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Monday, April 27, 2009

अनुसन्धान का लोकव्यापीकरण

मानव का पुण्य रहा तभी यह अनुसंधान सफल हो पाया। इस बात को लेकर मैं बहुत भरोसा करता हूँ, कि आदमी इस प्रस्ताव को स्वीकारेगा। मुझे इस प्रस्ताव में सर्व-शुभ का रास्ता साफ़-साफ़ दिखाई पड़ा। तभी मैं इस प्रस्ताव के लोकव्यापीकरण में लग गया। कब तक? - आखिरी साँस तक! जब तक मेरी साँस चलेगा, मैं इस पर ही काम करूंगा।

इस प्रस्ताव में इतनी बड़ी सम्भावना दिखाई पड़ती है - आदमी-जात अपराध-मुक्त हो सकता है, अपना-पराया दीवार से मुक्त हो सकता है। यह दोनों हो गया तो धरती के साथ होने वाला अत्याचार समाप्त होगा। अत्याचार यदि रुका - तो धरती अपनी बची ताकत से कितना सुधार सकता है, वह सुधार लेगा।

लोकव्यापीकरण के क्रम में अनेक लोगों से मिलना हुआ। अनेक लोगों ने अपने-अपने तर्क को प्रस्तुत किया।

"तुम बहुत आशा-वादी हो!" - यह बताया गया

निराशावादिता से आपने क्या सिद्ध कर लिया, यह बताइये। मैंने उनसे पूछा।

"तर्क समाप्त हो गया तो हम monotonous हो जायेंगे।"

तर्क के लिए तर्क करने से monotony होती है, या तर्क को प्रयोजन से जोड़ने से monotony होती है? यह प्रस्ताव तर्क को प्रयोजन से जोड़ने के लिए है। प्रयोजन सम्मत तर्क समाधान को प्रमाणित करता है। समाधान आने से monotony दूर होगा, या व्यर्थ के तर्क को बनाए रखने से monotony दूर होगा? केवल चर्चा करते रहने से monotony दूर होगा, या उपलब्धियों से monotony दूर होगा?

"एक व्यक्ति की बात को कैसे माना जाए?"

व्यक्ति के अलावा आपको पढने/सुनने को क्या मिलेगा? जो कुछ भी आज तक कहा गया है, लिखा गया है, आगे भी जो कहा जायेगा, लिखा जायेगा - वह किसी न किसी व्यक्ति द्वारा ही होगा।

"बहुत सारे लोग तो इससे भिन्न बात को मानते हैं?"

बहुत सारे लोग मिल कर ही तो इस धरती को बरबाद किया। यदि कुछ लोग उस "भिन्न बात" को मना भी करते - तो इतना बरबाद नहीं होता। सब लोग उस "भिन्न बात" को मान लिए - तभी तो धरती बरबाद हुई। सब लोग बर्बादी के रास्ते पर हो गए - वह रास्ता ज्यादा ठीक है? या एक व्यक्ति सही की ओर रास्ता दिखा रहा है - वह ज्यादा ठीक है?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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