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Monday, April 27, 2009

अनुसन्धान का लोकव्यापीकरण

मानव का पुण्य रहा तभी यह अनुसंधान सफल हो पाया। इस बात को लेकर मैं बहुत भरोसा करता हूँ, कि आदमी इस प्रस्ताव को स्वीकारेगा। मुझे इस प्रस्ताव में सर्व-शुभ का रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई पड़ा। तभी मैं इस प्रस्ताव के लोकव्यापीकरण में लग गया। कब तक? - आखिरी साँस तक! जब तक मेरी साँस चलेगा, मैं इस पर ही काम करूंगा।

इस प्रस्ताव में इतनी बड़ी सम्भावना दिखाई पड़ती है - आदमी-जात अपराध-मुक्त हो सकता है, अपना-पराया दीवार से मुक्त हो सकता है। यह दोनों हो गया तो धरती के साथ होने वाला अत्याचार समाप्त होगा। अत्याचार यदि रुका - तो धरती अपनी बची ताकत से कितना सुधार सकता है, वह सुधार लेगा।

लोकव्यापीकरण के क्रम में अनेक लोगों से मिलना हुआ। अनेक लोगों ने अपने-अपने तर्क को प्रस्तुत किया।

"तुम बहुत आशा-वादी हो!" - यह बताया गया

निराशावादिता से आपने क्या सिद्ध कर लिया, यह बताइये। मैंने उनसे पूछा।

"तर्क समाप्त हो गया तो हम monotonous हो जायेंगे।"

तर्क के लिए तर्क करने से monotony होती है, या तर्क को प्रयोजन से जोड़ने से monotony होती है? यह प्रस्ताव तर्क को प्रयोजन से जोड़ने के लिए है। प्रयोजन सम्मत तर्क समाधान को प्रमाणित करता है। समाधान आने से monotony दूर होगा, या व्यर्थ के तर्क को बनाए रखने से monotony दूर होगा? केवल चर्चा करते रहने से monotony दूर होगा, या उपलब्धियों से monotony दूर होगा?

"एक व्यक्ति की बात को कैसे माना जाए?"

व्यक्ति के अलावा आपको पढने/सुनने को क्या मिलेगा? जो कुछ भी आज तक कहा गया है, लिखा गया है, आगे भी जो कहा जायेगा, लिखा जायेगा - वह किसी न किसी व्यक्ति द्वारा ही होगा।

"बहुत सारे लोग तो इससे भिन्न बात को मानते हैं?"

बहुत सारे लोग मिल कर ही तो इस धरती को बरबाद किया। यदि कुछ लोग उस "भिन्न बात" को मना भी करते - तो इतना बरबाद नहीं होता। सब लोग उस "भिन्न बात" को मान लिए - तभी तो धरती बरबाद हुई। सब लोग बर्बादी के रास्ते पर हो गए - वह रास्ता ज्यादा ठीक है? या एक व्यक्ति सही की ओर रास्ता दिखा रहा है - वह ज्यादा ठीक है?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

मानव भाषा का स्वरूप

भाषा का प्रयोजन है - एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अपनी बात पहुंचाना। भाषा के तीन स्वरूप हम देखते हैं - (१) शरीर-विन्यास से भाषा, (२) लिपि से भाषा, (३) बोलने वाली भाषा। शरीर के विन्यास वाली भाषा (gesture language) को आदमी बहुत समय तक ले कर चला है। मूक-बधिरों के साथ आज भी इस भाषा का प्रयोग होता है। उसके बाद शब्द को भाषा स्वरूप दिया तो लिखने का एक आकार बनी। अक्षरों के संयोजन से शब्द बना। शब्दों के संयोजन से वाक्य बना। वाक्यों के संयोजन से ग्रन्थ बने। परम्परा में हर प्रकार की भाषाओँ के लिखने के अपने-अपने आकार हैं। उच्चारण करने का एक तरीका है। हर भाषा को समझने की अपनी विधि है - व्याकरण के रूप में। इन तीनो को मिला कर अनेक भाषाओँ का प्रयोग संसार में चल रहा है। उसमें से बहुत सारे भाषाएँ लिखित हैं, कुछ अलिखित भाषाएँ भी हैं। मैंने जहाँ शरीर-यात्रा शुरू किया - वहाँ "संकेत-भाषा" अलिखित रूप में है। जैसे आम लोग लिखित-भाषा से काम करते हैं, वैसे वे अलिखित भाषा से काम कर लेते हैं।

प्रश्न: मानव-भाषा का मूल आशय क्या है? क्या समझने के लिए भाषा है?

इसका उत्तर है - कारण, गुण, गणित को समझना। हर क्रिया के साथ कारण है, हर क्रिया के साथ गुण है, हर क्रिया का गणित के साथ कुछ दूर तक सम्बन्ध है। गणित से ज्यादा गहराई में गुण काम करता है। फ़िर सम्पूर्ण क्रिया के साथ कारण सम्बद्ध रहता है। इस आधार पर कारण, गुण, गणित के संयुक्त रूप में मानव-भाषा है। इसे हर भाषा में समानान्तर रूप में पहचाना जा सकता है।

जब आप कोई भाषा को प्रस्तुत करते हैं - तो किस आशय से किया, उसका अनुमान मुझ में होता है। वह अनुमान उस भाषा के अर्थ को छुआ रहता है। वह अर्थ - अस्तित्व में किसी स्थिति, गति, फल, परिणाम को इंगित करता है। यह हमारी कल्पना में आता है। कल्पना के अनुसार जब आगे चलते हैं तो उस वस्तु या घटना तक पहुँचते हैं। घटना घटित जो हुआ - वह वस्तु ही है। घटना जो होने वाला है - वह अनुमान है। घटना जो आचरण में रहता है, या वर्तमान रहता है - उसको हम समझ पाते हैं। इस तरह हम कारण-गुण-गणित विधि से हर वर्तमान-भूत-भविष्य की घटनाओं को स्वीकार कर पाते हैं। उसके अनुसार श्रेष्ठता के लिए प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न: मैं जब कुछ भाषा बोलता हूँ, तो उस प्रक्रिया में क्या-क्या होता है?

उत्तर: कुछ आप बोलते हैं, उसके मूल में आप के जीवन में इच्छा है - अपनी स्मृति को प्रकट करने के लिए। आप कुछ भी बोलते हैं, उसका स्मृति आप के पास रहता ही है। तीन तरह की स्मृतियाँ रहती हैं - घटी हुई घटना के रूप में, प्राप्ति के रूप में, और अपेक्षा के रूप में। जैसे - आपने "मामा" बोला। तो उसके मूल में मामा का स्मृति आपके जीवन में रहता ही है। यह चित्त से वृत्ति, वृत्ति से मन, मन से मेधस, मेधस से स्नायु-तंत्र, स्नायु-तंत्र से गल-तंत्र तक आ गया। गल-तंत्र में स्वर-ग्रंथि में उससे हलचल हुई। आपके उच्चारण का स्पष्टीकरण स्वर-ग्रंथि में हुआ। स्वर-ग्रंथि से गल-ग्रंथि तक, उससे जीभ, होठ, गाल, और तालू के योगफल में शब्द बनकर दूसरों तक पहुँचा। यह हर भाषा के साथ है। फ़िर सामने वाला इस बात को स्वीकारता है कि आप किस बात के लिए शब्द का प्रयोग किए।

शब्द दो प्रकार से समझ में आते हैं - भाषा के रूप में, और ध्वनी के रूप में। ध्वनी के एक तरीके को ही हम भाषा कहते हैं। भाषा में अर्थ होता है। ध्वनी में शब्द भर होता है। सुनने में अच्छा लगे ऐसी ध्वनी को संगीत से जोड़ा गया। भाषा में शब्द दो प्रकार के हैं - अर्थात्मक, और निरर्थक। अर्थ-संगत शब्द दर्शन, विचार, और शास्त्र के लिए उपयोगी हुए। एक-दूसरे के साथ भाषा इस तरह ज्ञान को स्पष्ट करने के अर्थ में प्रयुक्त हुई।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

जीवन, मेधस, और स्मृति

जीवन एक परमाणु है। उसमें ६१ क्रियाकलाप हैं - जो परावर्तन और प्रत्यावर्तन विधि से १२२ क्रियाएं हैं। जीवन का गति मनोवेग के बराबर है। मनोगति अक्षय गति है - जो गणित से परे है। मनोगति से चलता जीवन प्राण-कोशिकाओं के मध्य से चलता रहता है। उसकी गति से बनने वाला जो वातावरण है, वह एक तरंग को पैदा करता है। मन मेधस पर कैसा संकेत देना है, वैसा तरंग पैदा होता है। मेधस में स्नायु-तंत्र का गुच्छा रसायन-जल में तैरता रहता है। रसायन-जल में जीवन तरंग प्रसारित करता है। उन तरंगो को स्नायुएं पढ़ लेते हैं। मेधस तंत्र में जो सूक्ष्म तंतुएं या स्नायुएं बनी हैं, उनमें यह अभ्यास है। स्नायुएं पुनः जो रसायन-जल में तरंग पैदा करते हैं, उनको जीवन पढ़ लेता है। स्नायु-तंत्र के आधार पर मांस-पेशियाँ काम करते हैं। मांस-पेशियों और स्नायु-तंत्र के अनुसार हड्डियाँ काम करती हैं।

हर कार्य को समझने/सीखने का तंत्र जीवन ही है, तथा उस सीख/समझ को शरीर द्वारा गतिशील बनाने का स्त्रोत भी जीवन ही है।

स्मरण-शक्ति जीवन में होता है, मेधस में नहीं होता। अभी के प्रचलित-विज्ञान की जबरदस्ती है कि स्मरण मेधस में रखा है। मेधस में जीवन के संकेतो को ग्रहण करना, और जीवन के लिए संकेतों को प्रसारित करना - यही काम चलता रहता है। स्मरण जीवन का काम है। जीवन में ही कल्पनाशीलता है। कल्पनाशीलता से जीवन बहुत सारी चीजों को कल्पित करता है, बहुत सारी चीजों को शरीर द्वारा क्रियान्वयन करता है। जो क्रियान्वयन करता है, उसका आंकलन करता है - वही स्मरण है। कई बातों को सकारा रहता है, कई बातों को नकारा रहता है - यही स्मरण है। चित्त में चित्रण के रूप में सारी स्मृतियाँ बनी हैं। विचार याद आना - यह भी स्मृति का काम है। विश्लेषण वृत्ति की क्रिया है - उसका स्मृति चित्त में है। चयन मन की क्रिया है - उसकी स्मृति चित्त ही बनाए रखता है। मन जो आस्वादन करता है, उसका स्मृति चित्त में ही बना रहता है। तुलन जो वृत्ति करता है, उसकी स्मृति चित्त ही बना कर रखता है। उसके बाद आत्मा जब अनुभव करता है - उसकी स्मृति भी चित्त में बनी रहती है। अनुभव का भी स्मरण चित्त में रहता है। आत्मा और बुद्धि क्रिया के रूप में कार्यरत रहते हैं। स्मरण भी एक क्रिया ही है।

स्मृतियाँ मानव-परम्परा में अति-आवश्यकीय भाग है। समझदारी को व्यक्त करने के लिए स्मृति चाहिए। ईमानदारी को व्यक्त करने के लिए स्मृति चाहिए। जिम्मेदारी को व्यक्त करने के लिए स्मृति चाहिए। भागीदारी को व्यक्त करने के लिए स्मृति चाहिए।

प्रश्न: इससे पहले कौनसी शरीर-यात्राएं रही, इसकी कोई स्मृति क्यों नहीं रहती?

उत्तर: इस शरीर-यात्रा से पहले कौनसी शरीर-यात्राएं की थी - इसका कोई मतलब भी नहीं है। उससे कोई प्रयोजन भी नहीं है। शरीर-यात्रा करना जीवन क्रिया है। हर जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर में जो जीवन अब काम कर रहा है, वह पहले बहुत सारे शरीर-यात्रा कर चुका है। किस शरीर को चलाया? - इसका कोई मतलब नहीं है। शरीर को चलाने वाले जीवन का ज्ञान हो गया। जीवन शरीर को चलाता है, यह पता चल गया।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

अनुभव

अनुभव व्यापक में सम्पृक्तता का होता है। अकेले व्यापक नहीं है। अनुभव करने वाला नहीं हो तो व्यापक कहाँ/किसको समझ में आता है? अनुभव करने वाले के साथ में ही अनुभव होता है। अनुभव करने वाला व्यापक में ही है। अनुभव करने वाला अपने से अधिक का अनुभव करता है, समानता और कम को पहचानता है। समान और समान से कम के साथ व्यवहार और कार्य होता है। समान से अधिक के साथ अनुभव ही होता है।

अनुभव स्थिति में होता है। अनुभव का प्रमाण व्यवहार में संबंधों में प्रमाणित होता है।

हम अनुभव को प्रस्तुत नहीं करते हैं। अनुभव हुआ, इसका प्रमाण जीने में प्रस्तुत करते हैं।

अनुभव शाश्वतीयता के अर्थ में है। अनुक्रम से होने के अर्थ में है। एक से एक जुड़ कर होने के रूप में है। इसका नाम है - सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में जड़-प्रकृति होना अनुक्रम है। अनुक्रम होने से अनुप्राणित रहना हुआ। सम्पृक्तता वश अनुप्राणित रहना होता है। अनुप्राणित रहने से चार स्वरूप में व्यक्त हो गया - विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक )

Saturday, April 25, 2009

अध्ययन में एकाग्रता

अध्ययन में एकाग्रता की आवश्यकता है। एकाग्रता के लिए अध्ययन का लक्ष्य निश्चित करना आवश्यक है। बिना अध्ययन का लक्ष्य निश्चित हुए, एकाग्रता नहीं आ सकती, अध्ययन में मन नहीं लग सकता।

मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का लक्ष्य है - स्वयं में विश्वास संपन्न होना, और सर्व-शुभ सूत्र-व्याख्या स्वरूप में जीना। इस लक्ष्य के साथ अध्ययन करते हैं, तो मन लगता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००९)

संबंधों की पहचान

संबंधों की पहचान होने पर ही संबंधों में न्याय पूर्वक जीने की स्थिति बनती है। संबंधों में ही जीना होता है। संबंधों को छोड़ कर जीने की कोई स्थली ही नहीं है।

न्याय के लिए "संबंधों की पहचान" आवश्यक है। संबंधों की "पहचान" कहा है, संबंधों का "निर्माण" नहीं कहा है। हम संबंधों में हैं ही - हमें उन संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है।

संबंधों की पहचान होने पर मूल्यों का निर्वाह होता ही है। संबंधों के संबोधन या नाम तो हम पा गए हैं - लेकिन उनके प्रयोजनों को नहीं पहचाने हैं। प्रयोजनों की पहचान के लिए ही अध्ययन है।

हम जहाँ हैं - अपनी उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजनशीलता को पहचान ही सकते हैं। कम से कम अपने परिवार में अपनी उपयोगिता को पहचानने का अधिकार हरेक के पास रखा है। समाज और व्यवस्था परिवार के ही आगे की कडियाँ हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Thursday, April 23, 2009

सहअस्तित्व में अनुभव ही परम-प्रमाण है.

आदर्शवाद ने शब्द को प्रमाण माना। उसके बाद आप्त-वाक्य को प्रमाण माना। उसी के अन्तरंग प्रत्यक्ष, अनुमान, और आगम को प्रमाण माना। अंततोगत्वा शास्त्र को प्रमाण माना। इस तरह आदर्शवाद बनाम ईश्वरवाद ने जीवित-मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।

भौतिकवाद या प्रचलित-विज्ञान ने यंत्र को प्रमाण माना। जीवित-मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।

मनुष्य कोई सच्चाई का प्रमाण हो सकता है, यह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों ने नहीं पहचाना। दोनों व्यक्तिवादिता की ओर ही ले जाते हैं। व्यक्तिवादिता के रहते दूसरे मनुष्य को प्रमाण मानना बनता ही नहीं है।

सहअस्तित्व ही परम-सत्य है। सहअस्तित्व में अनुभव ही सत्य का परम-प्रमाण है। परम का मतलब - जिससे ज्यादा नहीं हो सकता, न उससे कम में काम चलेगा। सह-अस्तित्व में अनुभव मनुष्य ही कर सकता है। अनंत मनुष्यों के अनुभव करने का स्त्रोत सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व के अलावा अनुभव करने की कोई वस्तु नहीं है। जागृत मनुष्य ही सत्य का प्रमाण अपने जीने में प्रस्तुत करता है। यह दूसरे व्यक्तियों के अध्ययन के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बनता है।

मनुष्य को प्रमाण मानने के फलस्वरूप ही अध्ययन सम्भव है। अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है, और मैं अध्ययन पूर्वक प्रमाणित हो सकता हूँ - जब तक यह स्वयं में स्थिर नहीं होता, तब तक यह अनुसंधान ही है - जो अंधेरे में हाथ मारने वाली बात है। मनुष्य को प्रमाण का आधार मानने पर अंधेरे में हाथ मारने वाली बात नहीं रहती।

अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व स्वरूपी है। यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, और वस्तुगत सत्य के संयुक्त स्वरूप में है। ये तीनो मिल कर सहअस्तित्व है। स्थिति-सत्य से व्यापक वस्तु इंगित है। वस्तुस्थिति सत्य से दिशा, देश, और काल इंगित है। दो ध्रुवों के साथ दिशा की पहचान होती है। तीन ध्रुवों से देश की पहचान होती है। क्रिया की अवधि ही काल है। वस्तुगत सत्य से रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म इंगित है।

विज्ञान का आधार सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य होना चाहिए, या अभी जो सोचा जा रहा है - वह होना चाहिए? आप ही सोच लो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८)

नियम, नियंत्रण, संतुलन

आचरण ही नियम है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन के स्वरूप में आचरण है, वही पदार्थावस्था का नियम है। प्राणावस्था में सारक-मारकता के स्वरूप में आचरण है, वही प्राणावस्था का नियम है। जीवावस्था में क्रूर-अक्रूर के स्वरूप में आचरण है, जो जीवावस्था का नियम है। ज्ञानावस्था में जागृति पूर्वक ही आचरण की पहचान सम्भव है। ज्ञानावस्था में न्याय ही नियम है।

आचरण की निरंतरता ही नियंत्रण है। एक-एक के रूप में आचरण या नियम को पहचाना जाता है। परम्परा के रूप में नियंत्रण पहचान में आता है। पदार्थावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - परिणाम-अनुशंगियता। प्राणावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - बीज-अनुशंगियता। जीवावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - वंश-अनुशंगियता। ज्ञानावस्था में परम्परा का स्वरूप जागृति के बाद ही पहचान में आता है। ज्ञानावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - समाधान। समाधान-परम्परा या संस्कार-अनुशंगियता से ही ज्ञानावस्था का नियंत्रण प्रमाणित होता है। समाधान ही सुख है, जो मानव-धर्म है। सुखी मनुष्य परम्परा ही स्वयं-स्फूर्त नियंत्रित होती है।

उपयोगिता और पूरकता ही संतुलन है। पदार्थावस्था प्राणावस्था के लिए उपयोगी है। प्राणावस्था पदार्थावस्था के लिए पूरक है। प्राणावस्था जीवावस्था के लिए उपयोगी है। जीवावस्था प्राणावस्था के लिए पूरक है। इस तरह आगे और पिछली अवस्था के साथ पूरकता और उपयोगिता के साथ संतुलन प्रमाणित होता है। मनुष्य (ज्ञानावस्था) का संतुलन जागृति के बिना प्रमाणित नहीं होता। जागृति के बाद ज्ञानावस्था संतुलन (पूरकता और उपयोगिता) को व्यवस्था में जीने के स्वरूप में प्रमाणित करती है। यही सत्य (सहअस्तित्व) का परम प्रमाण है।

इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य ही मनष्य के लिए क्रमशः नियम, नियंत्रण, और संतुलन का स्वरूप है।

- श्रद्धेय श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

अनुभव करना हर व्यक्ति के लिए समीचीन है.

अनुभव करना हर व्यक्ति के लिए समीचीन है। समीचीन का मतलब निकटवर्ती है।

अनुभव करना उतना ही दूर है, जितना तीव्रता से हम अनुभव करना चाहते हैं। चाहत में वरीयता आने के बाद देर नहीं लगता। अनुभव-पूर्वक ही मैं मानवीयता को प्रमाणित कर सकता हूँ - जब यह निश्चयन स्वयं में हो जाता है - तब अध्ययन के लिए मन लगना शुरू होता है। जब तक यह निश्चयन नहीं होता, तब तक प्रस्ताव में कमी निकालने में ही मन लगा रहता है। कमी निकालना कोई अध्ययन नहीं है।

सच्चाई कोई मनुष्य से दूर नहीं है। इसीलिये सच्चाई में अनुभव करना मनुष्य के लिए निकटवर्ती है। सच्चाई को स्वीकारने में मनुष्य आनाकानी करता है, उसके लिए इधर-उधर का भटकाव रखा हुआ ही है। अध्ययन के लिए मन लगाना ही पड़ता है। अध्ययन के लिए मन लगाना ही पुरुषार्थ है। अर्थ यदि अस्तित्व में वस्तु के स्वरूप में समझ में आ जाता है, तो आदमी पार पा जाता है। मैंने भी यही भर किया है। अस्तित्व में मैंने वास्तविकताओं को पहचाना है, उसी के अनुरूप परिभाषाएं दी हैं। परिभाषाओं से अस्तित्व में वस्तु इंगित होती है, मनुष्य को। इंगित होने का अधिकार हर व्यक्ति में कल्पनाशीलता के रूप में रखा है। हर मनुष्य-जीवन कल्पनाशीलता को प्रकट करता है। यह हर मनुष्य की मौलिकता है। ईश्वरवाद ने उपदेश-विधि से इस मौलिकता का अवमूल्यन किया। भौतिकवाद ने भोग-वाद को ला कर इस मनुष्य की इस मौलिकता का निर्मुल्यन किया। अब सार्थकता क्या है - आप सोच लो!

अनुभव मूलक विधि से अनुभव-गामी पद्दति (अध्ययन विधि) को तैयार करने का काम मैंने किया है। यह संसार में अभी तक नहीं हो पाया था। सूचना, सूचना का पठन, पठन से अध्ययन, अध्ययन के बाद वस्तु से तदाकार होना, वस्तु के साथ अपने सम्बन्ध की पहचान होना, फ़िर जीने में संबंधों का निर्वाह होना - यही कुल मिला कर क्रम है।

प्रश्न: हम जब मध्यस्थ-दर्शन के आपके प्रस्ताव को सुनते हैं, सोचते हैं - तो कभी-कभी हमको लगता है, कुछ समझ में आ गया। क्या वही साक्षात्कार है?

उत्तर: नहीं। अध्ययन के बाद साक्षात्कार है।

प्रश्न: फ़िर वह जो लगता है "कुछ समझ आ गया" - वह क्या है?

उत्तर: वह आपकी इस प्रस्ताव के प्रति स्वीकृति है, जो detail के साथ अभी channelize नहीं हुआ है। detail के साथ channelize होने का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ। वह सिलसिला बनने का तड़प आप में रखा हुआ ही है। वह सिलसिला बनने के लिए एक मात्र विधि अध्ययन ही है। एक-एक बात का जो आप अध्ययन करते हो, उसका एक दूसरे के साथ सम्बन्ध-सूत्र फैलता है। वह सम्बन्ध-सूत्र अनुभव में जा कर स्थिर होता है।

साक्षात्कार का मतलब है - अध्ययन पूर्वक स्वयं में हुई स्वीकृति के अनुरूप अस्तित्व में वास्तविकताओं के साथ तदाकार होना। साक्षात्कार अधूरा नहीं होता।

अनुक्रम से अनुभव होता है। मनुष्य जीव-अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित है, सम्बंधित है? जीव-अवस्था प्राण-अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित है, सम्बंधित है? प्राण-अवस्था पदार्थ-अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित है, सम्बंधित है? पुनः इन चारों अवस्थाओं का क्या अन्तर-सम्बन्ध है? शरीर का जीवन के साथ सम्बन्ध, जीवन का जीवन के साथ सम्बन्ध - ये सब जुडी हई कड़ियों को पहचानना ही अनुक्रम है।

प्रश्न: साक्षात्कार हुआ है, इसका क्या प्रमाण है?

उत्तर: समझ में आना ही साक्षात्कार होने का प्रमाण है। अस्तित्व में वास्तविकताओं के प्रयोजन को पहचान पाना, और निर्वाह कर पाना ही साक्षात्कार होने का प्रमाण है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक )

Monday, April 20, 2009

शब्द, अर्थ, वस्तु

प्रश्न: आप अपनी बात भाषा का प्रयोग करके कहते हैं। जिसको मैं सोचता हूँ। लेकिन मेरे सोचने में भी भाषा का पुट तो है - फ़िर मेरा समझना कब हुआ?

उत्तर: भाषा संप्रेषित होने या व्यक्त होने के लिए माध्यम है। हर मनुष्य-जीवन में उसके अर्थ को तदाकार-तद्रूप विधि से समझने का अधिकार रखा हुआ है। समझ की जगह में भाषा नहीं है। समझने में शब्द-मुक्ति है। व्यक्त होने के लिए शब्द है। समझ शब्द नहीं है। समझ को शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं।

शब्द के द्वारा हम अर्थ को पहचानते हैं। अर्थ के द्वारा वस्तु को पहचानते हैं। वस्तु के साथ हम तदाकार होते हैं। फलस्वरूप समझ में आता है। तदाकार होने का अधिकार हर मनुष्य-जीवन में रखा हुआ है। यह हर मनुष्य में प्रकृति-प्रदत्त विधि से है। इसको मनुष्य को बनाना नहीं है। इसका केवल अध्ययन के लिए प्रयोग करना है।

प्रश्न: आप कहते हैं - "समझने में तर्क नहीं है।" इससे क्या आशय है?

उत्तर: साक्षात्कार, बोध, अनुभव, अनुभव-प्रमाण बोध, फ़िर चिंतन तक तर्क कुछ भी नहीं है। तर्क लगाते हैं, तो अनुभव को हम नकार दिए, दूर कर दिए। अनुभव मूलक विधि से न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करने के लिए जब तुलन में लाये तो वह "तर्क संगत" हो गया। इस तरह असीम ज्ञान को तर्क-सीमा में लाना बनता है। यह जीवन में निहित विधि है। जीवन में ही यह विधि है - और किसी वस्तु में नहीं है। इस विधि से असीम ज्ञान को संप्रेषित करने के लिए ६ सूत्रों में ले आए - नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य। क्यों ले आए? दूसरों को अध्ययन कराने के लिए। जिससे जागृति की परम्परा बन सके।

समझ को प्रमाणित करने के लिए भौतिक-रासायनिक संसार का कैसे उपयोग करना है, उसके लिए तर्क है। शरीर भी एक भौतिक-रासायनिक रचना है। शरीर का समझ को प्रमाणित करने के लिए कैसे उपयोग करना है - उसके लिए तर्क है।

जीवन के साथ कोई तर्क नहीं है। आप सोचते हो, मैं भी सोचता हूँ। इसमें तर्क क्या हुआ?

समाधान के साथ कोई तर्क नहीं है। करके देखिये आप समाधान के साथ तर्क! कुछ तर्क बनता ही नहीं है। समाधान को केवल स्वीकारना और प्रमाणित करना ही बनता है।

व्यर्थ का तर्क कुंठा तक ही ले जाता है।

मध्यस्थ-दर्शन मनुष्य के समाधानित होने के लिए अस्तित्व की समझ का प्रस्ताव है। इसको समझने में कोई तर्क नहीं है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

सम्पूर्णता और पूर्णता

सम्पूर्णता और पूर्णता प्रसिद्द है।

भौतिक-रासायनिक संसार (जड़ प्रकृति) "सम्पूर्णता" के अर्थ में क्रियाशील है। हर भौतिक-रासानिक इकाई अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है। फलस्वरूप त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। यह एक सिद्धांत है।

चैतन्य संसार (जीवन) "पूर्णता" के अर्थ में क्रियाशील है। जीव-अवस्था में जीवन गठन-पूर्णता सहित वंश-अनुशंगियता विधि से शरीर रचना की व्यवस्था के अनुसार क्रियाशील है। ज्ञान-अवस्था (मनुष्य) में जीवन क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता के अर्थ में क्रियाशील है।

जड़ प्रकृति में "सम्पूर्णता" की बात है। चैतन्य प्रकृति में "पूर्णता" की बात है।

जड़ प्रकृति (भौतिक-रासायनिक संसार) जीव-शरीर और मनुष्य-शरीर के स्वरूप में भी है। इस तरह भौतिक-रासायनिक संसार गठन-पूर्णता का प्रमाण (जीने में) प्रस्तुत करता है। जीवन जड़-प्रकृति को उपयोग करते हुए अपने होने के प्रमाण को प्रस्तुत करता है।

जो "है" - उसी का अध्ययन है। "है" से वर्तमान इंगित है। "हुआ था", "हो जायेगा", "हो सकता है" का अध्ययन नहीं है। "है" के अनुसार ही "प्रवृत्ति" पहचानी जाती है। जड़-प्रकृति है, और चैतन्य-प्रकृति है। जड़-प्रकृति में सम्पूर्णता की प्रवृत्ति है। चैतन्य प्रकृति में पूर्णता की प्रवृत्ति है। अस्तित्व में प्रवृत्ति इतना ही है।

जड़-प्रकृति में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ गुणात्मक परिवर्तन है। मनुष्य में ही गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता को प्रकाशित करने का अवसर है। यह अवसर कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के रूप में है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००९, अमरकंटक)

Thursday, April 16, 2009

अनुभव करना, अनुभव कराना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

दर्शन, वाद, शास्त्र के रूप में जो मैंने वांग्मय लिखा है, वह मेरा अनुभव-मूलक विधि से किया गया चित्रण है - जो आपके लिए सूचना है। सूचना का पठन अध्ययन नहीं है। पठन अध्ययन की पृष्ठ-भूमि है। जीवन में तदाकार-तद्रूप होने का गुण रखा हुआ है। उसके आधार पर अध्ययन विधि में अस्तित्व की वास्तविकताओं के साथ तदाकार होते हैं। वास्तविकताओं से तदाकार होना ही साक्षात्कार है। चित्त में साक्षात्कार होते तक अध्ययन है।

प्रश्न: क्या साक्षात्कार होना है?

उत्तर: पहले सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना। सह-अस्तित्व में जीवन साक्षात्कार होना। सह-अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण साक्षात्कार होना। अध्ययन से ये तीनो भाग का साक्षात्कार होना हुआ। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद बुद्धि में बोध होना स्वाभाविक है। साक्षात्कार पूर्ण हुआ है - इसका प्रमाण है, बुद्धि में बोध होना।

प्रश्न: साक्षात्कार पूर्ण होने के "बाद" बुद्धि में बोध होता है, या साक्षात्कार होने के "साथ-साथ" बुद्धि में बोध होता है?

उत्तर: साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद बुद्धि में बोध होता है। अधूरे को बुद्धि स्वीकारता नहीं है। जब कभी भी बोध होगा - पूर्णता के साथ ही होगा। पूर्णता के बारे में आपको बताया - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। जीवन गठन-पूर्ण परमाणु के स्वरूप में साक्षात्कार होने के पहले कोई बोध नहीं होगा। सार रूप में - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता साक्षात्कार होने के बाद बुद्धि में सह-अस्तित्व बोध हो जाता है।

बोध होने के बाद तत्काल ही आत्मा में अनुभव होता है, उसमें कोई देर नहीं लगती। उसके बाद अनुभव मूलक विधि से बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध, प्रमाण-बोध के आधार पर संकल्प, संकल्प के आधार पर चिंतन, और चिंतन के आधार पर चित्रण।

अध्ययन तक पुरुषार्थ है। अनुभव के बाद अभ्यास है। अनुभव मूलक अभ्यास का स्वरूप है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। अनुभव मूलक जीने से "अखंड समाज" स्वरूप में अभय, तथा "सार्वभौम व्यवस्था" स्वरूप में सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है।

अनुभव होने के बाद अनुभव-आकाश में जो देखने/समझने का लक्ष्य बनता है, उसको देखा जा सकता है। यह लक्ष्य अनुभव के पहले भी बन सकता है, अनुभव के बाद भी बन सकता है। जैसे - मेरा लक्ष्य बना, जीवन-परमाणु के अंशों को गिनना, उसके आचरणों को अलग-अलग पहचानना।

मुझे समाधि-संयम पूर्वक अनुभव हुआ। संयम के पहले मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ। अनुभवगामी विधि में (अध्ययन विधि) में जो हम अध्ययन कराते हैं, उसमें समाधि को bypass किए हैं। सीधे-सीधे संयम-काल में मुझे जो अध्ययन हुआ, वह आपको अध्ययन करा रहे हैं। यह बात आपको समझ में आता है या नहीं आता है, मैं नहीं कह सकता! यह बात आपको समझ में आता है तो अध्ययन के प्रति आपका गंभीर होना बन जाता है। समाधि-संयम का जो फल मुझे मिला उसको मैं मानव-जाति को संप्रेषित कर रहा हूँ। क्या ग़लत कर रहा हूँ? आप ही बताओ!

अनुभव में सम्पूर्ण अस्तित्व आ जाता है। अनुभव के अलावा कुछ बचता ही नहीं है। इस तरह अनुभव के बाद हर व्यक्ति "सर्वज्ञ" हो जाता है। संयत भाषा में कहें तो - अनुभव मूलक विधि से मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करता है। अनुभव करना, अनुभव कराना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

प्रश्न: अनुभव कराने के लिए क्या करोगे?

उत्तर: अध्ययन के लिए प्रेरणा देंगे। अपने जीने में अनुभव-प्रमाण को प्रस्तुत करेंगे। प्रेरणा और प्रमाण पूर्वक दूसरे व्यक्ति में अनुभव के लिए मार्ग प्रशस्त होता है। प्रमाण के बिना प्रेरणा सफल नहीं होता। प्रमाण मानव-परम्परा में शरीर के साथ ही होगा। इसी लिए शरीर की आवश्यकता है। अकेले जीवन (बिना शरीर के) प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकता। अपने में संतुष्ट जरूर रह सकता है। सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। शरीर भी सह-अस्तित्व में तैयार हुआ है। जीवन भी सह-अस्तित्व में तैयार हुआ है।


सह-अस्तित्व सीमित नहीं है। व्यापक वस्तु सीमित नहीं है। सह-अस्तित्व और व्यापक वस्तु का ज्ञान भी सीमित नहीं है। इसमें अनुभव करने के लिए हर व्यक्ति में प्यास है, कुछ में जिज्ञासा है - ऐसा मैं मानता हूँ। इस प्यास और जिज्ञासा को उत्तरित करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन करने का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव की रोशनी में धरती में प्रचलित सभी राज्य और धर्म संविधानों की निरर्थकता समीक्षित हो गयी।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

Monday, April 6, 2009

जीव-चेतना में "न्याय" केवल चाहत के रूप में है.

जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य में न्याय "चाहत" के रूप में होता है, न्याय प्रमाणित होना नहीं बन पाता। जीवन में जो १० क्रियाएं हैं - उनमें से ४.५ क्रियाएं ही जीव-चेतना में प्रमाणित हो पाती हैं। बाकी ५.५ क्रियाओं के प्रमाणित होने की अपेक्षा बनी रहती है। ऐसे में मनुष्य स्वयं के साथ न्याय चाहता है, पर दूसरों के साथ अन्याय करता रहता है। "स्वयं के साथ न्याय" का मतलब ऐसा निकलता है - मेरा सुविधा-संग्रह बना रहे, दूसरों का चाहे जो भी हो। यही सोच आगे समुदाय के स्तर पर है, यही देश के स्तर पर है। "मेरे समुदाय के साथ न्याय", "मेरे देश के साथ न्याय"... इसका मतलब यही निकलता है, मेरे समुदाय का सुविधा-संग्रह बना रहे, बाकी सब चाहे मिट जाएँ। मेरे देश का सुविधा-संग्रह बना रहे, बाकी सब चाहे मरें। ऐसे क्या न्याय होगा?

जीव-चेतना में "प्रसन्नता" को न्याय माना, "दर्द" को अन्याय माना। प्रसन्नता (pleasure) और दर्द (pain) को संवेदनाओं के अर्थ में पहचाना। जैसे - एक परिवार के सदस्य की हत्या हो गयी। उस परिवार के सभी सदस्य दर्द से भर गए। अब क्या करें? उस हत्यारे की हत्या करने से, उसे पीड़ा पहुंचाने से, दर्द से भरे परिवार को प्रसन्नता मिलती है - ऐसा सोचा गया। इसको "न्याय" माना। "हमको दर्द नहीं होना चाहिए!" - इसको मौलिक-अधिकार माना। इसको jurisprudence कहा। इस धरती के सभी देशों की न्याय-संहिताओं की सोच इस पर बैठा है। "दर्द हुआ", उसके बदले में "प्रसन्न" करने के लिए राज्य-व्यवस्था बना दी। किस दर्द के बदले में क्या दंड देना है - इसको संविधान कह दिया। इस तरीके से न्याय तक हम क्या पहुँच सकते हैं? क्या एक गलती को दूसरी गलती से रोका जा सकता है? क्या एक अपराध को दूसरे अपराध से रोका जा सकता है?

जीव-चेतना में जीते हुए - न्याय की अपेक्षा जीवन में होती है, लेकिन न्याय को प्रमाणित करने की योग्यता नहीं रहती। न्याय मानव-चेतना में ही प्रमाणित होता है। न्याय का मतलब है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। सम्बन्ध जीवन और जीवन के बीच होता है। जीवन को समझे बिना न्याय कैसे होगा?

जीवचेतना में जीते हुए संबंधों के नाम तो हम पा गए हैं, पर संबंधों के प्रयोजन पहचान नहीं पाये हैं। इससे क्या होता है - जब तक "स्वयम के लिए न्याय" होता रहता है - तब तक हम सम्बन्ध को निभाते रहते हैं, जब "स्वयं के लिए न्याय" नहीं होता - या अपनी संवेदनाओं के अनुकूल बात नहीं होती, तो सम्बन्ध को जूता मार देते हैं। जबकि जीवन और जीवन का सम्बन्ध निरंतर बना ही हुआ है। संबंधों में न्याय प्रमाणित होने के लिए संबंधों की सटीक पहचान होना आवश्यक है। उसके लिए जीवन को समझना आवश्यक है। देखिये - शरीर के किसी अंग-प्रत्यंग (जैसे हाथ, पैर, दिमाग, ह्रदय, गुर्दा) में न्याय की प्यास नहीं है। न्याय की प्यास जीवन में ही है। शरीर को हम जीवन माने रहते हैं - जीव-चेतना में। ऐसे में क्या जीव-चेतना में न्याय मिल सकता है?

मानव-चेतना पूर्वक न्याय के प्रमाणित होने की प्रथम-स्थली है - परिवार। इस तरह व्यवस्था का जो स्वरूप निकलता है, वह है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था। इस तरह संविधान का जो स्वरूप निकलता है - वह है, मानवीय आचरण स्वरुपी संविधान। क्या होना चाहिए - आप सोच लो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
न्याय की चाहत और न्याय का प्रमाण

Friday, April 3, 2009

सीधे-सीधे समझने का उपाय

प्रश्न: हम समझने में अटक कैसे जाते हैं? सीधे-सीधे समझ क्यों नहीं जाता?

उत्तर: इसका कारण है - पूर्व स्मृतियाँ। मनुष्य के पास जीवन में पूर्व स्मृतियाँ रहते ही हैं। हम जब मानव-चेतना संबन्धी बात का अध्ययन करना शुरू करते हैं, उसमें जब कभी भी विमुखता आती है - वह पूर्व-स्मृतियों के इसके विपरीत होने से होती है। पूर्व-स्मृतियों के इसके अनुकूल होने पर यह continue होता है।

प्रश्न: जीव-चेतना में जी हुई पूर्व-स्मृतियाँ इसके अनुकूल कैसे हो सकती हैं?

उत्तर: पूर्व-स्मृतियों में हमारी शुभ के लिए "सहज-अपेक्षा" को लेकर भी हमारी स्मृतियाँ हैं। उसमें काहे को कंजूसी करें? हर व्यक्ति के पास शुभ के पास जाने का रास्ता, चाहे छोटा हो, पतला हो, संकीर्ण हो - पर बना हुआ है। संवाद करते हुए, शुभ के लिए सहज-अपेक्षा से जुडी स्मृतियों पर ध्यान दिलाने की आवश्यकता है। प्रतिकूल पूर्व-स्मृतियों को आगे बिछाने से हम अटक जाते हैं।

इस आधार पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला - यदि हम मानव-चेतना संबन्धी बात शुरू करते हैं, तो पीछे की जीव-चेतना संबन्धी बातों को लेकर जितनी भी स्मृतियाँ हैं, उनको थोड़ी देर के लिए रोक के रखा जाए। इसके साथ मिलाने का प्रयास नहीं किया जाए। इसके साथ तौलने का प्रयत्न न किया जाए। क्योंकि ऐसा करने से मानव-चेतना संबन्धी बात का अवगाहन करने में अवरोध होता है। पूर्व-स्मृतियों को छोड़ कर यदि वस्तु पर ध्यान दिया, वस्तु के प्रयोजन पर ध्यान दिया - तो उससे अपना गति बनता है। इस विकल्प का जो प्रस्ताव है - उससे कोई वास्तविकता इंगित है, आपकी कल्पना यदि उस तक पहुँचा देता है, तो उसको स्वीकारने, बोध करने, अनुभव करने, और जीने की कड़ियों के साथ सुना जाए - तो समझ में आता है। यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो केवल सुनने वाली बात हो गयी, सुनते हैं - फ़िर भूल भी जाते हैं। इस तरह प्रयोजन के साथ हम जुड़ते नहीं हैं।

एक सिद्धांत है - सुना हुआ चीज भूल सकता है। समझा हुआ चीज हमको भूल नहीं सकता।

प्रश्न: अपने जीने में हमने पहले गलतियां किए हैं - फ़िर अब नए सिरे से शुरुआत कैसे करें? उनका प्रभाव तो है ही मुझ पर। उसको कैसे अलग करके रखा जाए?

उत्तर: भ्रमित-अवस्था में जीता हुआ आदमी गलतियां करने में विवश होता है, गिरफ्त नहीं होता। क्योंकि सच्चाई के लिए खिड़की कहीं न कहीं हर व्यक्ति में खुली ही रहती है। सहीपन की अपेक्षा में ही हम गलती करते हैं। सहीपन की स्वयं में अपेक्षा ही अध्ययन का आधार है। यह सूत्र है। आपको मैंने कुख्यात डाकू देवी सिंह के बारे में बताया था - जिससे मैं मिला था। उसने बीसियों खून किए होंगे। उससे मैंने पूछा - क्या अपने बच्चों को यही करवाना चाहोगे? उसने उत्तर दिया - "नहीं, यह वाहियात काम है। मेरी मजबूरी है, जो मैं इसे करता हूँ। यदि मैं उनको नहीं मारूंगा तो वे मुझे मार देंगे।"

आप अपनी जिन्दगी में बहुत कुछ पहले से सुने हैं, पढ़े हैं, स्वीकारे हैं, अस्वीकारे हैं। कुछ बातों में आप विवश हैं, कुछ में प्रसन्न हैं - ये सब के साथ आप गुजरे ही हैं। इन गुजरी हुई बातों के साथ आप पूरा संतुष्ट नहीं हुए हैं। पूरा संतुष्ट होने के लिए आपके सामने यह मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। पूरा संतुष्ट होने का जो यह प्रस्ताव है - उसको ठीक से सुनना होगा, जीने की कड़ियों के साथ सुनना होगा - तभी आप सार्थक रूप में सुन पायेंगे, समझ पायेंगे। इस बात को आपको स्वयं में तय करना होगा। जब यह तय होता है - तब पूर्व-स्मृतियाँ suspend होता है।

सच्चाई को समझते हुए अपनी विवशता को बारम्बार रास्ते में ला कर बिछाना - उचित होगा या अनुचित होगा? इस तरह विवशता को बार बार आगे लाना समझने में लगने वाले समय को बढ़ा देता है। इसलिए यदि शीघ्रता से समझना है तो आप इस उपाय को अपना सकते हैं - अपनी विवशताओं से सम्बंधित जो बातें हैं, उनको suspend करके रखा जाए। प्रस्ताव को समझने के बाद फ़िर सोचें। चाहत के रूप में हम सभी ने शुभ को ही चाहा है। अच्छे-पन की तृषा चाहत के रूप में हर व्यक्ति में है। जब अच्छेपन को स्वीकारने जाते हैं, तो पूर्व-स्मृतियाँ परेशान करती हैं - हमने ऐसा सोचा था, ऐसा किया था, दूसरे ने ऐसा किया था, आदि। ये गति में अवरोध करते हैं।

सर्व-शुभ का स्वरूप जब समझ में आ जाता है तो विवशताएँ अपने आप से wipe off हो जाती हैं। पत्ते का तने से चिपके रहने का ताकत जब तक रहता है - वह चिपके रहता है। जब कभी भी वह ताकत समाप्त हो जाता है, पत्ता अपने आप से नीचे झड़ कर गिर जाता है। इस तरह जो हमारे पुराने निरर्थक सोच-विचार जो स्मृतियों के रूप में हैं, वे समझ स्वयं में स्थापित होने पर अपने आप झड़ जाते हैं। उनका कोई नामोनिशान नहीं रहता।

जीव-चेतना में हमने जितनी भी विवशताओं का अम्बार लगाया हो - वह एक कागज़ के टपोरे जैसा ही है। इस टपोरे को ढेर करने के लिए एक चिंगारी ही पर्याप्त है। भ्रम स्वयं में पतंगा जैसे हिलता ही रहता है। भ्रम में जीता आदमी अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है - इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है। इसीलिये समझ में आने पर वह उखड जाता है। भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय, प्रलोभन, और आस्था के रूप में ही हैं। इसके अलावा भ्रम का और कोई पहुँच कुछ भी नहीं है।

आप एक बार सन्मार्ग के लिए, सदबुद्धि के लिए, सद्प्रवृत्ति के लिए एक बार कल्पना करके तो देखिये! शब्दों से इंगित वस्तु हमारी कल्पना में आ जाए, उसको अनुभव-प्रमाण पूर्वक अपने जीने में प्रमाणित होने की कड़ियों के साथ कल्पना करके देखिये। कल्पना तो जीवन में रहता ही है। इसमें किसको क्या तकलीफ है? समझने के बाद सोचिये समझ के अनुसार जीना है या नहीं?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो

प्रश्न: आप कहते हैं - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो।" अभी की स्थिति में मैं स्वयं में "जाने" हुए का कोई आधार तो पाता नहीं हूँमैं कल्पनाशील हूँ, यह स्वीकार हैमैं कल्पना पूर्वक "मानता" हूँ, यह भी स्वीकार हैकिसके जाने हुए को मैं मान लूँ?

उत्तर: सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक मैंने समस्त अस्तित्व को "जाना" है। मैं अपने जाने हुए को अपने जीने (व्यवहार, कार्य, और उपकार) में प्रमाणित करता हूँ।

प्रश्न: तो आप के "जाने" हुए को मैं "मान" लूँ?

उत्तर: और फ़िर उस "माने" हुए को आप "जान" लो। "जानने" की वस्तु सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व है। माने हुए को जानना "अध्ययन" है। अनुभव पूर्वक जाने हुए को मानना "प्रमाण" है। प्रमाण की ही परम्परा बनती है।

प्रश्न: यानी मैं मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद के आपके प्रस्ताव को "मान" कर, उससे इंगित वास्तविकताओं को जब अस्तित्व में पहचान लेता हूँ - तो उससे मेरा "जानना" हुआ। फ़िर मैं अपने उस जाने हुए को जब मैं अपने जीने (व्यवहार, कार्य, और उपकार) में प्रमाणित करने जाऊँगा तो वह "जाने हुए को मानना" होगाक्या ऐसा है?

उत्तर: हाँ, ऐसा ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

Thursday, April 2, 2009

मंगल-मैत्री की आधार-भूमि सर्व-शुभ ही है.

प्रश्न: आप सह-अस्तित्व में अनुभव में ही "समझ" को ध्रुवीकृत करते हैंअभी अध्ययन-क्रम में हम उस बिन्दु तक पहुंचे नहीं हैंऐसे में अध्ययन-रत साथियों में मंगल-मैत्री का क्या आधार हो?

उत्तर: मंगल-मैत्री की आधार-भूमि सर्व-शुभ ही है।

(१) ये सब लोग सर्व-शुभ चाहने वाले हैं, सर्व-शुभ के कार्य में लगे हैं। वैसे ही मैं भी हूँ।
(२) सर्व-शुभ से ही अपने-पराये की दीवार गिरती हैं, और अपराध-मुक्ति होती है।
(३) इसी लिए ये मेरे साथी हैं, और उनके साथ मैत्री स्वाभाविक है।

इसमें क्या कोई अतिवाद है?
इसमें क्या कोई खोट है?
इसमें क्या कोई व्यक्तिवाद है?
इसमें क्या कोई समुदायवाद है?

इसको आप तर्क विधि से सोच लीजिये। तर्क से अधिक कल्पना होता है। इसको आप कल्पना विधि से भी सोच कर देखिये।

इस ढंग से हम मंगल-मैत्री का रास्ता साफ़ देख पाते हैं। सबके साथ हम जी सकते हैं, रह सकते हैं। अपने साथियों के प्रति शुभकामना व्यक्त कर सकते हैं। उनके सर्व-शुभ कार्यों की सफलता के लिए हम प्रसन्न और रोमांचित भी हो सकते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)