प्रश्न: हम समझने में अटक कैसे जाते हैं? सीधे-सीधे समझ क्यों नहीं आ जाता?
उत्तर: इसका कारण है - पूर्व स्मृतियाँ। मनुष्य के पास जीवन में पूर्व स्मृतियाँ रहते ही हैं। हम जब मानव-चेतना संबन्धी बात का अध्ययन करना शुरू करते हैं, उसमें जब कभी भी विमुखता आती है - वह पूर्व-स्मृतियों के इसके विपरीत होने से होती है। पूर्व-स्मृतियों के इसके अनुकूल होने पर यह continue होता है।
प्रश्न: जीव-चेतना में जी हुई पूर्व-स्मृतियाँ इसके अनुकूल कैसे हो सकती हैं?
उत्तर: पूर्व-स्मृतियों में हमारी शुभ के लिए "सहज-अपेक्षा" को लेकर भी हमारी स्मृतियाँ हैं। उसमें काहे को कंजूसी करें? हर व्यक्ति के पास शुभ के पास जाने का रास्ता, चाहे छोटा हो, पतला हो, संकीर्ण हो - पर बना हुआ है। संवाद करते हुए, शुभ के लिए सहज-अपेक्षा से जुडी स्मृतियों पर ध्यान दिलाने की आवश्यकता है। प्रतिकूल पूर्व-स्मृतियों को आगे बिछाने से हम अटक जाते हैं।
इस आधार पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला - यदि हम मानव-चेतना संबन्धी बात शुरू करते हैं, तो पीछे की जीव-चेतना संबन्धी बातों को लेकर जितनी भी स्मृतियाँ हैं, उनको थोड़ी देर के लिए रोक के रखा जाए। इसके साथ मिलाने का प्रयास नहीं किया जाए। इसके साथ तौलने का प्रयत्न न किया जाए। क्योंकि ऐसा करने से मानव-चेतना संबन्धी बात का अवगाहन करने में अवरोध होता है। पूर्व-स्मृतियों को छोड़ कर यदि वस्तु पर ध्यान दिया, वस्तु के प्रयोजन पर ध्यान दिया - तो उससे अपना गति बनता है। इस विकल्प का जो प्रस्ताव है - उससे कोई वास्तविकता इंगित है, आपकी कल्पना यदि उस तक पहुँचा देता है, तो उसको स्वीकारने, बोध करने, अनुभव करने, और जीने की कड़ियों के साथ सुना जाए - तो समझ में आता है। यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो केवल सुनने वाली बात हो गयी, सुनते हैं - फ़िर भूल भी जाते हैं। इस तरह प्रयोजन के साथ हम जुड़ते नहीं हैं।
एक सिद्धांत है - सुना हुआ चीज भूल सकता है। समझा हुआ चीज हमको भूल नहीं सकता।
प्रश्न: अपने जीने में हमने पहले गलतियां किए हैं - फ़िर अब नए सिरे से शुरुआत कैसे करें? उनका प्रभाव तो है ही मुझ पर। उसको कैसे अलग करके रखा जाए?
उत्तर: भ्रमित-अवस्था में जीता हुआ आदमी गलतियां करने में विवश होता है, गिरफ्त नहीं होता। क्योंकि सच्चाई के लिए खिड़की कहीं न कहीं हर व्यक्ति में खुली ही रहती है। सहीपन की अपेक्षा में ही हम गलती करते हैं। सहीपन की स्वयं में अपेक्षा ही अध्ययन का आधार है। यह सूत्र है। आपको मैंने कुख्यात डाकू देवी सिंह के बारे में बताया था - जिससे मैं मिला था। उसने बीसियों खून किए होंगे। उससे मैंने पूछा - क्या अपने बच्चों को यही करवाना चाहोगे? उसने उत्तर दिया - "नहीं, यह वाहियात काम है। मेरी मजबूरी है, जो मैं इसे करता हूँ। यदि मैं उनको नहीं मारूंगा तो वे मुझे मार देंगे।"
आप अपनी जिन्दगी में बहुत कुछ पहले से सुने हैं, पढ़े हैं, स्वीकारे हैं, अस्वीकारे हैं। कुछ बातों में आप विवश हैं, कुछ में प्रसन्न हैं - ये सब के साथ आप गुजरे ही हैं। इन गुजरी हुई बातों के साथ आप पूरा संतुष्ट नहीं हुए हैं। पूरा संतुष्ट होने के लिए आपके सामने यह मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। पूरा संतुष्ट होने का जो यह प्रस्ताव है - उसको ठीक से सुनना होगा, जीने की कड़ियों के साथ सुनना होगा - तभी आप सार्थक रूप में सुन पायेंगे, समझ पायेंगे। इस बात को आपको स्वयं में तय करना होगा। जब यह तय होता है - तब पूर्व-स्मृतियाँ suspend होता है।
सच्चाई को समझते हुए अपनी विवशता को बारम्बार रास्ते में ला कर बिछाना - उचित होगा या अनुचित होगा? इस तरह विवशता को बार बार आगे लाना समझने में लगने वाले समय को बढ़ा देता है। इसलिए यदि शीघ्रता से समझना है तो आप इस उपाय को अपना सकते हैं - अपनी विवशताओं से सम्बंधित जो बातें हैं, उनको suspend करके रखा जाए। प्रस्ताव को समझने के बाद फ़िर सोचें। चाहत के रूप में हम सभी ने शुभ को ही चाहा है। अच्छे-पन की तृषा चाहत के रूप में हर व्यक्ति में है। जब अच्छेपन को स्वीकारने जाते हैं, तो पूर्व-स्मृतियाँ परेशान करती हैं - हमने ऐसा सोचा था, ऐसा किया था, दूसरे ने ऐसा किया था, आदि। ये गति में अवरोध करते हैं।
सर्व-शुभ का स्वरूप जब समझ में आ जाता है तो विवशताएँ अपने आप से wipe off हो जाती हैं। पत्ते का तने से चिपके रहने का ताकत जब तक रहता है - वह चिपके रहता है। जब कभी भी वह ताकत समाप्त हो जाता है, पत्ता अपने आप से नीचे झड़ कर गिर जाता है। इस तरह जो हमारे पुराने निरर्थक सोच-विचार जो स्मृतियों के रूप में हैं, वे समझ स्वयं में स्थापित होने पर अपने आप झड़ जाते हैं। उनका कोई नामोनिशान नहीं रहता।
जीव-चेतना में हमने जितनी भी विवशताओं का अम्बार लगाया हो - वह एक कागज़ के टपोरे जैसा ही है। इस टपोरे को ढेर करने के लिए एक चिंगारी ही पर्याप्त है। भ्रम स्वयं में पतंगा जैसे हिलता ही रहता है। भ्रम में जीता आदमी अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है - इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है। इसीलिये समझ में आने पर वह उखड जाता है। भ्रम से बनी हुई जितनी भी स्वीकृतियां हैं - वे भय, प्रलोभन, और आस्था के रूप में ही हैं। इसके अलावा भ्रम का और कोई पहुँच कुछ भी नहीं है।
आप एक बार सन्मार्ग के लिए, सदबुद्धि के लिए, सद्प्रवृत्ति के लिए एक बार कल्पना करके तो देखिये! शब्दों से इंगित वस्तु हमारी कल्पना में आ जाए, उसको अनुभव-प्रमाण पूर्वक अपने जीने में प्रमाणित होने की कड़ियों के साथ कल्पना करके देखिये। कल्पना तो जीवन में रहता ही है। इसमें किसको क्या तकलीफ है? समझने के बाद सोचिये समझ के अनुसार जीना है या नहीं?
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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