जीवन में दसों क्रियाओं के क्रियाशील हुए बिना "प्रमाण" नहीं होगा।
न्याय-अन्याय से अध्ययन शुरू करते हैं. जीव चेतना में (जीते हुए मानव को) अन्याय स्वीकार हुआ रहता है. मानव चेतना में (जीता हुआ मानव) न्याय को स्पष्ट कर सकता है. तुलनात्मक विधि से न्याय-अन्याय को स्पष्ट करते हुए न्याय में विश्वास दिलाता है.
संबंधों का संबोधन जो हमारे पास पहले से है ही, उन संबंधों में प्रयोजन की पहचान और स्वीकृति कराते हैं. नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म और सत्य के स्वरूप का हर सम्बन्ध में अध्ययन करा देते हैं. संबंधों में ही जीना है. यदि जीवन शरीर के साथ भी नहीं है तो भी उन्हीं संबंधों में प्रेरणा देना होता है.
(जीव चेतना में) शरीर मूलक विधि से संबोधनों के आधार पर परस्पर प्रेरणा देना होता है. (मानव चेतना में) अनुभव मूलक विधि में संबंधों के प्रयोजनों के आधार पर परस्पर प्रेरणा देना होता है. इस ढंग से जीने के कार्यक्रम में जीवन की दसों क्रियायें क्रियाशील हो जाती हैं.
अध्ययन क्रम में साक्षात्कार होना एक क्रिया है. साक्षात्कार के अनुसार बोध होना एक क्रिया है. बोध के अनुसार अनुभव होना एक क्रिया है. अनुभव के अनुसार (आत्मा में) प्रमाण होना एक क्रिया है. बुद्धि में प्रमाण बोध होना एक क्रिया है. प्रमाण बोध के अनुसार संकल्प होना एक क्रिया है. यह साढ़े पाँच क्रिया हुई. ऐसा होने पर चित्त में चिंतन के आधार पर चित्रण होना शुरू होता है. उस चित्रण को दर्शन, वाद, शास्त्र स्वरूप में मैंने प्रस्तुत किया है.
सारा वांग्मय चित्रण है, सूचना है. अनुभव प्रमाण को चिंतन में लाकर चित्रण करने का काम मैंने पूरा कर दिया है. तुलन में पहले (जीव चेतना में) जो हम न्याय-धर्म-सत्य को तौल नहीं पाते थे उसको तौलने योग्य हम हो गए.
पठन साक्षात्कार की पृष्ठभूमि है. साक्षात्कार होते तक अध्ययन है. जीवन में तदाकार होने का गुण है - इसलिए साक्षात्कार होने पर वस्तु से जीवन तदाकार होना शुरू कर देता है. तद्रूप-तदाकार विधि से जीवन में साढ़े चार क्रिया से साढ़े पाँच क्रिया जुड़ जाने पर पूरा जीवन अनुभव से भर जाता है.
- दिसंबर २००८, अमरकंटक
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