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Tuesday, December 23, 2008

मानवीयता पूर्ण आचरण

प्रश्न: मानवीयता पूर्ण आचरण क्यों नहीं कर पाते हैं?

उत्तर: सुविधा-संग्रह और भक्ति-विरक्ति लक्ष्य के साथ मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित नहीं हो सकता। सुविधा-संग्रह को आप लक्ष्य में रखें, और ज्ञान-विवेक-विज्ञान प्रमाणित हो जाए - ऐसा हो नहीं सकता। सुविधा-संग्रह के स्थान पर समाधान-समृद्धि लक्ष्य बना कर प्रयत्न करने से मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित हो जायेगा।

समाधान-समृद्धि लक्ष्य में से समाधान वरीय है। समाधान लक्ष्य के लिए ज्ञान-विवेक-विज्ञान को लेकर स्पष्ट होना है। ये तीनो भाग जब स्पष्टतः अध्ययन होता है - तब मानवीयता पूर्ण आचरण के प्रति विश्वास होने लगता है। आचरण के प्रति विश्वास होता है - तो हम आचरण करते ही हैं। आचरण करने लगते हैं - तो समाधान-समृद्धि की तरफ़ ही जायेंगे। मानव के अध्ययन और अस्तित्व के इस प्रस्ताव के अध्ययन पूर्वक समझ आने पर आप जीने जाते हैं तो मानवीयता पूर्ण आचरण ही होगा, समाधान-समृद्धि ही प्रमाणित होगी। समझने के बाद यही होता है।

पहले मैं भक्ति-विरक्ति के पक्ष में ही था। भक्ति-विरक्ति विधि से ही मैंने साधना किया। साधना के फल-स्वरूप जीवन समझ में आया, मानव समझ में आया, अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में समझ में आया - इस सब के अनुसार मानव के अनुरूप जीने की बात सोची - तो मानवीयता पूर्ण आचरण का ही स्वरूप निकला। अनुभव पूर्वक मैं समाधान-संपन्न तो हो चुका था - उसमें श्रम पूर्वक मैंने समृद्धि को जोड़ लिया। समाधान-संपन्न होने के बाद समृद्धि को जोड़ने के लिए मुझे बहुत दिन बरबाद नहीं करना पड़ा। इस तरह बहुत अच्छी तरह जीने की सभी परिकल्पनाएं पूरी हो गयी।

"अच्छी तरह जीने" की परिकल्पनाएं बहुत रही हैं - भक्तिवादी विधि से भी, और भौतिकवादी विधि से भी। पर "अच्छा आदमी" क्या है? - यह न भौतिकवादी विधि से तय हुआ, न भक्तिवादी विधि से हुआ। न भक्ति से, न विरक्ति से, न सुविधा से, न संग्रह से। खूब सुविधा का जुगाड़ कर लें - तो हम अच्छे हो जायेंगे, यह नहीं प्रमाणित हुआ। हम इतना संग्रह कर लें तो अच्छे आदमी हो जायेंगे - यह भी नहीं निकला। जब भक्ति-विरक्ति से नहीं निकला, तो सुविधा-संग्रह से क्या निकलना है? इन दोनों आधारों से जब कुछ उपलब्धि नहीं निकला तो मानव अपने मनमानी रास्ते बनाता रहा। मनमानी विधि से भक्ति-विरक्ति और सुविधा-संग्रह लक्ष्यों को लेकर चलता रहा। वह सार्थक नहीं हुआ। फ़िर "न्यूनतम सुविधा" और "प्राथमिक आवश्यकता" (minimum facilities, primary needs) जैसी भाषाएँ लगाने लगे। इनका कोई निश्चित आकार-प्रकार नहीं बनता। सुविधा-संग्रह का न्यूनतम और अधिकतम का कोई मतलब नहीं निकलता। जितनी सीमा बनाते हैं, उससे अधिक ही चाहिए। इस ढंग से हम भटक गए हैं।

भटके हुए को मार्ग पर लाने की विधि यही है - हम प्रयत्न करके अपनी समझदारी को पूरा करें। अध्ययन करने पर, अनुभव होने पर - समझदारी पूरा हो जाता है। अध्ययन से अनुभव का रास्ता बनता ही है। अनुभव मूलक विधि से जब हम सोचते हैं तो सर्वतोमुखी समाधान आ ही जाता है। उसके आधार पर समृद्धि को प्रमाणित करना बनता ही है। समृद्धि पूर्णतया उपकारी है। अपने बलबूते पर जब समृद्धि को पा लेते हैं - तो उपकार के अलावा कुछ और करना बनता ही नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

3 comments:

Anonymous said...

MD ke anusaar:
"Achche aadmi" ke lakshan kya hain?
Uske gun, svabhaav, dharma aur aacharan ka spasht roop mein varnan kijiye.

Rakesh Gupta said...

मानवीयता ही अच्छा-पन है. मानवीयता पूर्ण मनुष्य ही अच्छा आदमी है.

मानवीय स्वभाव - धीरता, वीरता, उदारता ही मानवीय स्वभाव है. (धीरता = न्याय में निष्ठां और दृढ़ता. वीरता = दूसरों को न्याय दिलाने में अपनी शक्तियों का नियोजन करना. उदारता = दूसरों के विकास में प्रसन्नता पूर्वक अपने तन मन धन का नियोजन उपयोगिता-सदुपयोगिता विधी से करना)

मानवीय दृष्टि - न्याय, धर्म, सत्य ही मानवीय दृष्टि है. (न्याय = संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति, मानव धर्म = समाधान = सुख, धर्म = जिससे जिसका विलगीकरण सम्भव न हो. सत्य = अस्तित्व = सह-अस्तित्व. )

मानवीय आचरण - मूल्य, चरित्र, और नैतिकता के संयुक्त स्वरूप में है.

मानवीय गुण - मानवीयता पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में प्रकाशित होते हैं. व्यक्तित्व आहार-विहार-व्यवहार का संयुक्त स्वरूप है.

Rakesh Gupta said...

अमानवीय मनुष्य का धर्म भी सुख ही है. इसी आधार पर ही हर मनुष्य में सुख की सहज-अपेक्षा है. अमानवीय और मानवीय में फर्क इतना ही है - मानवीय मनुष्य धर्म को प्रमाणित करता है. अमानवीय मनुष्य धर्म को प्रमाणित करने की योग्यता नहीं रखता है.