प्रश्न: क्या बहुत सारी जीव योनियों से गुजरने के बाद जीवन को मानव शरीर चलाने के लिए मिलता है?
उत्तर: जिसका प्रमाण नहीं, वह बात मुझे करना नहीं! सप्तधातु से रचित शरीर हो, समृद्ध मेधस हो, और मानव के संकेतों को पहचानता हो - ऐसे जीवों में जीवन होता है.
प्रश्न: मानव की मृत्यु के बाद अगली शरीर यात्रा में उस जीवन को मानव शरीर ही मिलता है या कोई जीव शरीर भी मिल सकता है?
उत्तर: शरीर यात्रा समाप्त होने पर जीवन अपना मूल्यांकन करता है. सुख-दुःख और सुरूप-कुरूप का स्वीकृति करते हुए जीवन शरीर को छोड़ता है. इस शरीर यात्रा में जैसा रूप (शरीर वंश का आकार) था, वैसा ही रूप या उससे अच्छे रूप के प्रति स्वीकृति के साथ जीवन शरीर को छोड़ता है. (जो उसकी अगली शरीर यात्रा का कारण बनता है) हर जीवन के साथ ऐसा है.
प्रश्न: आप किस प्रमाण के आधार पर कहते हैं कि शरीर यात्रा समाप्त होने पर जीवन अपना मूल्यांकन करता है?
उत्तर: मैंने समाधि को देखा है. समाधि के समय जीवन शरीर को छोड़ा रहता है. समाधि होने के पहले जीवन अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन कर लेता है. इस आधार पर मैं कहता हूँ कि शरीर छोड़ते समय जीवन अपना मूल्याँकन करता है.
प्रश्न: शरीर छोड़ते हुए जीवन क्या मूल्याँकन करता है?
उत्तर: शरीर यात्रा में पहली सांस से आखिरी सांस तक क्या "अच्छा लगा" और क्या "बुरा लगा" उसको जीवन स्वीकारता है. जीव चेतना में जीते तक जीवन में 'सही' और 'गलत' का मूल्याँकन करने का आधार नहीं रहता है, इसलिए 'अच्छा लगने' और 'बुरा लगने' के आधार पर ही शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है. शरीर यात्रा में एक सीमा तक ही संवेदनागत सुख या दुःख को भोगा या झेला जा सकता है, क्योंकि शरीर में उसको झेलने की एक सीमा होती है. जबकि जीवन शरीर यात्रा में उस संवेदनागत सुख या दुःख की सीमा से अधिक का कर्म किया रह सकता है. दो शरीर यात्राओं के बीच की अवधि में ऐसा जो सुख या दुःख भोगा नहीं गया होता है, उसको जीवन भोग लेता है. उसको भोग लेने के बाद अगली शरीर यात्रा को आरम्भ करता है.
प्रश्न: अगली शरीर यात्रा कहाँ शुरू होगी, इसका कैसे निर्णय होता है?
उत्तर: भ्रम (जीव चेतना) में रहते तक जीवन में सुखी (अच्छा लगना) और दुखी (बुरा लगना) होने के लिए स्वयं का प्रवृत्ति रहता है. भ्रमित रहते तक जीवन शरीर को ही जीवन मानता है. जिस वातावरण में वह अपनी (शरीर मूलक) अनुकूलता को मानता है, वैसे वातावरण में शरीर यात्रा शुरू करता है. दूसरे, अपने बंधु -बांधवों के बीच, फिर उनसे सम्बंधित लोगों में, फिर उस गाँव में, उस देश में, फिर सर्वदेश में. इस क्रम से अगली शरीर यात्रा के स्थान का कारण बनता है. पुनः शरीर यात्रा जब मानव परंपरा में शुरू होता है तो सुखी होने के लिए शुरू करता है. परंपरा में सुखी होने का मार्ग न होने पर पुनः रोते -गाते शरीर यात्रा को अंत करता है.
प्रश्न: यदि मेरी जागृति की ओर गति शुरू हो गयी, लेकिन किसी कारणवश मेरी आकस्मिक मृत्यु हो जाती है तो मेरी अगली शरीर यात्रा कैसी होगी?
उत्तर: जागृति की ओर शुरू किये हैं तो उनका अगला शरीर यात्रा मानव परंपरा में ही होगा। जितना इस शरीर यात्रा में जागृति के लिए काम किये थे उससे आगे का प्रवृत्ति हो जाता है. जिस भी वातावरण में जीवन शरीर यात्रा शुरू करे, उसको भेदते हुए जीवन अपनी अग्रिम गति के लिए जगह बना लेता है. मेरे साथ भी वैसा ही हुआ!
पिछली शरीर यात्रा की प्रवृत्ति के अनुसार ही अगली शरीर यात्रा शुरू होती है. उस प्रवृत्ति का सही पक्ष को लेकर बीज समाप्त नहीं हुआ रहता है. इस ढंग से जीवन का पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छा होने (सुधरने) के लिए एक "सीढ़ी" बनी है. पीढ़ी दर पीढ़ी अच्छा होने की सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते आज मानव-जाति चेतना विकास के दरवाजे पर पहुँच गया! चेतना विकास के अर्थ में यहाँ (मध्यस्थ दर्शन की) चर्चा शुरू हुई. यदि चेतना विकास के लिए स्वीकृति होती है तो वह मरता नहीं है. अगली शरीर यात्रा में और पुष्ट होता है. सभी सकारात्मक स्वीकृतियों का पुष्टि इसी विधि से हुआ है. अपनी प्रवृत्तियों के अनुरूप परिस्थितियों को पहचानने का गुण हर जीवन में होता है. जीवन की प्रवृत्ति ही उसका पूर्व संस्कार है.
प्रश्न: जीवन द्वारा बारम्बार शरीर यात्रा करने का उद्देश्य क्या है?
उत्तर: जीवन जागृति को प्रमाणित करने के उद्देश्य से बारम्बार शरीर यात्रा करता है. मानव को कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है, जिसके कारण मानव सुखी होने का प्रयास करता है. जागृति के बिना उसका सुखी होना संभव नहीं है. सुखी होने के लिए जीवन हर बार शरीर यात्रा आरम्भ करता है. जब शरीर यात्रा में सुख हासिल नहीं कर पाता तो दुखी होता है.
प्रश्न: जीवन द्वारा जागृति को हासिल करने के लिए क्या उपाय है? इस अनुसंधान के पहले जागृति को लेकर क्या उपाय था?
उत्तर: परंपरा स्वरूप में जागृति को हासिल करने का स्वरूप अभी तक कुछ नहीं है. कोई एक व्यक्ति कभी कुछ पा गया हो तो उसको हम जानते नहीं हैं, वह गण्य होता नहीं है. साधना विधि से जो कल्याण होने का आश्वासन दिया गया था, वह व्यक्ति के साथ ही चला गया. साधना से उस व्यक्ति को जो उपलब्धि हुई होगी वह मानव परंपरा तक नहीं पहुँच पायी। हम कुछ व्यक्तियों को पहुँचा हुआ मानते रहे, उनको प्रणाम/सम्मान करते रहे, पर पहुँचे हुए वे व्यक्ति जो पाए होंगे वह मानव परंपरा में आया नहीं। अब वह व्यक्ति पहुँचा था या नहीं - इसका भी कोई प्रमाण नहीं है.
अब मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव मानव जाति के पास आ गया है, जिससे स्वयं में जागृति को पहचान सकते हैं. इसके पहले शिक्षा विधि से जागृति को पहचानने का कोई प्रस्ताव नहीं है.
मध्यस्थ दर्शन का यह प्रस्ताव वर्तमान में जीने हेतु निष्कर्ष निकालने के लिए है, न कि मरने के बाद क्या होता है - इसको सोचने के लिए!
भ्रमित मानव को जब तक जीने का ज्ञान नहीं होगा तब तक उसको मरने का ज्ञान और मरने के बाद का ज्ञान नहीं हो सकता। मेरे साथ भी वैसा ही हुआ. जीना समझ में आने के बाद ही मरने के बाद क्या होता है - यह मुझे स्पष्ट हुआ. उसके पहले नहीं! जबकि मैंने प्रकृति में अनुभव किया है. इससे ज्यादा क्या कहा जाए?
सिलसिला तो यही है - पहले जीना समझ में आये, फिर मरना समझ में आये, फिर मरने के बाद का समझ में आये. अभी आदमी को न जीने का पता है न मरने का पता है. जीना ही पता न हो तो मरना कैसे पता होगा? - यह सोचने का मुद्दा है.
जीने को नियति माना जाए या मरने को? इसमें आपका क्या कहना है?
जीने की जगह में अभी मानव भ्रमित है क्योंकि शरीर को जीवन मानके चला है. जीवसंसार में भी वैसे ही जीवन शरीर को जीवन मानके जीने की आशा को व्यक्त करता है. जीवों के लिए जीवचेतना ठीक है किन्तु मानव ज्ञान-अवस्था का होने के कारण जीव चेतना उसके लिए ठीक नहीं है. जीव चेतना में जीव दुखी नहीं है, पर मानव का जीव चेतना में दुखी होना बना ही है. घटना विधि से मानव ने जीवचेतना में जीने का अभ्यास किया है, वहाँ से मानव चेतना में परिवर्तित होना पहला बिंदु है.
मानव चेतना में परिवर्तित होने पर हम मूल्य-चरित्र-नैतिकता स्वरूप में व्यक्त होना शुरू करते हैं. इससे पहले मानव दो ही स्वरूप में व्यक्त हुआ - पहला, भक्ति-विरक्ति और दूसरा, सुविधा-संग्रह। भक्ति-विरक्ति रहस्यमय हो गया, सार्थक नहीं हुआ. सुविधा-संग्रह किसी को तृप्ति-बिंदु तक पहुंचाता नहीं है, न ही यह सबको मिल सकता है. इसलिए सुविधा-संग्रह निरर्थक सिद्ध हुआ. इसके बदले में हो क्या? इसके बदले में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। समाधान समझदारी से, समृद्धि श्रम से! इसके लिए शिक्षा विधि काम करेगी, न कि उपदेश विधि।
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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