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Wednesday, March 18, 2009

न्याय की चाहत और न्याय का प्रमाण

अभी की स्थिति में "न्याय" चाहिए, पर प्रिय-हित-लाभ से छूटे नहीं हैं। प्रिय-हित-लाभ शरीर संवेदनाओं से जुडी तुलन दृष्टियाँ हैं। इसलिए हम "न्याय" को भी संवेदनाओं के साथ जोड़ने लग जाते हैं। प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के साथ भय, प्रलोभन, और सम्मोहन जुडा ही रहता है। प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों के साथ न्याय कुछ होता नहीं है। हम राजी-गाजी से किए गए arrangement को न्याय मान लेते हैं - पर कुछ समय बाद वह fail होता ही है।

न्याय compromise नहीं है।

"न्याय" शब्द द्वारा न्याय वास्तविकता की शाश्वतीयता इंगित है। इंगित होने के बाद उसका कल्पना, उसके लिए विचार, और उसका चित्त में साक्षात्कार - यह क्रम है। यह तीनो होने पर बोध और अनुभव होता ही है। उसके बाद न्याय प्रमाणित करने की योग्यता आती है।

संवेदनाओं के स्थान पर संबंधों पर ध्यान के shift होने पर न्याय की स्थिति बनती है। सम्बन्ध अस्तित्व में वास्तविकता है। संबंधों के नाम लेना तो हमारे अभ्यास में आ चुका है। जैसे - माता, पिता, भाई, बहन, गुरु आदि। संबंधों के प्रयोजनों को पहचानने की बात अभी शेष है। संबंधों का प्रयोजन है - व्यवस्था में जीना।

जिस क्षण से माता-पिता ने अपनी संतान से सम्बन्ध को पहचाना, ममता और वात्सल्य उनमें अपने आप से उमड़ता है। उसके लिए कोई अलग से training लेने की ज़रूरत नहीं है। ममता, वात्सल्य मूल्य जीवन में स्थापित/निहित हैं, तभी तो संबंधों की पहचान होने पर वे उभरते हैं।

अस्तित्व में व्यवस्था का स्वरूप समझ में आने पर संबंधों की पहचान होना और निर्वाह होना स्वाभाविक हो जाता है। समाधान-समृद्धि पूर्वक हम अस्तित्व की व्यवस्था में जी सकते हैं, भागीदारी कर सकते हैं, और उपकार कर सकते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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