान हुआ - ऐसे जीना पर्याप्त नहीं है। उसके बाद आपको दसों क्रियायें चालित करने का स्त्रोत मध्यस्थ-दर्शन के रूप में मिल गया। उसके अध्ययन में आप लग गए। अध्ययन-क्रम में आपको लगा कुछ भाग आपको बोध हो गया है, कुछ बोध होना शेष है। तब तक आपके जीवन की ४.५ क्रियाओं का समर्पण १० क्रियाओं के लिए हो गया कि नहीं? इससे ४.५ क्रिया से उत्थान की ओर गति हुई। उत्थान हो गया तब मानेंगे जब दसों क्रियायें प्रमाणित हुआ।

अध्ययन-क्रम में ४.५ क्रियायें १० क्रियाओं को पूरा करने के लिए समर्पित रहती हैं। गुणात्मक परिवर्तन के लिए समर्पित होना जिज्ञासा के आधार पर आता है। जिज्ञासा कैसे आया? जीव-चेतना में जीने से जो धक्के खा रहे हैं - उससे आया! जीव-चेतना में जीने से असहमति स्वयं में होने के बाद "सही क्या है?" - इसके लिए स्वयं में जिज्ञासा उदय होती है। सही का अध्ययन करते हुए हमको जितना संतुष्टि मिलती है उसको हम तत्काल प्रकाशित करते ही हैं। इस ढंग से हैं - अपने (जीवन विद्या) परिवार में सभी आज। यह ग़लत नहीं हुआ। इससे उपकार यह हुआ - संसार में इस प्रस्ताव की एक ध्वनी तो पहुँचने लगी! लोगों के ध्यान-आकर्षण के लिए यह ध्वनी पहुंचना जरूरी था।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

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