प्रश्न: आप कहते हैं - "जाने हुए को मान लो, माने हुए को जान लो।" अभी की स्थिति में मैं स्वयं में "जाने" हुए का कोई आधार तो पाता नहीं हूँ। मैं कल्पनाशील हूँ, यह स्वीकार है। मैं कल्पना पूर्वक "मानता" हूँ, यह भी स्वीकार है। किसके जाने हुए को मैं मान लूँ?
उत्तर: सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक मैंने समस्त अस्तित्व को "जाना" है। मैं अपने जाने हुए को अपने जीने (व्यवहार, कार्य, और उपकार) में प्रमाणित करता हूँ।
प्रश्न: तो आप के "जाने" हुए को मैं "मान" लूँ?
उत्तर: और फ़िर उस "माने" हुए को आप "जान" लो। "जानने" की वस्तु सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व है। माने हुए को जानना "अध्ययन" है। अनुभव पूर्वक जाने हुए को मानना "प्रमाण" है। प्रमाण की ही परम्परा बनती है।
प्रश्न: यानी मैं मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्ववाद के आपके प्रस्ताव को "मान" कर, उससे इंगित वास्तविकताओं को जब अस्तित्व में पहचान लेता हूँ - तो उससे मेरा "जानना" हुआ। फ़िर मैं अपने उस जाने हुए को जब मैं अपने जीने (व्यवहार, कार्य, और उपकार) में प्रमाणित करने जाऊँगा तो वह "जाने हुए को मानना" होगा। क्या ऐसा है?
उत्तर: हाँ, ऐसा ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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