मनुष्य जाति की वैचारिक-फंसावट दो जगह है।
(१) शरीर को जीवन मान लेना
(२) रहस्यमय आस्था
शरीर को जीवन मान लेने से शरीर से होने वाली संवेदनाओं को राजी रखने के लिए भौतिक साधनों की होड़ शुरू हो जाती है। जीवन की अक्षय अपेक्षाएं सामयिक शरीर-संवेदनाओं से पूरी हो नहीं सकती - चाहे कितने भी भौतिक साधन इकठ्ठा कर लें। शरीर को जीवन मान लेने से सुविधा-संग्रह ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु मिलता नहीं है। किसी एक व्यक्ति को भी नहीं मिला, न आगे किसी को मिलने की सम्भावना है। यही भौतिकवाद की वैचारिक फंसावट है। इसका निदान यही है - शरीर को शरीर जाना-माना जाए, जीवन को जीवन जाना-माना जाए। शरीर जीवन का साधन है।
रहस्यमय आस्था का मतलब है - बिना जानते हुए मान लेना। रहस्य का पूजा करो! आस्था करो! शास्त्र में जो लिखा है - वह मान लो! आज्ञापालन, उपदेश, भाषण को मान लो! आस्था के आधार पर जीना आज भी जन-सामान्य को सुविधा-संग्रह के बनिस्पत ज्यादा अच्छा लगता है। लेकिन अच्छा लगने मात्र से अच्छा हुआ नहीं। आस्था का प्रमाणीकरण नहीं हुआ। हम आस्था ही करते रह गए। यही आदर्श-वाद की वैचारिक फंसावट है। इसका निदान है - माने हुए को जान लो, जाने हुए को मान लो। बिना जाने हुए मान लेना रूढी है। जान कर मानते हुए जीना प्रमाण है।
मध्यस्थ-दर्शन भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों के विकल्प के स्वरूप में प्रस्तुत हुआ है। इसमें प्रस्तावित है:
समझदारी से समाधान
श्रम से समृद्धि
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
(१) शरीर को जीवन मान लेना
(२) रहस्यमय आस्था
शरीर को जीवन मान लेने से शरीर से होने वाली संवेदनाओं को राजी रखने के लिए भौतिक साधनों की होड़ शुरू हो जाती है। जीवन की अक्षय अपेक्षाएं सामयिक शरीर-संवेदनाओं से पूरी हो नहीं सकती - चाहे कितने भी भौतिक साधन इकठ्ठा कर लें। शरीर को जीवन मान लेने से सुविधा-संग्रह ही जीवन का लक्ष्य बन जाता है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु मिलता नहीं है। किसी एक व्यक्ति को भी नहीं मिला, न आगे किसी को मिलने की सम्भावना है। यही भौतिकवाद की वैचारिक फंसावट है। इसका निदान यही है - शरीर को शरीर जाना-माना जाए, जीवन को जीवन जाना-माना जाए। शरीर जीवन का साधन है।
रहस्यमय आस्था का मतलब है - बिना जानते हुए मान लेना। रहस्य का पूजा करो! आस्था करो! शास्त्र में जो लिखा है - वह मान लो! आज्ञापालन, उपदेश, भाषण को मान लो! आस्था के आधार पर जीना आज भी जन-सामान्य को सुविधा-संग्रह के बनिस्पत ज्यादा अच्छा लगता है। लेकिन अच्छा लगने मात्र से अच्छा हुआ नहीं। आस्था का प्रमाणीकरण नहीं हुआ। हम आस्था ही करते रह गए। यही आदर्श-वाद की वैचारिक फंसावट है। इसका निदान है - माने हुए को जान लो, जाने हुए को मान लो। बिना जाने हुए मान लेना रूढी है। जान कर मानते हुए जीना प्रमाण है।
मध्यस्थ-दर्शन भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों के विकल्प के स्वरूप में प्रस्तुत हुआ है। इसमें प्रस्तावित है:
समझदारी से समाधान
श्रम से समृद्धि
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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