"विश्वास केवल सत्य में, से, के लिए होता है. अस्तित्व ही परम सत्य है, जीवन ज्ञान ही परम ज्ञान है, और मानवीयता पूर्ण आचरण ही परम आचरण है. विश्वास सहज गति स्वरूप में (या कार्य-व्यव्हार स्वरूप में) सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्याँकन, उभय तृप्ति व संतुलन ही है. सम्पूर्ण सम्बन्धों में विश्वास ही वर्तमान में सुख पाने की विधि है. निरन्तर समझदारी सहित आवश्यकताओं, उपकारों, दायित्वों में भागीदारी निर्वाह करने के क्रम में विश्वास प्रमाणित होना पाया जाता है, तथा इसी से मानव सुखी होता है. यह नित्य उत्सव के रूप में स्पष्ट है. ऐसे बहने वाले विश्वास का एक स्वाभाविक वातावरण अथवा प्रभाव बनना सहज है. फलतः तन्मयता प्रमाणित होना पाया जाता है." - श्री ए नागराज
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
ANNOUNCEMENTS
Wednesday, March 30, 2016
Tuesday, March 29, 2016
वास्तविक अपेक्षाओं का निर्धारण
"प्रलोभन दृष्टि से वास्तविक अपेक्षाओं का निर्धारण नहीं होता है. मूल्य और मूल्याँकन से ही वास्तविक अपेक्षाओं का निर्णय हो पाता है. समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ही मानव में, से, के लिए वास्तविक अपेक्षाएं हैं." - श्री ए नागराज
Monday, March 28, 2016
परम उपकार
"मानव से होने वाले समस्त कार्य व्यव्हार के मूल में विचार और विचार के मूल में समझ है. सम्पूर्ण कार्य व्यव्हार मानवीय तथा अमानवीय प्रभेद से स्पष्ट है. अमानवीय कार्य व्यव्हार के लिए अज्ञान व आवेश ही प्रधान कारण है. अज्ञान का तात्पर्य जो जैसा है उसको वैसा ही समझ पाने की योग्यता नहीं होना। बाहरी शक्तियों के प्रहार से आवेश है. इनका मुख्य कारण शिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, चरित्र की परंपरा का अभाव है. अतः इसकी स्थापना के लिए कार्य करना परम उपकार है." - श्री ए नागराज
Sunday, March 27, 2016
मूल्य एवं मूल्याँकन
"ज्ञानावस्था में वैभवित मानव में मूल्य सहित रसास्वादन की अपेक्षा जीवन में है, क्योंकि मूल्याँकन पूर्वक ही तृप्ति व उभय तृप्ति है. मूल्य एवं मूल्याँकन के अभाव में इंद्रियों से रस लेने का प्रयास होता है, जिसकी निरंतरता की सम्भावना नहीं है." - श्री ए नागराज
Saturday, March 26, 2016
स्वानुशासन पद
"मनुष्येत्तर प्रकृति में नैसर्गिक रूप में नियंत्रण निर्वाह दिखाई पड़ता है. किन्तु मनुष्य के आत्मेच्छा पूर्वक नियंत्रित होने की व्यवस्था है. नियंत्रण, अनुशासन, स्वानुशासन प्रत्येक मानव का वर होने के कारण मनुष्य आत्मेच्छा पूर्वक स्वानुशासित होने के लिए बाध्य है. अनुशासन के अनन्तर ही स्वानुशासन का अधिकार होता है. स्वानुशासन पद ही सर्वोच्च विकास है." - श्री ए नागराज
Thursday, March 24, 2016
शिक्षा में प्रावधान
"हर शिशु जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यव्हार करने का इच्छुक और सत्यवक्ता होता है. इन जिज्ञासाओं को फलीभूत करने के लिए: -
- न्याय प्रदायी क्षमता और योग्यता को स्थापित करने से न्याय सहज अपेक्षा तृप्त होती है.
- व्यव्हार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन की क्षमता योग्यता पात्रता को स्थापित करने पर सही कार्य-व्यवहार करने की इच्छा तृप्त होती है.
- सहअस्तित्व रूपी सत्य बोध से सत्य वक्ता होने की तृप्ति होती है.
Wednesday, March 23, 2016
अपव्यय एवं भोग से रहित जीवन
"अधिक साधन और अधिक स्थान को संग्रह करने के मूल में भय की पीड़ा एवं अपव्यय के आग्रह तथा भोग का रहना अनिवार्य रूप में रहना पाया जाता है. अपव्यय एवं भोग से रहित जीवन में अधिक स्थान और अधिक साधन स्वयं में पीड़ादायक सिद्ध है. साधनों के सम्पत्तिकरण की आवश्यकता तभी है जब मानव उत्पादन से अधिक उपभोग करने के लिए तत्पर हैं. उत्पादन से अधिक उपभोग अमानवीयता में ही संभव है." - श्री ए नागराज
Monday, March 21, 2016
अभ्यास
"जाने हुए को मानना और माने हुए को जानना ही अभ्यास है. अभ्यास का प्रत्यक्ष रूप निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य की चरितार्थता है. न्याय की याचना व कामना को आचरण में स्वीकारने एवं उसमें निष्ठा प्रकट करने की क्षमता ही सम्यक संस्कार है." - श्री ए नागराज
Saturday, March 19, 2016
स्वनियंत्रण अर्थात सदुपयोग
"मनुष्य अपनी शक्तियों को अपव्यय करते समय दीनता, हीनता, क्रूरता के रूप में प्रकाशित होते हैं, जो अमानवीयता का प्रत्यक्ष रूप है. मनुष्य की शक्तियों का सदुपयोग ही मानवीय स्वभाव अर्थात धीरता, वीरता, उदारता के रूप में अभिव्यक्त होता है, जो कि सामाजिक है. सदुपयोग स्वनियंत्रण पूर्वक ही सिद्ध है. इस प्रकार सामाजिकता के लिए स्वनियंत्रण अर्थात सदुपयोग अपरिहार्य सिद्ध है." - श्री ए नागराज
Friday, March 18, 2016
ब्रह्मानुभूति
"ब्रह्मानुभूति ही अभिव्यक्ति या प्रकाशन के अर्थ में प्रेम है. व्यापक सत्ता में अनुभूति योग्य क्षमता ही परम शुभ है. शुभ वश ही प्रकृति विकास की ओर प्रसवशील है. ऐसी प्रसवक्रम स्वयं नियति शुभाशय मूलतः नियंत्रण है. उपासना शुभाकांक्षा से परम शुभानुभूति योग्य क्षमता योग्यता पात्रता पर्यन्त है. इसका अवसर ज्ञानावस्था के मनुष्य में, से, के लिए सन्निहित, उदित है." - श्री ए नागराज
Wednesday, March 16, 2016
राष्ट्रीय कार्यक्रम
"सार्वभौम सामाजिकता केवल मानवीयता पूर्वक ही है. मानव जाति का सामाजिक चेतना से समृद्ध होना अनिवार्य स्थिति है. मानवीयता ही मानव का स्वभाव गुण होने के कारण इसे सर्वसुलभ बनाना ही शिक्षा व व्यवस्था का मौलिक कार्यक्रम है. इसी को सामाजिक रचनात्मक अथवा राष्ट्रीय कार्यक्रम के नाम से जाना जाता है. इसमें प्रधान तत्व मानव चेतना के उत्कर्ष के लिए उपयोगी कार्यक्रम को संपन्न करना है.
- मानव जाति समानता
- मानव धर्म समानता
- मानव स्वत्व समानता
- मानव स्वतंत्रता में समानता
- मानव अधिकार में समानता" - श्री ए नागराज
Monday, March 14, 2016
संस्कार
"मानव द्वारा लक्ष्य के अर्थ में अर्जित स्वभाव ही संस्कार है. मानव लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ही है. मानव में संस्कार ही आचरण और विचार स्वरूप में व्यक्त है." - श्री ए नागराज
Sunday, March 13, 2016
शुभेच्छा, मंगलकामना व आप्त कामना
"स्वयं की जागृतिशीलता में विश्वास व निष्ठा रखते हुए अविकसित के विकास के लिए सहानुभूति की निरंतरता ही शुभेच्छा है.
स्वयं समृद्ध एवं समाधान पूर्वक कम विकसित के समाधान व समृद्धि के लिए किया गया सहकार्य ही मंगलकामना है.
विकसित इकाई द्वारा अविकसित के पूर्ण विकास के लिए प्रेरणा सहित सहायता ही आप्त कामना है." - श्री ए नागराज
स्वयं समृद्ध एवं समाधान पूर्वक कम विकसित के समाधान व समृद्धि के लिए किया गया सहकार्य ही मंगलकामना है.
विकसित इकाई द्वारा अविकसित के पूर्ण विकास के लिए प्रेरणा सहित सहायता ही आप्त कामना है." - श्री ए नागराज
Saturday, March 12, 2016
उत्पादित वस्तु का सदुपयोग
"शिष्ट मूल्य में उत्पादन मूल्य समर्पित होने के लिए बाध्य है, क्योंकि शिष्ट मूल्य के अभाव में उत्पादित वस्तु का संयमन एवं सदुपयोग सिद्ध नहीं होता। सामाजिक मूल्य के संयोग में ही उत्पादित वस्तु का सदुपयोग सिद्ध है." - श्री ए नागराज
Friday, March 11, 2016
संचेतनशीलता
"जो जितना संचेतनशील होता है, उतना ही वह अन्य की वेदना, संवेदना, संज्ञानीयता एवं स्थितिवत्ता के संकेत ग्रहण करता है, फलतः निराकरण के लिए प्रयास करता है." - श्री ए नागराज
Wednesday, March 9, 2016
श्रम विनिमय
"श्रम नियोजन - श्रम विनिमय पद्दति से व्यक्ति को अपनी सेवा व वस्तु को दूसरी सेवा व वस्तु में परिवर्तित करने की सुविधा होती है. इस विधि में शोषण, वंचना, प्रवंचना, एवं स्तेय की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं. जिससे अपराध की संभावनाएं भी समाप्त हो जाती हैं." - श्री ए नागराज
Thursday, March 3, 2016
न्याय और विश्वास
"मूल्यों सहित संबंधों का निर्वाह ही विश्वास और उसकी निरंतरता है. विश्वास स्व-संतुष्टि का नित्य स्त्रोत, अमरस्त्रोत जीवन का अभीष्ट और गुणात्मक विकास का आधार है. न्याय का साक्ष्य विश्वास एवं विश्वास का साक्ष्य न्याय है. न्याय व विश्वास अविभाज्य वर्तमान है." - श्री ए नागराज
Wednesday, March 2, 2016
अनुकरण अनुशीलन के लिए बाध्यता
"विषमता, मतभेद, द्रोह, विद्रोह, आतंक, सम्पत्तिकरण, वर्ग संघर्ष एवं युद्ध - ये सब मानव के समाधान और समृद्धि के अवरोधक तत्व हैं. मानव ही प्रतिभा और व्यक्तित्व के असंतुलन वश गलती एवं अन्याय में प्रवृत्त होता है. फलतः मंगलकामना रहते हुए भी अमंगलकारी कर्म करता है. अमंगलकारी विचार, व्यवहार एवं कर्म सामाजिकता के लिए सहायक नहीं हैं. इसी सत्यता वश मानव मंगलदायी विचार, व्यवहार एवं कर्म के अनुकरण, अनुशीलन के लिए बाध्य है." - श्री ए नागराज
Tuesday, March 1, 2016
स्वयं के लिए मूल्याँकन
"स्वयं के लिए मूल्याँकन : जीवन तृप्ति के लिए काम कर रहे हैं या शरीर तृप्ति के लिए काम कर रहे हैं? जीवन संतुष्टि के लिए न्याय की आवश्यकता और उपयोगिता स्पष्ट है. यह जागृति या अनुभूति पूर्वक ही सफल है. जीवन संतुष्टि में ही जीवन मूल्य प्रभावित होते हैं अथवा जीवन संतुष्टि का प्रभाव ही जीवन मूल्य है. जीवन संतुष्टि ही व्यवहार व व्यवसाय में परावर्तित होता है और फलस्वरूप परिवार, समाज, परस्परता में तृप्ति व व्यवस्था तथा प्रकृति में संतुलन घटित होता है. व्यव्हार में न्याय, व्यवसाय में विनिमय सुलभता, समाज में न्याय पूर्ण व्यवस्था ही संतुष्टि का अथा से इति है." - श्री ए नागराज
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