मैंने यह भी निष्कर्ष निकाला है
- मैंने जो तपस्या किया या साधना किया, वह विगत में
जो यती, सती, संत, तपस्वी किए हैं - उससे "बड़ा" कुछ नहीं है। मैंने कोई
"अपूर्व" घोर तपस्या, घोर साधना की हो - ऐसा कुछ नहीं है।
सामान्य ढंग से जो मुझ से बन पड़ा, करना बना - उतना ही मैं किया हूँ।
जिसमें मुझे लेश मात्र भी कष्ट नहीं हुआ। दुःख नहीं हुआ। अभाव का पीड़ा नहीं हुआ।
न कोई प्रताड़ना हुई। क्यों नहीं हुआ? शायद मैं अपने
लक्ष्य से सम्मोहित हो गया था। अपने लक्ष्य के प्रति मेरी एकाग्रता में ये सब विलय
हो गए या निष्प्रभावी हो गए - ऐसा मैं मानता हूँ।
मैंने जो अनुभवगामी विधि या अध्ययन विधि तैयार की - उसका मेरी साधना-प्रक्रिया से कोई लेन-देन नहीं है। अध्ययन-विधि उस सब को छूता भी नहीं है। संयम के बाद जो मुझे उपलब्धि हुई वह आपके हाथ लग रहा है।
प्रश्न: ध्यान की जो अनेक विधियां प्रचलित हैं, उनका प्रयोग क्या अध्ययन के लिए सहायक है?
ध्यान देने का
मतलब है - बुद्धि के अनुरूप में मन हो जाना, विचार हो जाना, इच्छा हो जाना।
मन जब तक तर्क करने में लगा रहेगा तब तक बुद्धि के अनुरूप होने के लिए नहीं जाएगा।
मन को बुद्धि के अनुरूप होने के लिए जो प्रयास है, अभ्यास है, वही पुरुषार्थ है, वही साधना है, वही अध्ययन है.
आशा, विचार, इच्छा संयत होने के लिए प्रबल जिज्ञासा, प्राथमिकता पूर्वक अध्ययन ही एक मात्र विधि है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
मैंने जो अनुभवगामी विधि या अध्ययन विधि तैयार की - उसका मेरी साधना-प्रक्रिया से कोई लेन-देन नहीं है। अध्ययन-विधि उस सब को छूता भी नहीं है। संयम के बाद जो मुझे उपलब्धि हुई वह आपके हाथ लग रहा है।
प्रश्न: ध्यान की जो अनेक विधियां प्रचलित हैं, उनका प्रयोग क्या अध्ययन के लिए सहायक है?
उत्तर: वे कोई भी इसको छूती भी नहीं हैं। सारी जो प्रचलित ध्यान और
अभ्यास की विधियां हैं - वे व्यक्ति की अहमता को बढ़ाने के लिए ही हैं। या सिद्धि
प्राप्त करने के लिए हैं। या ऐसी परिस्थितयां पैदा करने के लिए हैं - जिससे दूसरों
का सम्मान प्राप्त हो। उनसे न स्वयं का कोई प्रयोजन सिद्ध होता है, न
संसार का कोई उपकार सिद्ध होता है।
समाधि, ध्यान प्रक्रियाओं के बारे में बात करने से अध्ययन में कोई सहयोग नहीं है। उसमें समय को बरबाद न किया जाए। अध्ययन, अध्ययन के बाद बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के बाद प्रमाण, प्रमाण के बाद व्यवस्था में जीने की बात सोचा जाए।
समाधि, ध्यान प्रक्रियाओं के बारे में बात करने से अध्ययन में कोई सहयोग नहीं है। उसमें समय को बरबाद न किया जाए। अध्ययन, अध्ययन के बाद बोध, बोध के बाद अनुभव, अनुभव के बाद प्रमाण, प्रमाण के बाद व्यवस्था में जीने की बात सोचा जाए।
आपको दिखता नहीं है - क्योंकि आप ध्यान नहीं दिए। यही इसका उत्तर
है। जैसे हम बैठे हैं, हमारे सामने से कई लोग निकल जाते हैं, और हम
कई को देख नहीं पाते हैं। क्यों नहीं देख पाते - क्योंकि हमने उस ओर ध्यान नहीं
दिया। इसके ऊपर और कोई तर्क नहीं किया जा सकता। न इस पर और कोई चर्चा से कोई
उपलब्धि हो सकती है। आप ध्यान देंगे तो आप को दिखेगा। आप ध्यान नहीं देंगे तो आप को
नहीं दिखेगा।
जब तक अस्तित्व के स्वरूप को देखने (समझने) की प्राथमिकता स्वयं में नहीं बनती, तब तक हमे उसका अनुभव नहीं होता। इसमें किसी पर आक्षेप नहीं है। न यह किसी की आलोचना है।
अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है। अध्ययन पूर्वक अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है।
जब तक अस्तित्व के स्वरूप को देखने (समझने) की प्राथमिकता स्वयं में नहीं बनती, तब तक हमे उसका अनुभव नहीं होता। इसमें किसी पर आक्षेप नहीं है। न यह किसी की आलोचना है।
अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है। अध्ययन पूर्वक अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है।
मन जब तक तर्क करने में लगा रहेगा तब तक बुद्धि के अनुरूप होने के लिए नहीं जाएगा।
मन को बुद्धि के अनुरूप होने के लिए जो प्रयास है, अभ्यास है, वही पुरुषार्थ है, वही साधना है, वही अध्ययन है.
आशा, विचार, इच्छा संयत होने के लिए प्रबल जिज्ञासा, प्राथमिकता पूर्वक अध्ययन ही एक मात्र विधि है.
आत्म-सात करना एक अभ्यास है। यही अध्ययन में
ध्यान देने का मतलब है। आत्म-सात होने का मतलब है, जीवन में यह "साध्य" हो जाना। सह-अस्तित्व दर्शन
ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान - यह जीवन में, से प्रमाणित होना है। यही आत्म-सात होने का मतलब
है। धीरे-धीरे आप इसको अभ्यास करेंगे, क्या इस पर मैं विश्वास करूँ?
मैंने आपके सामने अपना अनुभव प्रस्तुत किया। अब आपको अनुभव के लिए अध्ययन करना है, या नहीं करना है - उसमें आपकी स्वतंत्रता है।
मैंने आपके सामने अपना अनुभव प्रस्तुत किया। अब आपको अनुभव के लिए अध्ययन करना है, या नहीं करना है - उसमें आपकी स्वतंत्रता है।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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