आदर्शवाद ने शब्द को प्रमाण माना। उसके बाद आप्त-वाक्य को प्रमाण माना। उसी के अन्तरंग प्रत्यक्ष, अनुमान, और आगम को प्रमाण माना। अंततोगत्वा शास्त्र को प्रमाण माना। इस तरह आदर्शवाद बनाम ईश्वरवाद ने जीवित-मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।
भौतिकवाद या प्रचलित-विज्ञान ने यंत्र को प्रमाण माना। जीवित-मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।
मनुष्य कोई सच्चाई का प्रमाण हो सकता है, यह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों ने नहीं पहचाना। दोनों व्यक्तिवादिता की ओर ही ले जाते हैं। व्यक्तिवादिता के रहते दूसरे मनुष्य को प्रमाण मानना बनता ही नहीं है।
सहअस्तित्व ही परम-सत्य है। सहअस्तित्व में अनुभव ही सत्य का परम-प्रमाण है। परम का मतलब - जिससे ज्यादा नहीं हो सकता, न उससे कम में काम चलेगा। सह-अस्तित्व में अनुभव मनुष्य ही कर सकता है। अनंत मनुष्यों के अनुभव करने का स्त्रोत सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व के अलावा अनुभव करने की कोई वस्तु नहीं है। जागृत मनुष्य ही सत्य का प्रमाण अपने जीने में प्रस्तुत करता है। यह दूसरे व्यक्तियों के अध्ययन के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बनता है।
मनुष्य को प्रमाण मानने के फलस्वरूप ही अध्ययन सम्भव है। अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है, और मैं अध्ययन पूर्वक प्रमाणित हो सकता हूँ - जब तक यह स्वयं में स्थिर नहीं होता, तब तक यह अनुसंधान ही है - जो अंधेरे में हाथ मारने वाली बात है। मनुष्य को प्रमाण का आधार मानने पर अंधेरे में हाथ मारने वाली बात नहीं रहती।
अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व स्वरूपी है। यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, और वस्तुगत सत्य के संयुक्त स्वरूप में है। ये तीनो मिल कर सहअस्तित्व है। स्थिति-सत्य से व्यापक वस्तु इंगित है। वस्तुस्थिति सत्य से दिशा, देश, और काल इंगित है। दो ध्रुवों के साथ दिशा की पहचान होती है। तीन ध्रुवों से देश की पहचान होती है। क्रिया की अवधि ही काल है। वस्तुगत सत्य से रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म इंगित है।
विज्ञान का आधार सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य होना चाहिए, या अभी जो सोचा जा रहा है - वह होना चाहिए? आप ही सोच लो!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८)
भौतिकवाद या प्रचलित-विज्ञान ने यंत्र को प्रमाण माना। जीवित-मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।
मनुष्य कोई सच्चाई का प्रमाण हो सकता है, यह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों ने नहीं पहचाना। दोनों व्यक्तिवादिता की ओर ही ले जाते हैं। व्यक्तिवादिता के रहते दूसरे मनुष्य को प्रमाण मानना बनता ही नहीं है।
सहअस्तित्व ही परम-सत्य है। सहअस्तित्व में अनुभव ही सत्य का परम-प्रमाण है। परम का मतलब - जिससे ज्यादा नहीं हो सकता, न उससे कम में काम चलेगा। सह-अस्तित्व में अनुभव मनुष्य ही कर सकता है। अनंत मनुष्यों के अनुभव करने का स्त्रोत सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व के अलावा अनुभव करने की कोई वस्तु नहीं है। जागृत मनुष्य ही सत्य का प्रमाण अपने जीने में प्रस्तुत करता है। यह दूसरे व्यक्तियों के अध्ययन के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बनता है।
मनुष्य को प्रमाण मानने के फलस्वरूप ही अध्ययन सम्भव है। अध्ययन कराने वाला प्रमाणित है, और मैं अध्ययन पूर्वक प्रमाणित हो सकता हूँ - जब तक यह स्वयं में स्थिर नहीं होता, तब तक यह अनुसंधान ही है - जो अंधेरे में हाथ मारने वाली बात है। मनुष्य को प्रमाण का आधार मानने पर अंधेरे में हाथ मारने वाली बात नहीं रहती।
अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व स्वरूपी है। यह स्थिति-सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, और वस्तुगत सत्य के संयुक्त स्वरूप में है। ये तीनो मिल कर सहअस्तित्व है। स्थिति-सत्य से व्यापक वस्तु इंगित है। वस्तुस्थिति सत्य से दिशा, देश, और काल इंगित है। दो ध्रुवों के साथ दिशा की पहचान होती है। तीन ध्रुवों से देश की पहचान होती है। क्रिया की अवधि ही काल है। वस्तुगत सत्य से रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म इंगित है।
विज्ञान का आधार सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य होना चाहिए, या अभी जो सोचा जा रहा है - वह होना चाहिए? आप ही सोच लो!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८)
No comments:
Post a Comment