भारतीय परंपरा से हमको संस्कृत जैसी प्रचण्ड भाषा धरोहर स्वरूप में मिल गयी. इसका एक भाषा-विज्ञान है. यदि यह भाषा न मिली होती तो इस समझ को सम्प्रेषित करने के लिए नयी भाषा का सृजन करना पड़ता।
संस्कृत भाषा-विज्ञान के अनुसार व्यत्पत्ति के अनुसार शब्दों की परिभाषा की जाती है. व्यत्पत्ति का एक उदाहरण : - "धर्म" एक शब्द है जिसकी व्यत्पत्ति धृ धातु से है. धृ = धारणा। इस तरह धर्म की परिभाषा हुई - धारण करने वाली क्रिया या धारण होने वाली वस्तु। धारणा की व्याख्या जो शंकराचार्य जी किये हैं - "जो पहना जा सके, ओढ़ा जा सके, उतारा भी जा सके" (इसी के समर्थन में भगवदगीता में लिखा है - "सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण में आ जाओ!" ) अभी जो धर्मांतरण हो रहा है, इसी व्याख्या के आधार पर हो रहा है. धर्म को लेकर जो यह बताया गया है इसको आप परिवर्तित करने का प्रयास करके देखो - कठिन है या सुलभ! अब मध्यस्थ दर्शन से जो धर्म का अर्थ स्पष्ट होता है - "जिससे जिसका विलगीकरण न हो सके, वह उसका धर्म है." इसके सामने पूर्व में "धर्म" और "धर्म परिवर्तन" को लेकर जो परंपरा में कहा गया है - उसका कुछ मतलब नहीं रह गया. जबकि भारत को "धर्म परायण" कहा जाता है!!
श्रृंगेरी के जगद्गुरु श्री अभिनव विद्यातीर्थ ८० के दशक में यहाँ अमरकण्टक आये थे. मैंने जिनको अपना आस्था का केंद्र स्वीकारा था - जगद्गुरु श्री चंद्रशेखर भारती - उन्हीं के वे शिष्य थे. मैंने उनको अपना परिचय दिया तो वे मुझे पहचान लिए. मेरे परिवार के लोगों ने ही उनके परमगुरु - श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिम्हा भारती - को वेदान्त पढ़ाया था. उन्होंने पूछा मैं यहाँ कैसे आ गया, तो मैंने उनको बताया कैसे मैं अपने गुरु के आज्ञा ले कर यहाँ साधना के लिए (१९५० में) आया और कैसे यहाँ आकर समाधि-संयम किया और इस दर्शन को पाया। उन्होंने पूछा - "जो पाए उसको लिपिबद्ध भी किये हो या केवल उसको बोलते हो?" मैंने उनको मानव व्यवहार दर्शन की एक प्रति दी. उन्होंने २४-२७ घंटे बाद मुझे पुनः मिलने को कहा. पुनः मिलते ही उन्होंने पहले यही कहा - "तुमने महत कार्य किया है." इस अनुपम वाक्य का प्रयोग उन्होंने किया। मैंने उनसे कहा - मैंने जो किया उसका आपने मूल्याँकन कर दिया। लेकिन मैंने क्या कर दिया है, क्या मैं आपके मुखारविंद से सुन सकता हूँ?
उन्होंने कहा - "जितने भी धरती पर धर्म-गद्दियाँ हैं, वे धर्म के लक्षणों का शिष्टानुमोदन नाम लेते हैं. तुमने धर्म को अध्ययन की वस्तु बना दिया। इसमें तर्क नहीं है. इसको स्वीकारने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. "मानव सुखधर्मी है" - इस प्रतिपादन के साथ आप क्या तर्क करोगे? सुखधर्मी नहीं है - यही तर्क किया जा सकता है, जो टिकता नहीं है."
मैंने पूछा - "आपके मुखारविंद से ऐसा यदि सुनने में आता है तो क्या मैं यह पूरा दर्शन श्रृंगेरी पीठ को समर्पित कर दूं? यदि आप इसको महत कार्य कहते हैं - तो इसमें आपकी क्या जिम्मेदारी बनती है?"
उन्होंने उत्तर दिया - "मेरी जिम्मेदारी यही बनता है - विगत में जो कुछ कहा गया है उसकी समीक्षा करें और इसको प्रबोधित करें। किन्तु मैं जानता हूँ - अभी यदि मैं विगत को झूठ साबित करता हूँ तो यह अनास्था की ओर ले जाता है. मैं यह भी जानता हूँ कि मेरी आयु ७० वर्ष से अधिक हो गयी है और ज्यादा दिन मैं शरीर यात्रा में नहीं रहूँगा। इन सबको जोड़ करके मैं देखता हूँ तो मैं इस जिम्मेदारी को लेकर चलने योग्य नहीं हूँ."
यदि कोई व्यक्ति सच्चा है, ईमानदार है - तो इससे ज्यादा वह क्या बोल सकता है? फिर वे बोले -
"मेरी आँखों में यह दिखता है - तुम किसी धर्मगद्दी के पास मत जाओ, न किसी राजगद्दी के पास जाओ, न किसी शिक्षा गद्दी के पास जाओ. तुम सीधे युवापीढ़ी के पास जाओ. युवापीढ़ी में ही पुण्यशील जीवन इसे समझेंगे! यह मेरा आशीर्वाद है. तुम सफल हो कर रहोगे! समझा हुआ, प्रमाणित हुआ व्यक्ति तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हे दिखेगा।"
इससे बड़ा क्या आशीर्वाद होगा? इससे बड़ा क्या परिपक्व बात होगा? इससे ज्यादा क्या सटीक बात होगा?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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