मानव ने अपने इतिहास में आज तक शरीर मूलक जी कर देख लिया है. यह जीवन मूलक जीने का प्रस्ताव है. इसके लिए अनुभव मूलक विधि को मानव परंपरा में प्रमाणित होने की आवश्यकता है. अनुभव मूलक विधि से मानव में न्याय प्रकट होता है, समाधान प्रकट होता है, नियम प्रकट होता है, नियंत्रण प्रकट होता है, संतुलन प्रकट होता है. परम सत्य अनुभव में रहता है, जिसके आधार पर यह सब प्रकट होता है. अनुभव से बड़ा "कामधेनु" क्या होता होगा?
यह कार्यक्रम अनुभव मूलक विधि से जो समझदारी है उसको अनुभवगामी पद्दति से दूसरे को समझदार बनाने का है. समझ पूर्वक ही अनुभव होता है.
अध्ययन विधि से सत्य बोध हो जाता है. सत्य बोध होने के बाद ही अनुभव होगा। उसके पहले कभी अनुभव नहीं होगा। सत्य बोध के अलावा सारा भड़ास ही है. अनौचित्यता को बुद्धि नकारता है, वह अनुभव में जाता नहीं है.
पदार्थ का नाश नहीं होता है, व्यापक वस्तु में परिवर्तन नहीं होता है. व्यापक वस्तु अपने में कोई मात्रा नहीं है, उसके गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता। व्यापक वस्तु के तीन आयाम हैं - व्यापकता, पारगामीयता और पारदर्शीयता।
प्रश्न: समाधि में आपको कैसा लगता रहा?
उत्तर: गहरे पानी में डूब के आँखें खोलने पर जैसा लगता है, वैसा लगता रहा. उसको मैंने 'आकाश' नाम दिया। आकाश की पहले हम व्याख्या नहीं कर पाते थे. संयम में स्पष्ट हुआ कि "अवकाश ही आकाश है". इकाइयों के परस्परता में जो अवकाश है, वही आकाश है. सब जगह यही है.
समाधि काल में यह स्वीकृति थी कि "मैं हूँ" और "मेरी आशा, विचार, इच्छा चुप हो गयी हैं, उसका मैं दृष्टा हूँ".
प्रश्न: समाधि के बाद शरीर अध्यास होने पर क्या हुआ?
उत्तर: मैंने पाया मेरा वर्तमान से कोई विरोध नहीं रहा, और मुझे भूतकाल की कोई पीड़ा और भविष्य की कोई चिंता नहीं रही. समाधि से मैं यहाँ तक पहुंचा, संयम में बाकी सब दर्शन का स्वरूप आ गया.
प्रश्न: संयम के दौरान क्या होता था?
उत्तर: इन्तजार करना, निरीक्षण करना और जो निरीक्षण किया उसके प्रति तीव्र संकल्पित होना। यह निरीक्षण समाधि और मेरी तीव्र जिज्ञासा के आधार पर हुआ.
मैंने जो समाधि-संयम से इस ज्ञान को पाया, वह अँधेरे में हाथ मारने जैसा रहा. अध्ययन विधि में वैसा नहीं है. अर्थ साक्षात्कार होने तक तर्क-संगत विधि से अध्ययन है. अर्थ साक्षात्कार होने के बाद बोध होना और अनुभव होना स्वाभाविक है. इसमें तर्क नहीं पहुँचता। अनुभव के बाद अनुभव बोध होने पर हम सब बातों को तर्क संगत विधि से व्यक्त करने योग्य हो गए. तर्क का पहुँच अस्तित्व में वस्तु साक्षात्कार होने तक है.
जैसे - पानी एक शब्द है. पानी अस्तित्व में एक वस्तु है. पानी को हम तर्कसंगत विधि से मानव को संबोधित करते हैं - इससे प्यास बुझती है, कपडा धुलता है, शरीर धुलता है, आदि. आगे अध्ययन में तात्विक रूप में पानी एक जलने वाली वस्तु और एक जलाने वाली वस्तु के योग पूर्वक है - यह स्पष्ट करते हैं. इसमें क्या तकलीफ है? यदि तकलीफ नहीं है तो इसको स्वीकारो! जिसमें तकलीफ नहीं है, वह स्वीकार होता ही है. जिसमें तकलीफ है, वह स्वीकार होता नहीं है. यहाँ प्रस्ताव में तकलीफ है - जीव चेतना से मानव चेतना में अंतरित होना। जीवचेतना में जीने को सुविधाजनक मान लिया है, उसको गौण मानना तकलीफ देता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित - दिसंबर २००८, अमरकंटक
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