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Wednesday, November 16, 2016

पूर्व स्मृतियों की बाधा और उसके लिए उपाय - भाग १



"अध्ययन = कल्पनाशीलता का प्रयोग करके शब्द से अर्थ को पहचानना.  अर्थ अस्तित्व में वस्तु है.  वस्तु की पहचान (तुलन में) न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के (अनुकरण-अनुसरण पूर्वक) अभ्यास द्वारा है.  यह प्रक्रिया जीवन की साढ़े चार क्रियाओं की सीमा में ही होती है.  इस प्रकार वस्तु की पहचान होने पर जीवन में साक्षात्कार, बोध और अनुभव स्वतः होता है.  अनुभव के बाद बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध और संकल्प, चित्त में उसका चिंतन-चित्रण होकर वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य विचार, मन में मूल्यों का आस्वादन और संबंधों के चयन द्वारा वह मानव के जीने में प्रमाणित होने के लिए तैयार हो जाता है. "  - यह हमने आप से सुना है.

बाबा जी: सुना है या समझा है?

अभी सुना है!  और यह हमारे स्मरण में है. 

बाबा जी: आपके अनुसार हर स्थिति में हम स्मरण के आधार पर बात करें या अनुभव के आधार पर बात करें?

अनुभव के आधार पर बात करें, हमारी अपेक्षा तो यही है. 

बाबा जी:  सुनने के बाद समझने की जिम्मेदारी आप ही की है.  समझने में आपको कोई कठिनाई होगा तो उसको दूर करने का काम मेरा होगा।

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प्रश्न:  आप अपने तर्क को एक तरीके से प्रस्तुत करते हैं, उसके अनुसार हम अपने को पशुमानव-राक्षसमानव श्रेणी में पाते हैं.  यह कठोर होते हुए भी हमको आहत नहीं करता, बल्कि सही ही लगता है.  आपका अपने तर्क को प्रस्तुत करने का क्या तरीका है?   इस तर्क की सीमा क्या है और इस तर्क के आगे क्या है?

उत्तर:  इस दर्शन में मानव को पाँच कोटियों (प्रजातियों) में पहचाना गया है.  जीवचेतना में दो प्रजाति हैं - पशुमानव और राक्षसमानव।  मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना में एक-एक प्रजाति है.  राक्षस मानव का स्वभाव क्रूरता प्रधान है.  पशुमानव का स्वभाव दीनता प्रधान है.  मानव का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता है.  देव मानव का स्वभाव दया, कृपा, करुणा है.  दिव्य मानव का स्वभाव करुणा है.  ऐसा मैंने प्रस्तुत करके आपके सोचने के लिए (अपना मूल्यांकन करने के लिए) छोड़ दिया है.  इसको आपने "तर्क" कहा.  यह तर्क नहीं (अनुभव मूलक) "विश्लेषण" है. 

प्रश्न:  लेकिन आपकी प्रस्तुति तर्क-सम्मत तो है?   आपके तर्क का सार स्वरूप क्या है?

उत्तर:  हाँ, मेरा विश्लेषण तर्क-सम्मत है.  मैं मानव चेतना  और जीव चेतना को जानता हूँ, उस ज्ञान को मैं जीता हूँ, प्रमाण हूँ - उस आधार पर मैं आपसे पूछता हूँ आपको जीव चेतना में जीने की विधि चाहिए या मानव चेतना में जीने की विधि चाहिए?  इस तरह मैं पहले आपकी "चाहत" को पूछता हूँ.  क्यों ऐसा पूछते हो - तो उसके उत्तर में तर्क है कि जीव चेतना की सीमा में हम अपराध मुक्त नहीं हो सकते।  क्यों अपराध मुक्त नहीं हो सकते - इसके लिए फिर पूरा तर्क है.  अपराध मुक्ति अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति जीव चेतना पर्यन्त संभव नहीं है.  अपना-पराया की दीवारों के साथ जीना है या इन दीवारों से मुक्त होकर जीना है - फिर यह मैं पूछता हूँ.  उसको तर्क-सम्मत विधि से प्रस्तुत करता हूँ.  आप जब मानव चेतना के लिए चाहत को व्यक्त करते हो तो उससे सम्बंधित बातों का अध्ययन कराता हूँ.  इसके बाद देव चेतना और दिव्य चेतना की बात करते हैं.  मानव, देव  मानव, दिव्य मानव चेतना स्वरूप में जीना ही अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र-व्याख्या करना है.  इसकी आवश्यकता होगा तो हम इसको करेंगे ही!  विश्लेषण -> चाहत को लेकर प्रश्न  -> चाहत के अनुरूप संबोधन।  यही मेरे तर्क प्रस्तुत करने का सार स्वरूप है. 

प्रश्न:  सुनने वाले की चाहत को पूछना क्यों आवश्यक है? 

उत्तर:  यदि चाहत को नहीं पूछते तो वह पत्थर पर पानी बरसने जैसा है.  पत्थर पर बरसता है तो पत्थर भीगता नहीं है.  मिट्टी पर बरसता है तो मिट्टी भीग जाती है.  इस तरह अध्ययन विधि कोई लदाऊ-फंसाऊ कार्यक्रम नहीं है.  अध्ययन मानव सहज अपेक्षा के अनुरूप है.  चाहत को पूछना प्रौढ़ लोगों के लिए जो शिक्षा से हट चुके हैं, अपने जीने का कार्यक्रम बना चुके हैं, उसमें ढल चुके हैं, जिम्मेवारियाँ स्वीकार चुके हैं.  इससे भिन्न बच्चों में सच्चाई के अलावा कुछ भी चाहत नहीं है.  हर मानव संतान जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  चाहे वह संतान अय्याशी की, कुकर्मी की, दुष्ट की, सज्जन की, पशु मानव की, राक्षस मानव की, देव मानव की, दिव्य मानव की क्यों न हो.  हर मानव संतान यही चाहता है. 

ग्रहण करने वाली स्थिति में प्रबोधन ज्यादा कारगर है.  उसके लिए ही सुनने वाले में इसके लिए चाहत को पूछना।  मानव में चाहत सहीपन की ही है.  सहीपन की सूचना पर किसी को ऐतराज नहीं है.  जैसे - आपसे पूछें कि आपको जीव चेतना चाहिए या मानव चेतना, तो आप मानव चेतना ही कहोगे।  दूसरा कुछ कहना बनता ही नहीं है.  जीव चेतना में पशु मानव - राक्षस मानव होते हैं, वह आपको स्वीकार नहीं होगा।  उसके बाद यथास्थिति बताते हैं कि मानव परंपरा अभी तक जीव चेतना में जिया है.  यह यथास्थिति तो प्रत्यक्ष है, इसमें बाकी सब कुछ को भले ही हम ढक लें, किन्तु धरती का बीमार होने को ढक  नहीं पा रहे हैं.  इसको ढका  नहीं जा सकता। फिर मानव में श्रेष्ठता की चाहत के अनुरूप मानव चेतना का प्रबोधन शुरू करते हैं.

प्रश्न:  जो आप मानव चेतना का प्रबोधन करते हैं, उसको स्वीकारने में हमारे एक सीमा के बाद अटक जाने का क्या कारण है? 

उत्तर: अटकने का कारण है - पूर्व स्मृतियाँ।  पूर्व स्मरण आते ही हैं.  मानव चेतना संबंधी प्रबोधन पूर्व स्मृतियों के विपरीत होने पर हम अटक जाते हैं.  पूर्व स्मृतियाँ इसके अनुकूल रहने पर यह आगे बढ़ता है.

प्रश्न:  जीव चेतना में जिए हुए की स्मृतियाँ मानव चेतना के प्रस्ताव के अनुकूल कैसे होंगी?

उत्तर: अपेक्षा रखने में हम क्यों कंजूसी करें।  जीव चेतना में जीते हुए मानव में अपेक्षा मानव चेतना की ही होती है.  संवाद करते समय दुसरे व्यक्ति की सही को लेकर अपेक्षा को स्वीकारने में कहीं भी कंजूसी न करें।   मानव के पास शुभ की ओर जाने का रास्ता चाहे संकीर्ण हो, पर सदा बना है.  इसी की गवाही में हर मानव स्वयं में शुभ की अपेक्षा को होना बताता है. 

अब हम यहाँ जीव चेतना से मानव चेतना में संक्रमित होने की बात कर रहे हैं.  मानव चेतना का कोई भी बात जीव चेतना की किसी भी बात की वकालत नहीं करता - न जीव चेतना के संविधान की, न जीव चेतना की मानसिकता की, न जीव चेतना की शिक्षा की, न जीव चेतना की व्यवस्था की. 

इस आधार पर निष्कर्ष निकाला - यदि मानव चेतना संबंधी बात को समझना शुरू करते हैं तो पीछे की जीव चेतना संबंधी स्मृतियों को थोड़ा देर के लिए रोक रखा जाए.  इसके साथ मिलाने और इसके साथ तौलने का कोशिश न किया जाए.  पूर्व स्मृतियों को आगे लाने से मानव चेतना संबंधी बात को अवगाहन करने में, तोलने में, जीने के ढाँचे-खांचे में बैठाने में हमको तकलीफ होती है.

प्रश्न:  पूर्व स्मरण आते ही हैं, उनको स्थगित करने का क्या उपाय है?

उत्तर: मानव चेतना के प्रस्ताव को उसके श्रवण से उसको समझने, अनुभव करने से लेकर जीने में प्रमाणित करने तक की कड़ियों को जोड़ कर सुनने से वह अपना स्वत्व होता है. 

जिस वस्तु को समझ रहे हैं, उस वस्तु का बोध, उस वस्तु का अनुभव, उस वस्तु का प्रमाण, और उस वस्तु के साथ जीने की कड़ियों को जोड़ कर सुनने से जल्दी समझ हाथ लगती है.  यदि ऐसा नहीं करते तो वस्तु के प्रयोजन से हम नहीं जुड़ते।  सुनते हैं, फिर उसे भूल भी जाते हैं. 

सुना हुआ बात भूल सकता है, समझा हुआ बात भूल नहीं सकता।  यह सिद्धांत है.


- श्री ए नागराज के साथ संवाद, जनवरी २००७, अमरकंटक

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