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Thursday, April 16, 2009

अनुभव करना, अनुभव कराना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

दर्शन, वाद, शास्त्र के रूप में जो मैंने वांग्मय लिखा है, वह मेरा अनुभव-मूलक विधि से किया गया चित्रण है - जो आपके लिए सूचना है। सूचना का पठन अध्ययन नहीं है। पठन अध्ययन की पृष्ठ-भूमि है। जीवन में तदाकार-तद्रूप होने का गुण रखा हुआ है। उसके आधार पर अध्ययन विधि में अस्तित्व की वास्तविकताओं के साथ तदाकार होते हैं। वास्तविकताओं से तदाकार होना ही साक्षात्कार है। चित्त में साक्षात्कार होते तक अध्ययन है।

प्रश्न: क्या साक्षात्कार होना है?

उत्तर: पहले सह-अस्तित्व साक्षात्कार होना। सह-अस्तित्व में जीवन साक्षात्कार होना। सह-अस्तित्व में मानवीयता पूर्ण आचरण साक्षात्कार होना। अध्ययन से ये तीनो भाग का साक्षात्कार होना हुआ। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद बुद्धि में बोध होना स्वाभाविक है। साक्षात्कार पूर्ण हुआ है - इसका प्रमाण है, बुद्धि में बोध होना।

प्रश्न: साक्षात्कार पूर्ण होने के "बाद" बुद्धि में बोध होता है, या साक्षात्कार होने के "साथ-साथ" बुद्धि में बोध होता है?

उत्तर: साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद बुद्धि में बोध होता है। अधूरे को बुद्धि स्वीकारता नहीं है। जब कभी भी बोध होगा - पूर्णता के साथ ही होगा। पूर्णता के बारे में आपको बताया - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता। जीवन गठन-पूर्ण परमाणु के स्वरूप में साक्षात्कार होने के पहले कोई बोध नहीं होगा। सार रूप में - गठन-पूर्णता, क्रिया-पूर्णता, आचरण-पूर्णता साक्षात्कार होने के बाद बुद्धि में सह-अस्तित्व बोध हो जाता है।

बोध होने के बाद तत्काल ही आत्मा में अनुभव होता है, उसमें कोई देर नहीं लगती। उसके बाद अनुभव मूलक विधि से बुद्धि में अनुभव-प्रमाण बोध, प्रमाण-बोध के आधार पर संकल्प, संकल्प के आधार पर चिंतन, और चिंतन के आधार पर चित्रण।

अध्ययन तक पुरुषार्थ है। अनुभव के बाद अभ्यास है। अनुभव मूलक अभ्यास का स्वरूप है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। अनुभव मूलक जीने से "अखंड समाज" स्वरूप में अभय, तथा "सार्वभौम व्यवस्था" स्वरूप में सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है।

अनुभव होने के बाद अनुभव-आकाश में जो देखने/समझने का लक्ष्य बनता है, उसको देखा जा सकता है। यह लक्ष्य अनुभव के पहले भी बन सकता है, अनुभव के बाद भी बन सकता है। जैसे - मेरा लक्ष्य बना, जीवन-परमाणु के अंशों को गिनना, उसके आचरणों को अलग-अलग पहचानना।

मुझे समाधि-संयम पूर्वक अनुभव हुआ। संयम के पहले मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ। अनुभवगामी विधि में (अध्ययन विधि) में जो हम अध्ययन कराते हैं, उसमें समाधि को bypass किए हैं। सीधे-सीधे संयम-काल में मुझे जो अध्ययन हुआ, वह आपको अध्ययन करा रहे हैं। यह बात आपको समझ में आता है या नहीं आता है, मैं नहीं कह सकता! यह बात आपको समझ में आता है तो अध्ययन के प्रति आपका गंभीर होना बन जाता है। समाधि-संयम का जो फल मुझे मिला उसको मैं मानव-जाति को संप्रेषित कर रहा हूँ। क्या ग़लत कर रहा हूँ? आप ही बताओ!

अनुभव में सम्पूर्ण अस्तित्व आ जाता है। अनुभव के अलावा कुछ बचता ही नहीं है। इस तरह अनुभव के बाद हर व्यक्ति "सर्वज्ञ" हो जाता है। संयत भाषा में कहें तो - अनुभव मूलक विधि से मनुष्य न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करता है। अनुभव करना, अनुभव कराना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।

प्रश्न: अनुभव कराने के लिए क्या करोगे?

उत्तर: अध्ययन के लिए प्रेरणा देंगे। अपने जीने में अनुभव-प्रमाण को प्रस्तुत करेंगे। प्रेरणा और प्रमाण पूर्वक दूसरे व्यक्ति में अनुभव के लिए मार्ग प्रशस्त होता है। प्रमाण के बिना प्रेरणा सफल नहीं होता। प्रमाण मानव-परम्परा में शरीर के साथ ही होगा। इसी लिए शरीर की आवश्यकता है। अकेले जीवन (बिना शरीर के) प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकता। अपने में संतुष्ट जरूर रह सकता है। सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। शरीर भी सह-अस्तित्व में तैयार हुआ है। जीवन भी सह-अस्तित्व में तैयार हुआ है।


सह-अस्तित्व सीमित नहीं है। व्यापक वस्तु सीमित नहीं है। सह-अस्तित्व और व्यापक वस्तु का ज्ञान भी सीमित नहीं है। इसमें अनुभव करने के लिए हर व्यक्ति में प्यास है, कुछ में जिज्ञासा है - ऐसा मैं मानता हूँ। इस प्यास और जिज्ञासा को उत्तरित करने के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन करने का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव की रोशनी में धरती में प्रचलित सभी राज्य और धर्म संविधानों की निरर्थकता समीक्षित हो गयी।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

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