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Thursday, December 1, 2016

दावे की बात



मैं निम्न तीन दावे करता हूँ: -

पहला, मैं अपने सहअस्तित्व में अनुभव किये होने का दावा करता हूँ.

दूसरा, मैं सहअस्तित्व के अनुरूप स्वयं जीने का दावा करता हूँ.

तीसरा, मैं सहअस्तित्व के आनुषंगिक व्यवस्था में भागीदारी करने का दावा करता हूँ.

अभी तक जितने भी लोग मेरे संपर्क में आये - उनमें से एक के साथ भी ऐसा नहीं हुआ कि  मैंने उनकी जिज्ञासा का उत्तर न दिया हो.  सुनने वाला उस उत्तर से तृप्त हुआ हो या नहीं - यह दूसरी बात है.  एक समय तक उस उत्तर से तृप्त न हों, एक समय के बाद तृप्त हों - यह हो सकता है.  ऐसी सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता हर व्यक्ति के पास होनी चाहिए न?

मैंने सुंदरता के न्यूनतम स्वरूप में जीने का दावा किया है.  संसार के लिए इससे ज्यादा सुन्दर, सबसे सुन्दर जी कर दिखाने का स्थान रखा हुआ है.  यदि आप इस प्रस्ताव को समझते हैं तो आप मुझसे अच्छा ही जियोगे। 

मुझसे आप जो सुनते हो, उसके अर्थ को समझने  का अधिकार आप ही के पास है.  मैं जैसा समझा हूँ, उसको केवल सूचना स्वरूप में आपको प्रस्तुत कर सकता हूँ.  मैं जैसा समझा हूँ, सोचता हूँ, जीता हूँ और करता हूँ - इन चार का भाषाकरण करता हूँ.  इसमें से जो मैं करता हूँ, वह आपको जल्दी पकड़ में आ जाता है.  जो मैं जीता हूँ, उसको समझने के लिए आपको थोड़ा ज्यादा मन लगाना पड़ता है.  जो मैं सोचता हूँ, उसके लिए और ज्यादा।  जो मैं समझता हूँ (अनुभव करता हूँ), उसके लिए और  ज्यादा।  ये चार स्तर हैं मन लगाने के.  अध्ययन में मन लगाना पड़ता है.  यही ध्यान है.  मन लगाने के प्रमाण में ये चारों बात समझ में आती हैं. 

इससे पहले आदर्शवाद और भौतिकवाद जो आया, उसमे निष्कर्ष निकलता है तो निकाल लो.  आदर्शवाद बनाम रहस्य मूलक ईश्वर केंद्रित चिंतन का मतलब है - "कोई मानव समझदार नहीं हो सकता!"  भौतिकवाद बनाम अनिश्चयता अस्थिरता मूलक वस्तु केंद्रित चिंतन का मतलब है - "हर अपराध हर व्यक्ति कर सकता है."  यदि इन दोनों से निष्कर्ष नहीं निकलता है तो इस विकल्प को समझो!  ईमानदारी से समझना पड़ेगा।  इसमें केवल जिज्ञासा व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है.  समझना आवश्यक है.

यदि आप मेरे अनुभव करने (समझने), सोचने, जीने और करने को लेकर निर्भ्रम होते हैं तो यह ज्ञान मुझसे आप में अंतरित हो जाएगा।  इन चारों भागों में तदाकार-तदरूप होने की अर्हता हर मानव में है.  इसमें बाधा तब आती है जब कहीं हम हमारे प्रतिकूल लगने वाली किसी बात को नकार देते हैं.  वहीं हम रुक जाते हैं.  यही समझने में अवरोध है.  जीव चेतना से अनुकूलता बैठाने का प्रयास असफल होगा ही, क्योंकि मानव चेतना का कोई भी प्रस्ताव जीवचेतना के अनुकूल नहीं है.  ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ  मानवचेतना जीवचेतना के साथ राजी-गाजी करता हो.  मानवचेतना और जीवचेतना के बीच एक संक्रमण रेखा है.  इस संक्रमण-रेखा के एक तरफ है अपना-पराया की दीवारें और दूसरी तरफ हैं - अपना-पराया की दीवारों से मुक्ति।  इतना ही है.  अपना-पराया के चलते न स्वतंत्रता है, न स्वराज्य है. 

समझना है या नहीं - पहले इसीको निर्णय कर लिया जाए.  यदि समझना है तो यह तदाकार-तद्रूप होने का पूरा मार्ग ठीक है.  यदि नहीं समझना है तो इसका नाम लेने की भी ज़रुरत नहीं है.  मानव जाति जो कर रहा है अभी वही ठीक है.  इस प्रस्ताव में जीव चेतना के साथ राजी गाजी करने का एक भी सूत्र नहीं है.  इसके स्थान पर मानवीयता पूर्वक जीने का प्रस्ताव है. 

यह adjustment की बात नहीं है, replacement की बात है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)


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