जीव चेतना में जीता हुआ मानव गलतियों में "विवश" हो सकता है पर "गिरफ्त" नहीं हो पाता। सच्चाई का रास्ता कहीं न कहीं उसमे बना ही रहता है. सहीपन की अपेक्षा में ही वह गलती करता है. जागृत मानव उसके सामने "सही के स्वरूप" को प्रमाणों सहित प्रस्तुत करता है. उस सहीपन को स्वीकारने, अनुभव करने और प्रमाणित करने की कड़ियों के साथ यदि वह सुनता है तो सहीपन उसका स्वत्व बन जाता है. ऐसा तभी संभव है जब वह पीछे की अपनी स्मृतियों को ताक में रख के सुने। सही के स्वरूप के रास्ते में जीव चेतना की विवशता को बारम्बार ला लाकर बिछाना उचित होगा या अनुचित होगा? इस तरह विवशता को आगे लाने से समझने में ज्यादा समय लग जाता है. सहीपन की चाहत में परिवर्तन होता नहीं है पर विवशता को आगे लाने से विलम्ब हो जाता है. शीघ्रता से यदि समझना है तो इस उपाय को अपना सकते हैं.
अच्छाई की तृषा चाहत के रूप में (जीव चेतना में जीते) मानव में बनी हुई है. इसी को देख कर कहा है - जीव चेतना में जीता हुआ मानव भी ५१% से अधिक अच्छा ही है. अच्छाई को स्वीकारने की जगह में जब आते हैं तो पूर्व स्मृतियाँ परेशान करती हैं. हमने ऐसा सोचा था, तैसा सोचा था. ऐसा किया था, तैसा किया था आदि. यही सब अवरोध करता है. समझते तक उन स्मृतियों को रोक कर रखा जाए. अभी पहले समझ लेते हैं, समझने के बाद यदि तुम्हारी ताकत है तो बने रहोगे, ताकत नहीं है तो उजड़ोगे! यह वैसा ही है - पत्ते में जब तक ताकत रहता है तब तक तने से चिपका रहता है, जब ताकत समाप्त हो जाता है तो अपने आप गिर जाता है. हमारे सारे सोच-विचार, कार्य व्यवहार, और उनके फल-परिणाम जीवन के फूल-पत्ते जैसे ही हैं. समझ स्वत्व होने के उपरान्त जो जीवन के अनुरूप होंगे वे बने रहेंगे, बाकी सब झड़ जाएंगे, ख़त्म बात!
तरण-तारण विधि यही है, जिसमें एक मानव अनुभवमूलक विधि से दूसरे को अनुभवगामी पद्दति से पारंगत बना देता है.
"करो - न करो" - यह उपदेश विधि है.
"हम यह चाहते हैं, आपकी चाहत में इसकी एकरूपता को मिलाते हैं", "हम यह करते हैं, आपको इसका बोध कराते हैं", "हम यह पाए हैं, आपको इसके मिलने का रास्ता बता देते हैं" - यह प्रमाण विधि है.
भ्रम और जागृति :
अपने-पराये से मुक्ति और अपराध-मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है. भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है. जबकि विगत में "मोक्ष" के बारे में लिखा है - जीवन मुक्ति, क्लेश मुक्ति और आवागमन से मुक्ति।
भ्रम जीवचेतना की सीमा है
जागृति जीवचेतना से मुक्ति है
जीवचेतना में जीते तक जीवचेतना के सूत्रों की ही व्याख्या होती है. जिसमे अतृप्ति बना ही है.
जीवचेतना से मुक्त होने पर मानवचेतना की सूत्र व्याख्या अपने आप से प्रकट होने लगती है.
मानवचेतना ही मानव का स्वत्व है, इसी में मानव की स्वतंत्रता है, यही मानव का अधिकार है. मानवचेतना सहज स्वत्व, स्वतंत्रता व अधिकार ही मानवत्व है. मानव अपने ऐश्वर्य (मानवत्व) को छोड़ कर कैसे सुखी हो सकता है?
भ्रम में जीता हुआ मानव अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है, इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है. भ्रम की सभी स्वीकृतियाँ भय और प्रलोभन के रूप में हैं. इसके अलावा भ्रम की पहुँच कुछ भी नहीं है. मानव में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता होने से उसमें भय और प्रलोभन से वशीभूत होने का भी रास्ता बना. भ्रम से भय और प्रलोभन की ही सूत्र-व्याख्या है. जीव चेतना में हम कुछ भी करते हैं उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है. नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन है ही. भय और प्रलोभन को छोड़ के न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार! भय और प्रलोभन ही विवशता है. विवशता मानव को स्वीकार नहीं है. इसी लिए भ्रम में जीते हुए मानव का जड़ हिला रहता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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