मानव को चारों अवस्थाओं के साथ संतुलित रहने के लिए आवश्यक नियम है - "जीने दो, जियो"।
ज्ञान-अवस्था (मनुष्य) के साथ सम्बन्ध में "जीने देने" का मतलब है - न्याय। न्याय पूर्वक ही मानव संबंधों में संतुलन प्रमाणित होता है। न्याय का मतलब है - मानव संबंधों में प्रयोजनों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, और उभय-तृप्ति। इस तरह जीने देने पर ही मनुष्य अपने जीने का प्रमाण प्रस्तुत कर पाता है।
जीव-अवस्था के साथ सम्बन्ध में "जीने देने" का मतलब है - जीवों के "जीने की चाहना" धर्म के प्रमाणित होने में पूरक होना, उसमें हस्तक्षेप नहीं करना।
वनस्पति-संसार, रसायन-संसार, और भौतिक संसार के साथ सम्बन्ध में "जीने देने" का मतलब है - उनको "रहने देना"। उनकी प्राकृतिक व्यवस्था में पूरक होना।
इसके विपरीत भौतिकवाद का प्रतिपादन है - "अति बलवान को ही जीने का अधिकार है।" (survival of the fittest।) मतलब - सबको खा पी कर हज़म करो! मध्यस्थ-दर्शन के "जीने दो, जियो" और भौतिकवाद के इस प्रतिपादन में कितना दूरी है? - आप ही तय करो! आप मेरे कहने पर कुछ करो - ऐसा मैं नहीं कहता हूँ। मैं केवल अपराध-मुक्त जीने का रास्ता बताता हूँ। आपको अपराध में ही जीना है तो उसका तो पूरा दूकान ही खुला है! धरती बीमार होने से यह बात तो उजागर हो गयी है कि धरती के साथ मनुष्य द्वारा ज्यादती हुई है। यह तो अब layman को भी पता चल गया है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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