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Monday, October 17, 2016

जीवन ज्ञान

जीवन अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है.  जीवन में दस क्रियाएं हैं.  जीवन में दस क्रियाएं हैं.  जीव संसार में इसमें से केवल एक भाग व्यक्त होता है - मन में आशा.  जीव संसार जीने की आशा को चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) के रूप में व्यक्त करता है.  हर जीव का चार विषयों को व्यक्त करने का तरीका अपने वंश के अनुसार अलग-अलग हो गया.  गाय का तरीका अलग है, बाघ का तरीका अलग है, हाथी का तरीका अलग है.  मानव का जब प्रकटन हुआ तो उसने अपनी कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता के आधार पर जीवों का अनुकरण किया और चार विषयों से ही शुरू किया।  अनुकरण करने की प्रवृत्ति अभी भी बच्चों में दिखाई देती है.  आज मानव अपने इतिहास में वहाँ पहुँच चुका है, जहाँ वह अध्ययन पूर्वक जीवन को समझ सकता है.

प्रश्न: जीवन में ऐसा क्या है जिससे जीवन जीवन का ज्ञान कर लेता है?  जीवन को अध्ययन करने का विधि जीवन में कैसे समाया है?

उत्तर: जीवन में "दृष्टा विधि" और "अनुभव विधि" निहित है.  शरीर और भौतिक-रासायनिक संसार का दृष्टा "मन" है.  मन का दृष्टा "वृत्ति" है.  विचार के अनुसार चयन हुआ या नहीं - इसका मूल्याँकन वृत्ति करता है.  वृत्ति का दृष्टा "चित्त" है.  इच्छा के अनुरूप  विश्लेषण हुआ या नहीं हुआ - इसका मूल्याँकन चित्त करता है.  चित्त का दृष्टा "बुद्धि" है.  अनुभव प्रमाण संकल्प के अनुरूप इच्छाएं (चित्रण) हुई या नहीं - यह मूल्याँकन बुद्धि करता है.  बुद्धि का दृष्टा "आत्मा" है.  अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुँचा या नहीं - इसका दृष्टा आत्मा है.  यह "दृष्टा विधि" है.  

मन वृत्ति में अनुभूत होता है - अर्थात मन वृत्ति के अनुसार चलता है.  वृत्ति चित्त के अनुसार चलता है - अर्थात चित्त का प्रेरणा वृत्ति स्वीकारता है.  बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है.  आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होता है.

दृष्टा विधि और अनुभव विधि जीवन में ही बनी है, और कहीं नहीं।  जबकि आदर्शवाद ने कहा है - "ईश्वर दृष्टा, कर्ता और भोक्ता है."  यहाँ सह-अस्तित्ववाद में कह रहे हैं - "ईश्वर में जड़-चैतन्य प्रकृति प्रेरणा पाया है."  ईश्वर प्रेरक है - यह भी कहना बनता नहीं है.  ईश्वर कर्ता-पद में होता ही नहीं।

क्रमशः

श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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