बच्चों को ऐसे "अनाथ" बनाने का कार्यक्रम अभी पहले अभिभावकों की गोद में होता है, फिर शिक्षण संस्थाओं में होता है. अभी अभिभावकों और शिक्षण संस्थाओं में ऐसी अर्हता नहीं है कि मानव संतान में न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित करे. धर्मगद्दी, राज्यगद्दी और शिक्षागद्दी को टटोलें तो उनमें यह अर्हता नहीं है. यदि शिक्षा में अभी तक न्याय प्रदायी क्षमता को स्थापित करने का स्त्रोत नहीं है तो हमने अब तक मानवीयता का शिक्षा कहाँ से दिया? अभी तक शिक्षा ने सिवाय अपराध प्रवृत्ति को पैदा करने के क्या किया?
न्याय के बारे में मैंने सूचना दिया है - संबंधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभय तृप्ति।
संबंधों में मानव रहता ही है. गर्भ में रहता है तो भी सम्बन्ध है. गोद में रहता है तो भी सम्बन्ध है. उसके बाद दरवाजे पर आता है तो भी सम्बन्ध है. सड़क पर जाता है तो भी सम्बन्ध है. हर स्थान पर सम्बन्ध के बिना मानव नहीं है. हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचानना। जैसे धरती पर पैर रखें तो धरती के प्रयोजन की पहचान। माँ की गोद में बैठे हुए माँ के प्रयोजन की पहचान होना। पिता के संरक्षण में पिता के प्रयोजन की पहचान होना। भाई के प्रयोजन को पहचानना। बहन के प्रयोजन को पहचानना। बंधुओं के प्रयोजन को पहचानना। उसके बाद जीव संसार, वनस्पति संसार और पदार्थ संसार के प्रयोजन को पहचानना। इस प्रकार चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को पहचानना और उसके अनुसार संबंधों का निर्वाह - यह न्याय है. इस प्रकार से जीने योग्य मानव संतान को तैयार करना जरूरी है या नहीं?
इसके लिए अभिभावकों को योग्य बनाने की योजना को "लोक शिक्षा योजना" नाम दिया। इसके लिए जो केंद्र हैं (जैसे - अभ्युदय संस्थान) वहाँ इस बात को समझाने और समझे हुए को जीने में लाने के लिए अभ्यास करने का प्रावधान है. जीने में ही समझे होने का प्रमाण मिलता है. जीने से पहले समझ रहे हैं, यही प्रमाण है. चारों अवस्थाओं के प्रयोजनों को समझना और उनके साथ संबंधों का निर्वाह होना। संबंधों के निर्वाह में मूल्य होते ही हैं. मूल्य निर्वाह होने पर मानव संबंधों में उभय तृप्ति और मनुष्येत्तर संबंधों में संतुलन प्रमाणित होता है. न्याय प्रदायी क्षमता स्थापित होने के लिए मानव संतान का अपनी पिछली पीढी के प्रति अनुग्रह भाव होना चाहिए।
ऐसी शिक्षा के लिए "समझदारी" एक मात्र स्त्रोत है. समझदारी है - सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का ज्ञान। सहअस्तित्व रूपी परम सत्य समझ में आने पर सहअस्तित्व में जीने की इच्छा उदय होती है. ज्ञान सूत्र रूप में रहता है. सूत्रों की व्याख्या होने से विवेचना होती है कि ऐसे जीने में मेरा शुभ है और सर्वशुभ भी है, जो "विवेक" है. यह कर्म-अभ्यास और व्यवहार-अभ्यास स्वरूप में "विज्ञान" है. यदि हम विज्ञान को इस प्रकार पहचानते हैं तो अभी जो विज्ञान के नाम पर है - उसकी समीक्षा हो जाती है. प्रचलित विज्ञान का जो ज्ञान भाग है - वह ठीक नहीं है, नियति विरोधी है. नियति-सम्मत विज्ञान के नियमो को कर्म-दर्शन में लिखा है. दसवीं कक्षा तक सभी उन नियमो का अध्ययन कराया जाए ताकि बारहवीं कक्षा तक सभी तकनीकी नियम पूरे हो जाएँ। बारहवीं कक्षा के बाद बच्चों को कर्माभ्यास में जोड़ा जाए. हरेक विद्यार्थी को २० से २५ प्रकार की आजीविका विधियों से अवगत और अभ्यास कराया जाए. चारों अवस्थाओं के साथ अपने सम्बन्ध को समझते हुए जीने में न्याय को प्रमाणित करने की क्षमता को स्थापित किया जाए. उसके बाद कहाँ चिंता है?
इस बुनियादी काम में कुछ लोगों के ज्यादा योगदान की आवश्यकता होगी, यह सच है. जिनमें वह पुण्यशीलता है वे स्वयंस्फूर्त इसको करेंगे। उसी विधि से यह सब काम चल रहा है. मेरे हिसाब से सभी मानव पुण्यशील हैं, किसी को पापशील मैं मानता ही नहीं। जब जागृति की ओर मानव कदम रखता है तो श्राप, ताप और पाप तीनो समाप्त हो जाते हैं. जबकि आदर्शवाद में बताया गया है कि इन तीनों से मानव त्रस्त रहता है. इससे मुक्ति पाने के लिए महापुरुषों का शरण, ईश्वर का शरण और ज्ञान का शरण ही उपाय है. इसको वहाँ तरण-तारण कहा गया है. जबकि आदर्शवादी विधि से ये तीनों रहस्य में हैं. रहस्यमय होने के कारण ही इनका परंपरा बना नहीं। जबकि सहअस्तित्ववादी विधि में बताया - ज्ञान रहस्य नहीं है, नित्य वर्तमान है. ज्ञान को अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित किया जाता है. श्रवण/सूचना विधि से ज्ञान का अनुमान होता है और अनुभव मूलक विधि से इसका प्रमाण होता है. "नियम", "नियंत्रण", "संतुलन", "न्याय", "धर्म" और "सत्य" सूत्रों का अध्ययन होना, फिर इनके अनुरूप जीने के लिए प्रवृत्त होना, फिर परिवार में समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करना हर समझदार व्यक्ति का दायित्व है.
अध्ययन-क्रम में न्याय-धर्म-सत्य का प्रिय-हित-लाभ की तुलना में अधिक श्रेष्ठ होना स्वीकार हो जाता है. इस प्रकार तुलन में स्वीकार होने पर अस्तित्व सहज न्याय-धर्म-सत्य चित्त में साक्षात्कार हो जाता है. इस जगह का नाम है - अध्ययन। जब तक यह साक्षात्कार नहीं होता तब तक हम अध्ययन के क्रम में ही हैं. साक्षात्कार होने पर उसका बोध उसी क्षण होता ही है. उसका अनुभव होता है. फलस्वरूप समाधान-समृद्धि स्वरूप में जीने का प्रमाण मानव परंपरा में प्रवाहित होता है. समाधान-समृद्धि संपन्न परिवार-जन सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर सकते हैं. यदि यह डिजाईन आपको अधिक श्रेष्ठ स्वीकार होता है तो परिवर्तन निश्चित है. यदि इस डिजाईन से मानव जाति का उद्धार होने का मार्ग समझ आता है तो इसके लिए हमें स्वयं को समर्पित करना चाहिए।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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