समझना और फिर समझ को प्रमाणित करना। समझने में भले ही २-४ दिन ज्यादा लग जाए, क्या आपत्ति है?
प्रश्न: यह २-४ शरीर यात्राओं की तो बात नहीं है?
उत्तर: नहीं। इसी शरीर यात्रा में समझना और प्रमाणित होना। प्रमाणित होने की स्थली भी दो हैं - शिक्षा और व्यवस्था। शिक्षा और व्यवस्था में इसके प्रमाणित होने के बाद इसकी स्वयं स्फूर्त गति है.
प्रश्न: एक हठ है हमारी - जब तक समझेंगे नहीं, तब तक करने निकलेंगे नहीं! क्या यह हठ ठीक है?
उत्तर: ऐसा कुछ होता नहीं है. जितना समझे हैं, उतना ही करना होता है. उससे ज्यादा करना होता ही नहीं है. अभी इस दर्शन को लेकर जितना लोग कर रहे हैं, उतना वे समझ चुके हैं. जितना किये नहीं हैं - उतना समझना शेष होगा या समझ गए होंगे, पर करना शेष होगा।
शिक्षा में चेतना विकास, मूल्य शिक्षा और तकनीकी का समावेश होना है. उसमें से चेतना विकास और मूल्य शिक्षा पर सूचना विधि से हम थोड़ा काम किये हैं. तकनीकी भाग को हम अभी तक छुए नहीं हैं. सूचना तक पहुँच जाए - इतना काम किये हैं. मानव चेतना को समझे हैं तभी मानव चेतना को सूचना विधि से प्रस्तुत कर पा रहे हैं. जिसको लोग स्वीकार रहे हैं. हमारे समझे होने की गवाही है दूसऱे में उसकी स्वीकृति हो जाना, यही इसका कसौटी है.
आप लोग जो शुरू किये हो वह और सघन है. आपकी मंशा है - समग्र समझ में आ जाए, अनुभव हो जाए, उसके बाद प्रमाणित होने के अर्थ में काम किया जाए. इसमें मैं सहमत हूँ. इसमें पहाड़ यह है - पीछे का मॉडल बरकरार रहे और यह करतलगत हो जाए, यह संभव नहीं है. धीरे-धीरे यह समझ में आ जाता है कि पीछे का मॉडल अनावश्यक है.
जैसे मैं भक्ति-विरक्ति के मॉडल में चला था. जब मुझे समझ में आया कि भक्ति-विरक्ति सबके लिए मॉडल नहीं है, सबके लिए मॉडल समाधान-समृद्धि है, जो अनुभव मूलक विधि और अनुभवगामी पद्दति द्वारा लोकव्यापीकरण किया जा सकता है, तो मैं समाधान-समृद्धि के मॉडल में परिवर्तित हुआ. इससे साधना-समाधि बाई-पास हो गया और उससे मिलने वाला फल मानव को अर्पित करना बन गया. इससे किसको क्या तकलीफ है?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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