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Thursday, April 23, 2009

नियम, नियंत्रण, संतुलन

आचरण ही नियम है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन के स्वरूप में आचरण है, वही पदार्थावस्था का नियम है। प्राणावस्था में सारक-मारकता के स्वरूप में आचरण है, वही प्राणावस्था का नियम है। जीवावस्था में क्रूर-अक्रूर के स्वरूप में आचरण है, जो जीवावस्था का नियम है। ज्ञानावस्था में जागृति पूर्वक ही आचरण की पहचान सम्भव है। ज्ञानावस्था में न्याय ही नियम है।

आचरण की निरंतरता ही नियंत्रण है। एक-एक के रूप में आचरण या नियम को पहचाना जाता है। परम्परा के रूप में नियंत्रण पहचान में आता है। पदार्थावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - परिणाम-अनुशंगियता। प्राणावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - बीज-अनुशंगियता। जीवावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - वंश-अनुशंगियता। ज्ञानावस्था में परम्परा का स्वरूप जागृति के बाद ही पहचान में आता है। ज्ञानावस्था में परम्परा या नियंत्रण का स्वरूप है - समाधान। समाधान-परम्परा या संस्कार-अनुशंगियता से ही ज्ञानावस्था का नियंत्रण प्रमाणित होता है। समाधान ही सुख है, जो मानव-धर्म है। सुखी मनुष्य परम्परा ही स्वयं-स्फूर्त नियंत्रित होती है।

उपयोगिता और पूरकता ही संतुलन है। पदार्थावस्था प्राणावस्था के लिए उपयोगी है। प्राणावस्था पदार्थावस्था के लिए पूरक है। प्राणावस्था जीवावस्था के लिए उपयोगी है। जीवावस्था प्राणावस्था के लिए पूरक है। इस तरह आगे और पिछली अवस्था के साथ पूरकता और उपयोगिता के साथ संतुलन प्रमाणित होता है। मनुष्य (ज्ञानावस्था) का संतुलन जागृति के बिना प्रमाणित नहीं होता। जागृति के बाद ज्ञानावस्था संतुलन (पूरकता और उपयोगिता) को व्यवस्था में जीने के स्वरूप में प्रमाणित करती है। यही सत्य (सहअस्तित्व) का परम प्रमाण है।

इस तरह न्याय, धर्म, और सत्य ही मनष्य के लिए क्रमशः नियम, नियंत्रण, और संतुलन का स्वरूप है।

- श्रद्धेय श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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