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Thursday, December 18, 2008

अध्ययन का महत्त्व और अध्ययन की वस्तु - सम्मलेन २००५, मसूरी


अध्ययन के मुद्दे पर जो मैंने अनुभव किया है - अक्षर, शब्दों, वाक्यों को पढ़ना अध्ययन नहीं है। यह पूरा का पूरा "पठन" ही कहलाया। मैंने ऐसे परिवार में शरीर यात्रा शुरू की, जिसमें लाखों वैदिक ऋचाओं को मुखस्थ कर, वापस बोल कर दिखाए हैं। लाखों ऋचाओं को! इससे ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता। ये सब करने के बावजूद इससे हम सर्व-मानव के शुभ के लिए एक सूत्र भी प्रस्तुत नहीं कर पाये। इसी कष्ट को मिटाने के लिए मैंने ५० वर्ष अपना सारा प्रयत्न किया। थोड़ा समय इसमें जरूर लगाए - ५० वर्ष मैंने इसमें लगाया! इन ५० वर्ष का जो अनुभव है, वह मैं आप के सामने रखने जा रहा हूँ।

हर शब्द का अर्थ होता है - किसी भी भाषा में हो! संसार में अनेक भाषाएँ तैयार हुआ है। संसार की सभी भाषाओँ के मूल में अर्थ निकालने जाएँ तो यही है कि - "सत्य भासना चाहिए"। सच्चाई दूसरों तक पहुंचना चाहिए। दूसरों के अन्तःकरण में सच्चाई प्रवेश होना चाहिए। यह बात "भाषा" के अर्थ में हमको इंगित होता है। यह अपेक्षा सब में है। कोई भाषा मैं आपसे सुनूंगा तो कोई सच्चाई मुझे मालूम होगा - ऐसा मेरी अपेक्षा है। मुझसे कोई दूसरा भाषा सुनेगा तो उसकी भी यही अपेक्षा होगी कि कोई सच्चाई मुझसे उसको सुनने को मिलेगा। यह बात सबमें समान है। इसी आधार पर सारे वेदों की रचना हुई। तीनो वेद सच्चाई को बताने के लिए प्रतिज्ञा लिया। सच्चाई के बारे में अंत में बताया कि सच्चाई अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है। अनिर्वचनीय मतलब - शब्दों से जिसको बताया नहीं जा सकता। यह मेरे कष्ट का कारण हुआ। और सबके लिए यह कष्ट का कारण हुआ या नहीं - यह मैं नहीं कह सकता। मेरे लिए यह तकलीफ का कारण हुआ। सत्य भी हो, सच्चाई भी हो - पर अव्यक्त भी हो, अनिर्वचनीय भी हो - तो बाकी वचनीय क्या हुआ? इस तरह - वचनीय सब मिथ्या हो गया? इसी तकलीफ को दूर करने के लिए मैंने प्रयत्न किया।

उस प्रयत्न में मैं अपने को सफल मानता हूँ।

मेरे सफल हो जाने मात्र से यह सबके लिए सफल होगा या नहीं होगा - इस बात को मैं आज नहीं कह सकता। मैं जो अनुभव किया हूँ उसको मैं विनय ही कर सकता हूँ। उसको समझना हर व्यक्ति की जिम्मेवारी है। और उस जिम्मेवारी के साथ रखी है - स्वतंत्रता। चाहे समझें, या न समझें। किंतु इस बात की मुझ में स्वीकृति है - मैंने जो पता लगाया है उसमें सच्चाई को बांस पे चढ़ कर, चिल्ला कर बोला जा सकता है - अच्छे से! और सच्चाई एक से दूसरे को समझ में आयेगी! ऐसा मेरा विश्वास है। यहाँ से मैं शुरू किया हूँ।

इसी आधार पर अध्ययन के मुद्दे पर आपको इंगित करना चाहा - "हर शब्द का अर्थ होता है।" वह अर्थ शब्द नहीं है। अर्थ मनुष्य को समझ में आता है। दूसरे किसी को समझ में आएगा नहीं। पत्थर को हम बोलेंगे - वह समझेगा नहीं। शब्द का प्रभाव पत्थर पर भी होता है। वनस्पतियों पर भी होता है। जानवरों पर भी होता है। मनुष्य पर भी होता है। मनुष्य पर होने के बाद उसका अर्थ खोजने की इच्छा मनुष्य में बनी हुई है। हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रभावशील है। आज पैदा हुए बच्चे में भी, और कल मर जाने वाले बुड्ढे में भी यह प्रभावशील है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता - इसी के आधार पर हर मनुष्य में कहे गए शब्द के अर्थ तक पहुँचने की इच्छा बनी हुई है। यही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अध्ययन कराने का स्त्रोत है। सर्वप्रथम मनुष्य में अध्ययन करने का स्त्रोत बना है कि नहीं यह सोचना मेरा दायित्व था। उसमें पता लगा - हर व्यक्ति में यह पूंजी रखी हुई है। क्या पूंजी? कुछ भी सुनेगा तो पूछेगा - इसका मतलब क्या है? इस ओर जाने का अधिकार सबमें रखा है। सर्व-मानव में रखी हुई इस कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता की पूंजी को समझ करके ही मैंने अध्ययन होने पर विश्वास किया।

"सह-अस्तित्व परम सत्य है।" - जैसे यह अध्ययन का एक मुद्दा है। "परम सत्य" का मतलब क्या होता है? सत्य वही है जो निरंतर और एक सा बना रहता है। होने के रूप में व्यापक है और अनंत एक-एक वस्तुएं हैं। कभी भी व्यापक वस्तु से एक-एक वस्तुएं अलग-अलग हो नहीं सकते। अलग होने की सम्भावना नहीं है। अलग होने का तौर-तरीका अस्तित्व में नहीं है। प्राकृतिक रूप में भी नहीं है, और अप्राकृतिक रूप में जो मनुष्य प्रयत्न करता है, वैसे भी नहीं है। न हों सकता है, न अभी तक हुआ है। इस तरह मनुष्य सह-अस्तित्व को परम-सत्य के स्वरूप में समझ कर, सह-अस्तित्व में व्यवस्था को पहचानता है। मनुष्य ने जितनी भी सह-अस्तित्व विरोधी कार्य किया, स्वयं समस्या में फंस गया।

समस्या में फँसना मनुष्य के दुःख का कारण हुआ। इसके लिए अध्ययन के लिए सूत्र दिया:

समस्या = दुःख
समाधान = सुख = मानव धर्म

दुःख से पीड़ा होता है। पीड़ित व्यक्ति स्वयं में स्वस्थ रहता नहीं है, दूसरों का उपकार तो स्वप्न में भी नहीं। पीड़ित आदमी केवल दूसरों के लिए परेशानी पैदा करेगा। और कुछ नहीं करेगा। यह आप को भी समझ में आता है, मुझ को भी समझ में आता है।

यह समझने के बाद हम अनुमान कर सकते हैं - "स्वस्थ आदमी स्वयम भी स्वस्थ रहता है, दूसरों को स्वस्थता देने का प्रयत्न भी करता है।" भले ही यह आज संसार में प्रचलित न हों, हम इस बात को अनुमान रूप में तो स्वीकार कर ही सकते हैं। स्वस्थ आदमी स्वयं स्वस्थ रहता है, और संसार को स्वस्थ करने के लिए हाथ-पैर मारता ही है - चाहे सफल हों, या असफल हों! आज तक के "अच्छे" आदमीयों के हाथ-पैर मारने को मैंने इस रूप में निकाल लिया। बहुत अच्छे आदमी संसार को उपकार करने के लिए कहीं न कहीं कोशिश किया है। इन कोशिशों में कोई कमी नहीं, उन पर कोई शंका नहीं, कोई कृपणता नहीं - पर सफलता का आंकलन करने जाते हैं, तो हमको पता लगता है - ये सफल नहीं हों पाये। क्यों सफल नहीं हों पाये, यह पूछने पर पता चलता है - "उपकार क्या है?" यह ध्रुवीकृत नहीं हुआ।

अभी हम जो अध्ययन करते हैं - उसमें पहले यह ध्रुवीकृत होता है कि उपकार क्या है? समझे हुए को समझाना है - पहला उपकार। सीखे हुए को सिखाना है - दूसरा उपकार। किए हुए को कराना है - तीसरा उपकार। इसमें से सीखने-सिखाने और करने-कराने के बारे में आदमी बहुत कुछ किया है। पर समझने-समझाने का भाग अधूरा रह गया। इसका कारण यह रहा - वैदिक विचार से लेकर भौतिकवादी विचार तक हम यह मान कर चले हैं कि "करके समझो!" इस बात को अच्छी तरह से ह्रदय में बैठाने की बात है - क्योंकि यह मूल मुद्दा है। मनुष्य-जाति आदि काल से "करके समझो" विधि से चला है। जबकि मानव-जाति में करके समझना नहीं होता। जीव-जानवरों में करके चलने की बात होती है। करके जीव-जानवर समझते नहीं हैं, केवल चलते हैं। हर काम को पीछे जीव (वंश) में जैसे किया था, वैसे ही करके चलता है। मनुष्य को जब "करके समझो" कहा गया - तो उससे करके करना ही बना, समझना नहीं बना। सीखे हुए से केवल सीखा हुआ ही रहा - समझ कोई उससे पैदा हुई नहीं। किए हुए से करता ही रहा - समझ उससे कोई पैदा हुई नहीं।

"समझ" क्या चीज है - यह अभी तक (मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान से पहले) ध्रुवीकृत नहीं हुआ।

"समझ" क्या चीज है? - इसका उत्तर मध्यस्थ-दर्शन से ६ बिन्दुओं में है।

नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य।

पूरा समझ इन ६ बिन्दुओं से इंगित है। इससे अधिक समझ हो नहीं सकती, इससे कम में आदमी उपकारी तो नहीं होगा। इसको मैंने अच्छी तरह से जाँचा है, जी कर देखा है। आदमी को इन ६ मुद्दों में पारंगत होने की आवश्यकता है। इसी का नाम है - अध्ययन।

नियम एक वास्तविकता है। नियंत्रण एक वास्तविकता है। संतुलन एक वास्तविकता है। न्याय एक वास्तविकता है। धर्म एक वास्तविकता है। सत्य एक वास्तविकता है।

इन वास्तविकताओं के बारे में हमें पूरा अध्ययन होना, उसमें पारंगत होना, और प्रमाणित होना - ये तीन स्थितियां हैं। मानव जाति जब कभी भी इस को समझने तक पहुंचेगा, हम समुदाय चेतना में जियेंगे नहीं! मानव चेतना में ही जियेंगे। समुदाय चेतना जीव-चेतना को इंगित करता है। मानव-चेतना सार्वभौम-चेतना को इंगित करता है। इस तरह - जब कभी भी ये ६ बातें हमको समझ में आ जाती हैं, हम सार्वभौम चेतना में जीने लायक हो जाते हैं। इन्ही ६ बातों को समझाने के लिए मेरा सारा प्रयत्न है।

इन ६ बातों को समझाने के लिए ५ सूत्र दिए।

(१) सहअस्तित्व
(२) सहअस्तित्व में विकास-क्रम
(३) सहअस्तित्व में विकास
(४) सहअस्तित्व में जागृति-क्रम
(५) सहअस्तित्व में जागृति

जब मैं इन पाँच सूत्रों को समझाने गया तो मेरे मित्र लोगों ने कहा - यह किसी को समझ नहीं आएगा, इसका विस्तृत रूप में व्याख्या करना होगा। सूत्रित करना होगा। तब उसको दर्शन, विचार (वाद), और शास्त्र रूप में व्यक्त किए।

तो कुल मिला कर ६ बिन्दुओं को समझना है। समझ गए हैं - इसका क्या प्रमाण होगा?

समझा पाना ही समझे होने का प्रमाण है। यदि समझा नहीं पाते हैं, तो आपके समझे होने का कोई प्रमाण नहीं है।

अध्ययन की महिमा है - वास्तविकता को समझना, सत्यता को समझना, यथार्थता को समझना।

कोई भी वस्तु जिसे इकाई के रूप में आदमी पहचान सकता है - उसमें चार बातें निहित हैं। रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म। इकाइयों के बीच में खाली स्थली को हम व्यापक रूप में पहचानते हैं। व्यापकता उसकी महिमा है ही, उसके साथ पारगामियता और पारदर्शिता महिमा को मैंने देखा। जैसे - आप और हम यहाँ बैठे हैं, यह व्यापक वस्तु का स्थली है। इसमें हम घिरे भी हैं, डूबे भी हैं। इसमें भीगे भी हैं - इसका प्रमाण है, हमारे में ऊर्जा-सम्पन्नता बनी हुई है। मैं बात कर रहा हूँ, यह मेरे ऊर्जा-संपन्न होने का प्रमाण है। मैं जीवित दीखता हूँ - यह मेरे ऊर्जा-सम्पन्नता का प्रमाण है। इस तरह हम सभी ऊर्जा-संपन्न हैं - इस बात को हम स्वीकार सकते हैं।

यह ऊर्जा (व्यापक) ही मनुष्य के द्वारा ज्ञान है। समझ है। समझ के साथ ही मनुष्य ऊर्जा-संपन्न है। मनुष्य का अपने आकार में होना भर पर्याप्त नहीं है। मनुष्य का ज्ञान से संपन्न होने पर ही उसके ऊर्जा संपन्न होने का प्रमाण है। सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान में जब हम पारंगत हो जाते हैं - तब हम ज्ञान-संपन्न हैं। उसी का एक भाग है - जीवन। जीवन-ज्ञान में जब हम पारंगत हो जाते हैं - तब हम ज्ञान-संपन्न हैं। उसी का एक भाग है - मानवीयता पूर्ण आचरण। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में जब हम पारंगत हो जाते हैं - तब हम ज्ञान संपन्न हुए। इस प्रकार ज्ञान स्थिति से लेकर व्यवहार तक छू गया। ज्ञान के ये तीन आयाम हैं। तीनो आयामों में जब हम पारंगत हो जाते हैं, प्रमाण हो जाते हैं - तब हम ज्ञान-संपन्न हुए। इन तीनो चीजों में पारंगत होने तक हम अभ्यास करेंगे। अभ्यास करने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है। हर छोटे, बड़े, बूढे के पास अभ्यास करने का अधिकार रखा है। कोई भी अभ्यास कर सकता है। ज्ञान-संपन्न होना ही मानव की महिमा है।

अध्ययन की महिमा है - ज्ञान-संपन्न होने के क्रियाकलाप में प्रमाणित होना।

समग्र अस्तित्व को पहचानना है, मनुष्य को पहचानना है - और अध्ययन करना है। समग्र अस्तित्व कैसा है - इसका अध्ययन पूरा होना। और मानव का अध्ययन पूरा होना।

मानव का अध्ययन करने पर मैं शरीर और जीवन को समझा।

मानव-शरीर रासायनिक द्रव्यों से रचित एक रचना है। रासायनिक द्रव्यों से मानव-शरीर कैसे बन गया? इसका इतिहास ऐसे बना है। सर्वप्रथम पानी एक रासायनिक वस्तु का प्रकटन हुआ। पानी में जो मूल वस्तु है - एक जलने वाला, एक जलाने वाला। ये दोनों मिल कर प्यास बुझाने वाले वस्तु हो गए। जबकि मूल दोनों वस्तुओं में यह गुण नहीं था। यह तीसरा गुण आ गया। इस तरह यह समझ में आता है - यौगिक विधि से नया गुण पैदा हो सकता है। इस प्रकार आगे अनुमान कर सकते हैं - हर योग-संयोग से किस प्रकार अनेक नयी रचनाएँ, आचरण, और गुण पैदा हो गए। इसी क्रम में उत्तरोत्तर गुणात्मक विकास होते होते मानव-शरीर का प्रकटन धरती पर हुआ।

दूसरा - जीवन। जीवन अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है। यह निरंतर एक सा ही बना रहता है। इस तृप्त परमाणु के सदा एक सा बने रहने के कारण हम जीवन को "अमर" कह सकते हैं। यही चैतन्य इकाई है। जीवन शरीर को चलाता है। जीवन के अमरत्व को पहचानना मानव-तृप्ति का स्त्रोत है।

मनुष्य को "जीव" की संज्ञा में ईश्वर-वाद भी qualify किया, और भौतिकवाद तो किया ही है। अब मनुष्य जीव है, या मनुष्य मनुष्य ही है - यह पहचानने का प्रयत्न पहली बार मैंने प्रयत्न किया। उसमें मुझे पता चला - मनुष्य ज्ञान-अवस्था की इकाई है। ज्ञान-अवस्था के मूल में क्या है? इसका उत्तर है - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता। यह सब मनुष्यों के पास है। आज पैदा हुए शिशु के भी पास है, कल मरने वाले वृद्ध के भी पास है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सभी मनुष्यों के पास होने के कारण - मनुष्य को मैंने ज्ञान-अवस्था की इकाई के रूप में पहचाना।

इसी कल्पनाशीलता के आधार पर मनुष्य सह-अस्तित्व को समझ पाता है। सह-अस्तित्व में मनुष्य को समझ पाता है। मनुष्य को जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में समझ पाता है। जीवन को गठन-पूर्ण परमाणु के स्वरूप में समझ पाता है। परमाणु में भी अनेक परमाणु-अंशों से गठित होना समझ पाता है। यह जो समझ आने लगता है - इसका नाम है अध्ययन।

समझदारी के लिए पहले सह-अस्तित्व को समझना है। सहअस्तित्व है - सत्ता में संपृक्त प्रकृति। प्रकृति दो भाग में है - जड़ और चैतन्य। जड़ प्रकृति है - पदार्थावस्था और प्राण-अवस्था। पदार्थावस्था में खनिज होते हैं, प्राण-अवस्था में वनस्पति होते हैं। ये दोनों मिल के जड़ संसार है। जीव-संसार और मनुष्य-संसार मिल कर चैतन्य संसार है। यह जड़-चैतन्य प्रकृति सत्ता में संपृक्त है।

सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति सह-अस्तित्व स्वरूप में नित्य-वर्तमान है। सदा-सदा के लिए वर्तमान है। सदा-सदा के लिए कार्यशील है, स्थितिशील है। स्थितिशील हो और गतिशील भी है - उसका नाम है "वर्तमान"। यह एक बहुत प्रमुख बात है - स्थिति में भी हो, गति में भी हो, जिसकी निरंतरता हो। उसका नाम है - सह-अस्तित्व। यह पूरा सह-अस्तित्व नित्य-वर्तमान है। अध्ययन की मूल वस्तु सहअस्तित्व ही है।

"सत्ता में संपृक्त प्रकृति" आपने सुना। सुनने पर ऐसा लगता है - समझ में आ गया! लेकिन उसके मूल में चले जाते हैं - वह समझने का मुद्दा है। जैसे, लोहा - लोहे के बारे में हम सोचने जाते हैं, उसमें रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म बना ही रहता है। इन चारों भागों को समझना - यह अध्ययन है। बेल वृक्ष आपको आँखों से दीखता है। बेल वृक्ष को देख कर उसका आप चित्र बना दिया - वह बेल वृक्ष का समझ नहीं है। बेल वृक्ष के रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को समझना अध्ययन है। इसी ढंग से हर जड़-चैतन्य वस्तु के रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म को हम यदि समझते हैं - तो हम समझदार हुए!

इतना सब कैसे समझा जाए? यह तो बड़ी भारी जटिल बात हो जायेगी? ऐसा भी एक प्रश्न बनता है। इसके लिए सिद्धांत दिया - "सिन्धु बिन्दु न्याय"। सिन्धु-बिन्दु न्याय का मतलब है - बहुत बड़ा एक समुद्र है, पर पूरे समुद्र का पानी कैसा है - वह उसके एक बिन्दु के परीक्षण करने से हम समझ सकते हैं। पदार्थ-अवस्था के एक लोहे के टुकड़े का परीक्षण करने मात्र से हम सम्पूर्ण लोहे-संसार को समझ जाते हैं। मिट्टी के एक भाग को परीक्षण करने मात्र से हम मिट्टी संसार को समझ जाते हैं। पत्थर के साथ, और मणि के साथ भी ऐसा ही है। उसी प्रकार वनस्पति संसार में भी एक पौधे का परीक्षण करने से उस पूरे संसार का परीक्षण हो गया। इसी क्रम में हम मनुष्य के अध्ययन तक पहुँचते हैं। इस ढंग से हम अपने अध्ययन को पूरा कर पाते हैं।

मेरे अनुसार - पत्थर का अध्ययन कैसे करना है, यह सब तो करीब-करीब हो चुका है। मनुष्य का अध्ययन कैसे किया जाए - वहाँ रुका हुआ है। उसके बारे में अध्ययन की वस्तु के रूप में मनुष्य है ही। बिना मनुष्य को समझे, अध्ययन किए - हम चल नहीं पायेंगे। चल नहीं पा रहे हैं। आगे नहीं चल पाने की स्थिति में हम आ चुके हैं।


गठन पूर्ण परमाणु को जीवन नाम दिया है। ऐसा जीवन जीव-शरीर को भी चलाता है, मनुष्य शरीर को भी चलाता है। मनुष्य शरीर और जीव शरीर में मौलिक अन्तर यह है - जीव-शरीर में जीवन की कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने की व्यवस्था नहीं है। मानव शरीर में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने की व्यवस्था है। यह प्रकृति प्रदत्त है। नियति प्रदत्त है। नियति का मतलब है - सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, सह-अस्तित्व में विकास, सह-अस्तित्व में जागृति-क्रम, और सह-अस्तित्व में जागृति। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रकट होना इस विधि से आया है। इसको कोई करने वाला नहीं है। ईश्वर-वादी विधि से जो बताया गया है कि "ईश्वर के करने से होता है" - वह झूठ हो गया।

ईश्वर-वादियों ने ईश्वर को ही दृष्टा, कर्ता, और भोक्ता बताया है। जबकि - ईश्वर न करता है, न भोगता है, न दृष्टा है।


व्यापक वस्तु में अनुभव करने पर मानव दृष्टा पद में आता है। मानव ही अनुभव करेगा - और कोई करने वाला है नहीं। मनुष्य के अतिरिक्त इस अस्तित्व में और कोई वस्तु नहीं है जो अनुभव करे। इसी लिए मैंने मनुष्य को ज्ञान-अवस्था में पहचाना।

समाधि की स्थिति को मैंने देखा, संयम किया, संयम काल में अध्ययन किया - अध्ययन में जड़-चैतन्य प्रकृति को व्यापक वस्तु में डूबे-भीगे-घिरे हुए देखा। अध्ययन की वस्तु सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व में ही जीवन है, शरीर है। जड़ प्रकृति है, चैतन्य प्रकृति है। हर व्यक्ति इसमें पारंगत हो सकता है। उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व वाद वांग्मय तैयार किया।

पहले सोचा था - वांग्मय तैयार न किया जाए। व्यक्ति से व्यक्ति तक ही यह जाए। फ़िर कुछ विद्वानों से परामर्श करने पर यह निकला - इस तरह, तुम्हारे रहते यह हो पायेगा - तुम्हारे शरीर के न रहने के बाद यह नहीं चलेगा। तब सूचना के रूप में सारे वांग्मय को मैंने तैयार किया। सारे वांग्मय को मैं "सूचना" ही मानता हूँ। सूचना से अधिक कोई वांग्मय नहीं है अस्तित्व में।

विगत में ऐसी कल्पना दिया है - "ईश्वर-वाणी, आकाश-वाणी, देवता-वाणी, सरस्वती जी की वीणा की वाणी, या महापुरुषों की वाणी।" ऐसा कुछ करके बहुत कुछ लिखे हैं। उनको हम "पावन ग्रन्थ" कहते हैं। वह "पावन-ग्रन्थ" स्वयं ईश्वर-वाणी होते हुए - एक ग्रन्थ में कुछ हो गया, दूसरे ग्रन्थ में कुछ और हो गया। ईश्वर इसमें अपराधी हो गया, या ग्रन्थ अपराधी हो गया - यह सोचने का मुद्दा रखा हुआ है। इसका अपने आप में बहुत बड़ा कथा है।

यदि मेरे अनुसंधान से मानव आप-हम को पहचान में आता है, तो हम एक अच्छा काम कर सकते हैं - किस परम्परा का कौनसा ग्रन्थ मानव को पहचानने के लिए कितना काम किया? इस मुद्दे पर शोध कर सकते हैं। यह आदि-काल से अभी तक के इतिहास का एक अच्छा अध्याय बन सकता है। इसमें आगे विद्वान स्वयं सोचेंगे। इसमें मेरा कोई प्रयत्न नहीं रहेगा। मेरा कथन इतना है - सभी पावन-ग्रन्थ शुभ को चाहते हुए शुरू किया, पर शुभ को व्यक्त करना नहीं बना। शुभ को व्यक्त करने के लिए व्यक्ति को संतुष्टि देने के लिए कुछ कहा भी होगा, समुदाय की आशा भी पैदा किया होगा। अभी तक इतना ही है। सारे पावन ग्रंथों का काम इतना ही है। उसमें से कुछ ग्रन्थ आक्रोश वाली बात भी करते हैं, तो कुछ अहिंसक और सहनशील होने की बात भी करते हैं। यह दोनों बातें हैं। इन दोनों तरह की बातों को लेकर आदमी चला है। उस तरह जहाँ जो पहुंचना है, पहुँचा है। ये दोनों विधियां आपको धरती पर दिखता ही है। पावन ग्रंथों के बारे में कहना इतना ही है।

इन सब पावन ग्रंथों से मुझ को क्या प्रेरणा मिली? "ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म" - इन सब नामो से जो कुछ भी कहा। "व्यापक है" - इस बात को हमको दिया। एक शब्द है यह। व्यापक वस्तु कैसा है, क्यों है? - इसको मैंने अनुसंधान किया। अनुसंधान करने पर पता चला - सर्वत्र विद्यमानता के आधार पर है व्यापक। सारी प्रकृति इस में डूबे, भीगे, घिरे रहने के कारण से यह ब्रह्म है। ब्रह्म का मतलब है - फैलने वाला। व्यापक सदा फैला जैसा दीखता है।

प्रकृति ही ब्रह्म को पहचानता है। विगत में बताये थे - ब्रह्म ही दृष्टा, कर्ता, ज्ञाता, भोक्ता है। इसमें उलटा हुआ - मनुष्य ही ज्ञाता है, कर्ता है, दृष्टा है, भोक्ता है।

एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है - "सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है।" सह-अस्तित्व को छोड़ कर हम कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पायेंगे।

जीवन जीवन के साथ बात चीत करता है। यह सच्चाई है। जीवन अकेले में कोई बात नहीं कर सकता। जीवन जीवन के साथ ही बात कर सकता है। यह भी सह-अस्तित्व के नित्य प्रभावी होने के आधार पर है।

जीवन का जागृत होना शरीर के साथ मानव परम्परा में ही हो सकता है। जीवन मानव-शरीर के बिना अपने आप को जागृत नहीं कर सकता। मानव-शरीर के लिए प्रकृति में व्यवस्था है। यह भी सह-अस्तित्व के नित्य प्रभावी होने के आधार पर है।

मानव-परम्परा के जागृत होने के लिए शिक्षा में सह-अस्तित्व को समझाने की व्यवस्था आवश्यक है। अभी के शिक्षा के स्वरूप में सह-अस्तित्व को समझाने की कोई व्यवस्था नहीं दिया गया है। इसको अच्छी तरह से सोच के निर्णय लेने की आवश्यकता है।

सह-अस्तित्व में चार अवस्थाओं को मैं समझा। पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था।

परिणाम-अनुषंगी विधि से सब पदार्थों का आचरण निश्चित और व्यवस्थित है। पत्थर , लोहा, मिटटी, मणि - इनका आचरण निश्चित है। इन चार वर्गों में पदार्थ-अवस्था को पूरा देखा जा सकता है। परिणाम के अनुसार आचरण करता हुआ पदार्थ-अवस्था "निर्दोष" है।

वनस्पति-संसार में अनेक प्रजातियाँ होती हैं। उनका आचरण निश्चित है। आम का आचरण निश्चित है। बेल का आचरण निश्चित है। धतूरे का आचरण निश्चित है। कोई ऐसा वनस्पति नहीं है - जिसके आचरण में स्खलन हो, सविप्रीत हो, वाद-विवाद हो, अव्यवस्था हो। ऐसा कुछ नहीं है - सबका आचरण निश्चित है। बीज-अनुशंगियता विधि से आचरण करता हुआ प्राण-अवस्था "निर्दोष" है।

उसी प्रकार जीवों में भी सभी आचरण निश्चित हैं। जीव-संसार वंश के अनुसार आचरण करता हुआ "निर्दोष" है।

मनुष्य में अभी आचरण निश्चित होना शेष है। सह-अस्तित्व सहज समझदारी पूर्वक ही मनुष्य का आचरण निश्चित हो सकता है।

मानवीयता पूर्ण आचरण क्या है?

मानवीयता पूर्ण आचरण मूल्य, चरित्र, और नैतिकता का संयुक्त स्वरूप है। संयुक्त अभिव्यक्ति। संयुक्त प्रकटन। संयुक्त प्रस्तुति। संयुक्त प्रमाणीकरण। इतना चीज एक साथ है।

मूल्य, चरित्र, नैतिकता को कैसे समझा जाए?

मूल्य का प्रमाण संबंधों में होता है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के रहते संबंधों को पहचानने की क्षमता, संबंधों को पहचानने की व्यवस्था राखी है। इस व्यवस्था के आधार पर ही हम संबंधों को पहचानते हैं। इसी क्रम में मनुष्य के सम्बन्ध को पत्थर से, लोहे से, वनस्पतियों से, और जीवों से पहचानते हैं। मनुष्य के साथ संबंधों के अलग-अलग नाम हो गए। मनुष्यों का सम्बन्ध एक ही स्वरूप में नहीं है। अनेक स्वरूप में है - जैसे, माता-पिता के रूप में, भाई-बहन के रूप में, गुरु-शिष्य के रूप में, पुत्र-पुत्री के रूप में। संबंधों के नाम to हम पा गए हैं। इन संबंधों के नाम के अनुसार प्रयोजनों को नहीं पहचाने। जैसे - माता-पिता के साथ सम्बन्ध का प्रयोजन है: पुष्टि -संरक्षण सहित व्यवस्था का प्रमाण। शरीर में शरीर पुष्टि, और जीवन में ज्ञान पुष्टि, विवेक पुष्टि। दोनों तरह से पुष्टि मिले, उसके बाद व्यवस्था में जीना। व्यवस्था में जीना तब हुआ - जब संबंधों को पहचाना, और मूल्यों का निर्वाह किया।

मूल्य क्या है? साम्य मूल्य है - विशवास। संबंधों की निरंतरता हम बना कर रखते हैं - तो विश्वास का हम निर्वाह किए। संबंधों को हम निरंतरता नहीं दे पाते हैं - तो विश्वास का हम निर्वाह नहीं कर पाये। अब इसका आप अपने-अपने में शोध कर सकते हैं। जिसको हमने मित्र रूप में पहचाना, क्या वह सदा-सदा मित्र रूप में रहा? जो हम माता-पिता को पहचाना - क्या सदा-सदा उसकी निरंतरता रही? भाई को जो पहचाना - क्या सदा हम भाई के साथ भाई के रूप में जी पाये? इसको निरीक्षण कर सकते हैं, परीक्षण कर सकते हैं, शोध कर सकते हैं। मध्यस्थ -दर्शन पर आधारित शिक्षा की पहली देन यही है।

संबंधों की पहचान
मूल्यों का निर्वाह
मूल्यांकन
उभय तृप्ति

इससे किसको आपत्ति है - बताइये ? ७०० करोड़ आदमी के सामने इस बात का आपत्ति होना बहुत मुश्किल है।

इसके बाद आता है - "चरित्र"। चरित्र के बारे में मैंने यह देखा है - स्व-धन, स्वनारी/स्व-पुरूष, और दया पूर्ण कार्य-व्यवहार करने से ही मानव-चरित्र है। मूल्य हैं - परिवार में जीने के लिए। चरित्र है - समाज में जीने के लिए। नैतिकता - राज्य (व्यवस्था) में जीने के लिए है।

मूल्य परिवार में जीने से सुख देता है। चरित्र समाज में जीने से सुख देता है। नैतिकता व्यवस्था में जीने से सुख देता है। जीने में समाधान होता है - इसलिए सुख होता है। मूल्य, चरित्र, नैतिकता - इन तीन चीजों को पहचानने पर हम इन तीन जगह व्यापक हो जाते हैं। विशाल हो जाते हैं। परिवार में हम सामाधानित हो जाते हैं - फलस्वरूप सुखी होते हैं। समाज में हम अखंड-समाज पूर्वक सामाधानित होते हैं - फलस्वरूप सुखी होते हैं। सार्वभौम व्यवस्था में हम समाधानित होते हैं - फलस्वरूप सुखी होते हैं।

मानवीयता पूर्ण आचरण ही क्यों? ऐसे ही क्यों जीना है? - परिवार में जीना ही है। ये सब सम्बन्ध का निर्वाह करना ही है। क्योंकि इनको छोड़ कर सुखी होने का कोई प्रमाण नहीं है। परिवार के बाद, अखंड-समाज में जीना ही है। इसी क्रम में व्यवस्था में जीना ही है।

इस शिक्षा से अभी तक मनुष्य-जाति वंचित रहा। भौतिकवादी विधि से भी मनुष्य का अध्ययन वंचित रहा। ईश्वर-वादी विधि से भी मनुष्य का अध्ययन लुप्त रहा, या सुप्त रहा।

शिक्षा की मूल वस्तु तीन हैं :
(१) सह-अस्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान का अध्ययन
(२) जीवन के स्वरूप का अध्ययन
(३) जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव, और मानव के मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन

अभी के समय में हम जिसको व्यवस्था माने जा रहे हैं - उसका स्वरूप कैसा है? इस बारे में आप को कुछ कहना चाहते हैं। अभी की पूरे विश्व में जितने भी राज्य और धर्म कहलाये जा रहे हैं - वे "शक्ति केंद्रित शासन" विधि से शासन-संविधान है। धर्म-संविधान भी शासन के ही पक्ष में है। क्या यह समझ में आता है? यह सबको समझ में आना चाहिए।

शासन के पक्ष में संविधान लिखा गया है। संविधान में शासन की मंशा के अनुसार चलने वालों को हम सुप्रजा कहते हैं। शासन की मंशा के विरुद्ध व्यक्ति को हम अपराधी मानते हैं। संविधान में अपराधियों को दंड देने का प्रावधान है। धर्म-संविधान में गलती करने वालों के लिए प्रायश्चित्त करने का प्रावधान है। इस तरह से संविधान लिखे गए हैं। इन संविधानों पर आधारित होती है - शक्ति केंद्रित शासन व्यवस्था।

"शक्ति केंद्रित" का क्या मतलब है? डंडा बजा कर अपनी बात मनवाना। उसके लिए - गलती को गलती से रोकने का प्रयास, अपराध को अपराध से रोकने का प्रयास, और युद्ध को युद्ध से रोकने का प्रयास। एक व्यक्ति अपराध करता है - उसको रोकने के लिए १० लोगों को अपराध में पारंगत बनाना होता है। हर देश में ऐसी ही व्यवस्था रखा है। अब आप बताओ - इस तरह आदमी अपराध-प्रवृत्ति के लिए तैय्यार हुआ, या न्याय के लिए? इस तरह हम फंस चुके हैं। आदमी फंसा है। आदमी को चलाने वाला आदमी भी फंसा है। यही अमानवीय कार्यक्रम है। दूसरे शब्दों में - जीव-चेतना में जीते हुए विवशता पूर्वक किया हुआ कार्यक्रम। इसमें एक चलाने वाला होता है, उसको नाम दिया "राक्षस मानव"। दूसरा चलने वाला होता है, उसको नाम दिया "पशु मानव"। राक्षस मानव चलाता है, पशु मानव चलता है। यह मेरे द्वारा लिखे हुए दर्शन का एक भाग है।

जीव चेतना से मानव-चेतना में परिवर्तित होने पर ही हम मानवीय व्यवस्था को पाते हैं। मानवीय व्यवस्था है - (१) परिवार, (२) अखंड समाज, (३) सार्वभौम व्यवस्था।

हम भय-वश ही सर्वाधिक नमन किए हैं, पूजा किए हैं, प्रार्थना किए हैं। हमारी प्रार्थनाओं में यह झलकता है। "हमारी और हमारे मित्रों की रक्षा करो, हमारे शत्रुओं का नाश करो!" - यह सब ही हमारी प्रार्थनाओं में दीखता है। इसको मैंने बहुत कुछ पढ़ कर देखा है। उससे मैं राजी नहीं हो पाया। चाहे उसका आप कोई भी कारण बता दीजिये - भय पर आधारित पूजा, नमन, पत्री मुझ को पटा नहीं! यही मूल मुद्दे के रूप में पुनर्विचार करने के लिए तत्परता, इच्छा, प्रयत्न, और प्रयत्न का सफल होना, और उसी क्रम में आज आपके सम्मुख मैं पहुँच गया।
अब आपके सम्मुख सह-अस्तित्व के अध्ययन का प्रस्ताव है।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता हर मनुष्य में सह-अस्तित्व स्वरूप से तदाकार करने की व्यवस्था है। जो प्रस्ताव से इंगित है उसमें तदाकार होने के अधिकार का जब प्रयोग होता है, तब मनुष्य समझ पाता है। अध्ययन में मन तदाकार होता है, तब हम समझ पाते हैं।

अध्ययन अनुक्रम का होता है। पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था का प्रकट होना अनुक्रम है। प्राण-अवस्था का बीज रूप पदार्थ-अवस्था में था, इसी लिए प्राण-अवस्था प्रकट हुई। उसी क्रम में जीव-अवस्था और ज्ञान-अवस्था प्रकट हुई। एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुडी होने का क्रम अनुक्रम है।

इससे निम्न सिद्धांत निकला:

अग्रिम अवस्था का बीज रूप पिछली अवस्था में रहता ही है।

यही सिद्धांत अनुक्रम का आधार है। मानव का प्रकट होने का बीज जीव-अवस्था में था, इसी लिए मानव का प्रकटन हुआ। अब मानव के प्रकट होने के बाद मानव में अनुभव होना भी अनुक्रम से ही होता है।

अनुक्रम से प्रकटन, फ़िर अनुक्रम का अनुभव।

अनुक्रम से होने वाले परम प्रमाण को अनुभव कहा है। अनुभव परम प्रमाण है।

अनुभव प्रमाण ही व्यवहार में, अनुभव प्रमाण ही प्रयोग में प्रायोजित होता है। फलस्वरूप हम समाधान पाते हैं, समृद्धि पाते हैं, और अनुभव-प्रमाण के अनुरूप जी पाते हैं। इस प्रकार हर मनुष्य अपने सौभाग्य को पहचान सकता है, स्वीकार सकता है, जी सकता है, और उपकार कर सकता है।

- जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से (२२ अक्टूबर २००५, मसूरी)

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