संबंधों की पहचान होने पर ही संबंधों में न्याय पूर्वक जीने की स्थिति बनती है। संबंधों में ही जीना होता है। संबंधों को छोड़ कर जीने की कोई स्थली ही नहीं है।
न्याय के लिए "संबंधों की पहचान" आवश्यक है। संबंधों की "पहचान" कहा है, संबंधों का "निर्माण" नहीं कहा है। हम संबंधों में हैं ही - हमें उन संबंधों को पहचानने की आवश्यकता है।
संबंधों की पहचान होने पर मूल्यों का निर्वाह होता ही है। संबंधों के संबोधन या नाम तो हम पा गए हैं - लेकिन उनके प्रयोजनों को नहीं पहचाने हैं। प्रयोजनों की पहचान के लिए ही अध्ययन है।
हम जहाँ हैं - अपनी उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजनशीलता को पहचान ही सकते हैं। कम से कम अपने परिवार में अपनी उपयोगिता को पहचानने का अधिकार हरेक के पास रखा है। समाज और व्यवस्था परिवार के ही आगे की कडियाँ हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
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