This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
सम्पूर्ण अध्ययन अनुभव में होता है. क्रमिक अध्ययन अनुभवगामी पद्दति से होता है.
सब कुछ इकटठा अध्ययन कराना बनता नहीं है, इसलिए क्रमिक अध्ययन की आवश्यकता है. साधना-समाधि पूर्वक मैंने भी सम्पूर्ण को एक साथ अध्ययन नहीं किया, क्रमिक अध्ययन ही मैंने भी किया. उसी को अनुभवगामी पद्दति में दिया. अनुभवगामी पद्दति सम्पूर्ण अध्ययन तक ले जाती है. सम्पूर्ण अध्ययन सहअस्तित्व ही है. परम सत्य सहअस्तित्व ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
सहअस्तित्व में जो व्यापक वस्तु है वह नित्य एक सा रहता है, सतत एक सा विद्यमान रहता है. उसमे कोई बदलाव होता नहीं है. आज ऐसे पारदर्शी-पारगामी है, कल दूसरी तरह पारदर्शी-पारगामी हो - उसमे ऐसा कुछ होता नहीं है. एक ही सा रहता है. व्यापक में भीगे रहने से प्रकृति की इकाइयों में एक ही सा आचरण करने की प्रेरणा होता है. इस आधार पर नियम यथावत रहता है.
"सहअस्तित्व में सब हैं" - यह बात अभी तक जो सोचा नहीं गया था, वह यहाँ मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादित है. सहअस्तित्व में प्रत्येक एक अपने यथास्थिति में वैभव है. यह मुख्य बात है. यह समझ में आने पर मानव को भी अपने यथास्थिति में रहने की इच्छा बन जाती है. इच्छा बन जाती है तो एक दिन वह स्वयंस्फूर्त हो ही जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
ये दोनों मिलने पर समाज गति होगी. इससे कम में समाज गति नहीं होगी. इससे कम में समाज कुंठित होना ही है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य, तद्रूप, तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन है. ईष्ट के नाम, रूप, गुण, एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के अनुपात में सफल होती है." यह परंपरागत भक्ति से कैसे भिन्न है?
उत्तर: रहस्यवादी परम्परा में ईष्ट सेवन को रहस्य से जोड़ा है. परम्परा में रहस्यमयी देवी-देवताओं के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य को कहा है. यहाँ ईष्ट सेवन को जागृत व्यक्ति (देव मानव, दिव्य मानव) से जोड़ रहे हैं. पहले भक्ति का जो सूत्र रहा उसी को बता रहे हैं, पर यहाँ जागृत व्यक्ति के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य की बात कह रहे हैं. यह व्यवहारिक हो गया न? इसका उद्देश्य है भक्ति को पूर्णतया प्रमाणित करना.
यदि आपको यह स्वीकार होता है कि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब मेरे सान्निध्य से आपका उपकार होगा. दूसरे विधि से यदि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब उपकार कर पाऊंगा. इसमें क्या परेशानी है?
प्रश्न: आपके सान्निध्य में मेरा ध्यान वस्तु पर जाता है. तो तदाकार वस्तु के साथ है या जागृत व्यक्ति के साथ?
उत्तर: जागृत व्यक्ति के साथ सान्निध्य होता है, अस्तित्व में वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होता है.
परम्परागत भक्ति में देवी-देवता के आकार में स्वयम को डालो - ऐसा कहते रहे. देवी-देवता के साथ तद्रूप हो जाओ तब मुक्ति मिलेगा - ऐसा कहते रहे. यहाँ हम कह रहे हैं - सहअस्तित्व स्वरूपी वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होने से भ्रम-मुक्ति होगी. देवमानव, दिव्यमानव के सान्निध्य में तत्सान्निध्य की बात पूरा होता है. यही भ्रम-मुक्ति के लिए स्त्रोत है.
प्रश्न: अध्ययन हेतु सान्निध्य के लिए क्या हमेशा जागृत मानव के साथ रहना ज़रूरी है? जैसे आपसे मिल कर मैं अपने शहर वापस चला जाता हूँ तो क्या मेरा अध्ययन नहीं होगा?
उत्तर: सान्निध्य एक बार होने के बाद उसकी निरंतरता है. सान्निध्य उपरान्त आप अपने शहर वापस जाते हो, फिर हम जैसे फोन पर आगे बात करते हैं तो वह सान्निध्य के आधार पर ही आपको बोध होगा. एक बार सान्निध्य होने के बाद वह सदा स्मरण में बसा ही रहता है. अब कहाँ भागना है, भागो!!
स्मरण में बसने के बाद इसको झटकारा नहीं जा सकता. विरोध होने पर ही झटकारना बनता है. विरोध तब होता है जब हम आपको कोई बात नहीं समझा पाए, या हम आपको ऐसा कह दें कि आप नहीं समझोगे. इसीलिये जागृत व्यक्ति के पास "प्रश्न मुक्ति अभियान" बना रहता है.
इस तरह जागृत मानव के सान्निध्य में ज्ञानार्जन होता है. इसको अच्छे से सोच के देखो. मेरे पास जो समझ है उसको आप शोध करोगे तभी तो आप समझोगे, नहीं तो आप कैसे समझोगे? इससे कम में क्या अध्ययन हो पायेगा? मानव चेतना में नहीं पहुंचेंगे तो जीवचेतना रखा ही है, वहीं रहेंगे.
मानव परम्परा में हर मनुष्य में अनुभव होने का अधिकार समाया है. उसको प्रयोग अभी तक किया नहीं है. अनुभव के अध्ययनगम्य होने की विधि अभी तक इस धरती पर अवतरित नहीं हुई थी. अभी अवतरण के लिए हम प्रयत्न किये हैं. इसमें १०-२० व्यक्तियों के अनुभव संपन्न होने के सत्यापन होने पर हम संतुष्ट होंगे या नहीं होंगे? इसके लिए मैं प्रयत्न कर रहा हूँ या नहीं - आपके अनुसार? इसको उपकार कहा जाए या नहीं? यही उपकार है.
सहअस्तित्व में अनुभव ही तदाकार-तद्रूप विधि का आधार है. जाग्रति के पहले अध्ययन करते समय में तद्रूप जैसा हमे साक्षात्कार होता है. साक्षात्कार होने की जांच है प्रमाणित होना, अभिव्यक्त होना. प्रमाणित होने के लिए जैसे ही संकल्प हुआ अनुभव हो जाता है. वस्तु साक्षात्कार होते तक ही जो कुछ भी समय लगता है, वह लगता है. साक्षात्कार हुआ तो अनुभव होना ही है. चित्त में साक्षात्कार होने पर बुद्धि में बोध होना ही है, फलस्वरूप प्रमाणित होने का संकल्प होना ही है. जैसा ही संकल्पित हुआ, अनुभव होना ही है. सारा प्रयास साक्षात्कार पूरा होने तक ही है. क्या साक्षात्कार होना है? स्वयं में विश्वास का साक्षात्कार होना है. मैं समझा हूँ, इस बात पर मुझको ही विश्वास होना. उसके बाद समझा सकता हूँ, यह दृढ़ विश्वास होना. समझाने के क्रम में सामने व्यक्ति को बोध हुआ या नहीं - यह ज्ञान होता है. सामने व्यक्ति को बोध कराने में सफल हो गए तो अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो गए.
बोध होने पर, समझने पर प्रश्न मुक्ति हो जाती है. समझने के बाद जीना ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
मानव चेतना, देव चेतना और दिव्य चेतना बोध और अनुभव में तीनो समान हैं, व्यवहार में समान हैं, आचरण में समान हैं, व्यवस्था में जीने में समान हैं - उपकार में अंतर है. मानव चेतना में न्यूनतम उपकार प्रमाणित हुआ. देव मानव में उपकार अधिक हुआ. दिव्य मानव उपकार प्रवृत्ति में पूर्ण है. मानव चेतना और देव चेतना को "विश्राम" की स्थितियां कहा है. दिव्य चेतना को "पूर्ण विश्राम" की स्थिति कहा है. जब संसार से कुछ लेने का कामना ही न हो, संसार के साथ केवल उपकार ही करना हो - इसको "दिव्य मानव" नाम दिया जाए या नहीं दिया जाए?
-श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
प्रश्न: आपने लिखा है - "सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति ही मूल्य मूलक विधि से जीने का प्रमाण है, जिसमे निरंतर सुख की सम्भावना दिखने लगती है." इसको समझाइये.
उत्तर: जैसे ही मैंने, एक व्यक्ति ने, अनुभव मूलक विधि से जीना शुरू किया तो (मानव परम्परा के) सुख पूर्वक जीने की सम्भावना उदय हो गयी. परिवार में जब इसको जीने में हम सफल हुए तो यह और सुदृढ़ हुआ. पूरा मानव जाति जब ऐसे जीने के लिए चल दिया तो अपने आप से अभयता तक पहुँच गया. यही क्रम है. मैं स्वयं इसको जिया हूँ.
जो हम स्वयं जियें, हमारे परिवार में सब वैसे जियें - ऐसा इच्छा होता ही है. परिवार जब जिए, अडोस पड़ोस भी वैसा जिए - ऐसा इच्छा होता ही है. अडोस-पड़ोस जब जिए तो पूरा गाँव-शहर ऐसा जिए - ऐसा इच्छा हो जाती है. यदि ऐसे जीना बन जाता है तो सारा धरती के मानव ऐसा जियें , यह इच्छा बन जाता है. अपने आप से यह फैलता है. अपेक्षा भी फैलता है, प्रभाव भी फैलता है.
हम जैसा भी जीते हैं उसका प्रभाव एक वातावरण बनाता ही है. मानव चेतना में जब हम जीते हैं तो वो जीव चेतना पर अपना प्रभाव डालता है. जिसके फलस्वरूप जीव चेतना में जीने वाले में भी मानव चेतना में जीने की इच्छा हो ही जाता है. इसी का नाम है प्रभाव! कितना सुगम है यह आप सोच लो! जीव चेतना में जीते हुए व्यक्ति को मानव चेतना में जीते हुए व्यक्ति से प्रेरणा मिलना शुरू होता है. एक दिन उसमे मानव चेतना को अपनाने की इच्छा हो ही जाता है. ऐसा चल रहे हैं हम.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
उत्तर: इसका आशय है - पदार्थावस्था में धनात्मक विधि से श्रम का नियोजन पूर्वक प्राणावस्था का प्रकटन है. किसी अवस्था में धनात्मक विधि से श्रम नियोजन पूर्वक ही अगली अवस्था का प्रकटन है. पूरकता के लिए श्रम नियोजन को "+ श्रम" कहा. यह नियति विधि है.
पदार्थावस्था में श्रम पूर्वक ही यौगिक विधि से रसायन संसार में परिवर्तन है. रसायन संसार में परिवर्तित होने से ही प्राणकोशाओं के रूप में प्राणावस्था की बुनियाद बनी. प्राणावस्था अपने यथास्थिति में कार्य करते समय में उत्सवित हो कर ही जीवावस्था के शरीरों की प्राणकोशाओं के स्वरूप में प्रकट हुआ. जीवावस्था के स्थापित होने के उपरान्त पुनः पूरकता के लिए श्रम नियोजन हुआ. प्राणकोशाओं में गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक ही मानव शरीर का प्रकटन हुआ. यह उन्नति क्यों हुई? ताकि जीवन अपनी जाग्रति को परंपरा में व्यक्त कर सके. अवस्थाओं में क्रमशः उन्नति मानव शरीर के प्रकटन के लक्ष्य से चला है.
प्रश्न: मानव में श्रम का क्या स्वरूप है? श्रम का क्षोभ क्या है?
उत्तर: आज हम जिस स्थिति में हैं, जैसा जी रहे हैं - उससे अधिक की हम अपेक्षा करते हैं, उसके लिए श्रम करते हैं, वह हमको नहीं मिलना ही "श्रम का क्षोभ" है, वह हमको मिलते रहना ही "श्रम का विश्राम" है.
श्रम पूर्वक आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने में तृप्ति, समाधान है. श्रम करने पर आवश्यकता से अधिक हो गया तो हम तृप्त हो गए. श्रम करने पर भी आवश्यकता पूरा नहीं हुआ, यह श्रम का क्षोभ है.
श्रम का क्षोभ ही विश्राम (समाधान) की तृषा है. यथास्थिति से अधिक की आवश्यकता का पूरा नहीं होने से जो रिक्तता है - वही अभाव या समस्या है. इस अभाव या समस्या की स्वीकृति ही श्रम का क्षोभ है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
सहअस्तित्व में अनुभव होने से न्याय पूर्वक प्रस्तुत होना बनता है.
न्याय व्यव्हार में ही स्पष्ट होता है.
समझा हुआ विधि से आचरण करने पर पता चलता है कि हम न्याय कर पाए या नहीं? जब हम न्याय में प्रमाणित हो जाते हैं तो यह भी समझ में आता है कि दूसरा व्यक्ति प्रमाणित हो रहा है या नहीं?
देखने की बात पहले स्वयं में है, उसके बाद संसार के साथ है.
हम यदि ठीक से प्रस्तुत होते हैं तो सामने वाला व्यक्ति ठीक से प्रस्तुत हो रहा है या नहीं - उसको भी मूल्यांकित करना हमसे बनता है. जब तक हम ठीक से प्रस्तुत नहीं होते, हमारे द्वारा सामने व्यक्ति का मूल्यांकन करना बनता नहीं है. यही मुख्य बात है. इसी आधार पर मनोबल बढ़ता है.
आस्वादन-चयन प्रक्रिया में संबंधों का चयन हम जो करते हैं, उसी में न्याय प्रतिष्ठित होता है. संबंधों को हम संबोधित करते ही हैं. हर सम्बन्ध में हम न्याय पूर्वक प्रकाशित हुए या नहीं? जब तक इसमें मजबूती न आ जाए, इसका शोध करते ही जाना. यदि हम अपने सभी संबंधों में पूरा पड़ गए तो हर सम्बन्ध किसी मानव के साथ ही है, वह कहाँ तक न्याय किया - यह मूल्यांकन करने का अधिकार भी हममे बन जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
ज्ञान है - जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इसका सूचना आपको हो गया है, इसके अध्ययन में हम चल ही रहे हैं.
ज्ञान के सहमति में विवेक होता है, जो विवेचना है. विचार स्वरूप में विवेचना है. विश्लेषण के आधार पर विचार का निश्चयन होना विवेक है. तीन निश्चयन होते हैं - (१) शरीर का नश्वरत्व, (२) जीवन का अमरत्व, (३) व्यवहार के नियम
उसके बाद विज्ञान में कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी ज्ञान है. काल नित्य वर्तमान ही है. भूत और भविष्य वर्तमान का ही नाम है. किसी क्रिया की अवधि के आधार पर हम भूत और भविष्य नाम देते हैं. क्रिया निरंतर है - इसलिए वर्तमान निरंतर है. जीवन मूल्य (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) और मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व) के अर्थ में निर्णय लेने की क्रिया निर्णयवादी ज्ञान है. लक्ष्य के प्रति दिशा निर्धारण की क्रिया विज्ञान है.
आज जो भौतिकवादी विचार प्रचलित है, उससे यह कितना दूर है - आप सोच लो! विज्ञान को "सच्चाई" से कोई लेन-देन ही नहीं है, वह जो यंत्र बताता है उसको सच मानता है. भौतिकवादी विधि से अपराध प्रवृत्ति में जाने से सच्चाइयाँ दूर हो गए. आदर्शवादी विधि से वेद विचार में "सच्चाई" पास लगता था - हमको प्रयत्न करना है, साधना करना है, तो सच्चाई को पा लेंगे - यह सब बात थी. अब भौतिकवादी विचार के चलते सच्चाई की कल्पना ही दूर हो गयी! अब यही रास्ता बनता है कि सच्चाइयों को पूरा अध्ययनगम्य ही करा दिया जाए. साधना पूर्वक जो सच्चाई को पाना था, अध्ययन पूर्वक उसको पाने की बात कर दी. मानव लक्ष्य और जीवन मूल्य स्वाभाविक रूप से सर्वसम्मत हैं. सर्वसम्मत उपलब्धियों की "अपेक्षा" होना जीवन सहज है. यह अपेक्षा जीव-जानवरों में नहीं है, मानव में है - क्योंकि मानव ज्ञानावस्था में है. मानव लक्ष्य और जीवन मूल्य का पूरा होना ज्ञान का प्रमाण है.
समाधान = सुख
समाधान, समृद्धि = सुख, शान्ति
समाधान, समृद्धि, अभय = सुख, शान्ति, संतोष
समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व = सुख, शान्ति, संतोष, आनंद
जीवन में सुख-शांति-संतोष-आनंद मानव परम्परा में समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व स्वरूप में प्रमाणित होता है. इस तरह आदमी जो व्यक्तिवाद के लिए जो shell बना कर छुपने की जगह बनाता रहता था, वह छुपने की जगह ख़त्म हो गयी. व्यक्ति का "वैभव" होता है. व्यक्ति के "वाद" की आवश्यकता नहीं है. व्यक्ति का वैभव सुख-शांति-संतोष-आनंद है, जिसका क्रिया रूप है - समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ सम्वाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
उत्तर: क्रिया नित्य वर्तमान है. सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा संपन्न, बल संपन्न और क्रियाशील है. यह आधार है. क्रिया समाप्त नहीं होता है, एक क्रिया से दूसरी क्रिया में बदल सकता है.
क्रिया की व्याख्या है - श्रम, गति, परिणाम. श्रम और गति के संयुक्त स्वरूप में परिणाम है. गति और परिणाम के संयुक्त रूप में श्रम है. श्रम और परिणाम के संयुक्त रूप में गति है.
क्रिया का प्रयोजन है - गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता. उसमे से गठनपूर्णता नियति विधि से हो चुकी. क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता की अर्हता जीवन में है. उसके प्रमाणित होने के लिए मानव परम्परा है. यही तो मध्यस्थ दर्शन का आत्मा है! कितना छोटा सा काम है, कितना बड़ा इससे उपकार है - आप सोच लो! मानव परम्परा में मानव शरीर रचना का प्रकटन नियति विधि से हुआ है - जिसमे मानव का कोई योगदान नहीं है. शरीर रचना की विधि प्राणकोशिकाओं में ही निहित है. उस आधार पर मानव शरीर रचना का प्रकटन हुआ, जो जीवन द्वारा कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता व्यक्त होने योग्य हुआ. इसके चलते मानव जीवों से अच्छा जीने की शुरुआत किया. इस क्रम में मानव मनाकार को साकार करने में सफल हुआ, लेकिन मनः स्वस्थता को प्रमाणित करना शेष रहा. मनः स्वस्थता की कमी से ही मानव द्वारा सभी अपराधों को वैध मानते हुए मानव के साथ और इस धरती के साथ अपराध करना हुआ. इन सबके चलते धरती ही बीमार हो गयी. यदि मनाकार को साकार करने और मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने की गति साथ साथ होती तो शायद यह हाल नहीं होता, मानव अपराध ग्रस्त नहीं होता - ऐसा हम अनुमान कर सकते हैं. अब मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन का प्रस्ताव पूरा है या नहीं - इसको जांचो!
सहअस्तित्व में क्रिया निरंतर है. हर क्रिया स्थिति-गति के रूप में होती है. कितने भी सूक्ष्म में जाओ - वो है तो स्थिति-गति ही. स्थिति के बिना गति होती नहीं. क्रिया कभी रुकता नहीं है - तो क्रिया में बल और शक्ति दोनों है. स्थिति में बल और गति में शक्ति की पहचान होती है. इसके मूल में है साम्य ऊर्जा में सम्पृक्त्ता. साम्य ऊर्जा में जड़ चैतन्य प्रकृति संपृक्त है इसी लिए स्थिति में बल रहता ही है, गति में शक्ति प्रकट होता ही है. स्थिति में प्रगति हुए बिना गति के परिवर्तित होने का पता ही नहीं चलता. स्थिति-गति अविभाज्य वर्तमान है.
क्रिया को इकाई भी कहा है. इकाई है - सभी ओर से सीमित होना. एक पर्वत, एक मानव, एक वृक्ष, एक परमाणु - ये सब अपने में सीमित हैं, इसीलिये "एक" कहलाते हैं. एक-एक के आधार पर क्रिया के होने का पता चलता है.
क्रिया की अवधि = काल. किसी क्रिया की अवधि को हम reference मान लेते हैं, उसको हम काल मानते हैं. उसका विखंडन करके हम काम करते हैं.
प्रश्न: क्रिया को जो हम अभी पहचान पाते हैं वह तो इन्द्रियों द्वारा स्थूल स्तर पर क्रिया की पहचान है. सूक्ष्म स्तर पर क्रिया की पहचान कैसे होती है?
उत्तर: जीवन शरीर को जीवंत बनाता है तो उससे संवेदनशील क्रिया होती है, जिससे स्थूल स्तर पर मानव देख पाता है, सुन पाता है, आदि. संवेदनशीलता का प्रभाव इन्द्रियों के द्वारा ही होता है. परमाणु सूक्ष्म है. परमाणु इन्द्रियों से समझ नहीं आता. मानव के साथ इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर दोनों होता है. कुछ चीजें हैं जिनको मानव पांच ज्ञानेन्द्रियों से देखता है, फिर उनको समझता है या उसको वह ज्ञानगोचर होता है. जैसे - पानी को मानव इन्द्रियों से पहचानता है (वो इन्द्रियगोचर है), उसके बाद पानी का स्वरूप एक जलने वाली वस्तु (hydrozen परमाणु) और एक जलाने वाली वस्तु (ऑक्सीजन परमाणु) के संयोग से है - यह जो उसको समझ में आता है, वो ज्ञानगोचर है. कुछ चीजों को वह समझता है, फिर उनको पांच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा व्यक्त करता है.
स्थूल स्वरूप में जो वस्तुएं हैं, वो इन्द्रियगोचर हैं.
सूक्ष्म स्वरूप में जो वस्तुएं हैं, वो ज्ञानगोचर हैं.
संवेदनशीलता की सीमा में इन्द्रियगोचर है.
संवेदनशीलता से जो परे है - वो ज्ञानगोचर है.
कई चीजें स्थूल स्वरूप भी हैं, सूक्ष्म स्वरूप भी हैं और कारण स्वरूप में भी हैं. (भौतिक रासायनिक संसार की वस्तुएं)
कई चीजें सूक्ष्म स्वरूप और कारण स्वरूप में है. (जीवन परमाणु सूक्ष्म और कारण के अविभाज्य स्वरूप में है)
एक ऐसा वस्तु है - जो केवल कारण स्वरूप में है. व्यापक वस्तु कारण स्वरूप में अपरिवर्तनीय यथास्थिति है, वही साम्य ऊर्जा है.
साम्य ऊर्जा में सम्पूर्ण एक-एक क्रियाएं हैं. साम्य ऊर्जा में भीगे होने से सभी एक-एक वस्तुओं को ऊर्जा प्राप्त है. साम्य ऊर्जा प्राप्त होने के आधार पर ही एक-एक वस्तु में ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता, क्रियाशीलता है. जैसे - धरती क्रियाशील है, चंद्रमा क्रियाशील है, हर ग्रह-गोल नक्षत्र क्रियाशील है, फिर धरती पर हर खनिज, हर वनस्पति, हर जीव, हर मानव इसी प्रकार क्रियाशील है.
तो हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है इसीलिये क्रियाशील है. क्रिया से जो ऊर्जा तैयार होता है, वह कार्य ऊर्जा है. बिजली आदि जो है वह क्रिया से पैदा होने वाली ऊर्जा है. जैसे मैं अपने दोनों हाथों को रगड़ता हूँ तो उससे गर्मी पैदा होती है, यह क्रिया से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा है. मेरे दोनों हाथ साम्य ऊर्जा संपन्न हैं ही. क्रिया करने से साम्य ऊर्जा व्यय होता ही नहीं है, वह बना ही रहता है. क्रिया तीन ही प्रकार की है - भौतिक क्रिया, रसायन क्रिया और जीवन क्रिया. ये तीनों क्रियाएं अपार संख्या में हैं. सर्वाधिक संख्या में भौतिक, उससे कम रासायनिक और उससे कम जीवन वस्तुएं हैं. इनके permutation-combination में चार अवस्थाएं हैं. चारों अवस्थाएं इन्द्रियगोचर हैं, उनके ज्ञानगोचर पक्ष की हम बात कर रहे हैं. साम्य ऊर्जा में सभी वस्तुएं भीगा है, डूबा है, घिरा है - यह समझ में आना ज्ञानगोचर है. ज्ञानगोचर जीवन में ही होता है, दृष्टिगोचर जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में होता है. जीवन न रहे, हमको कोई चीज़ दृष्टिगोचर हो जाए - ऐसा होगा नहीं.
प्रश्न: ज्ञानगोचर और दृष्टिगोचर को उदाहरण के साथ समझाइये.
उत्तर: अनुभव सूक्ष्म से सूक्ष्म तक है. करना एक सीमा तक ही होता है. ज्ञान (अनुभव) -> विचार -> करना. करना मतलब (दूसरी इकाइयों के साथ) योग-संयोग करने वाली क्रिया, जैसे यंत्र बनाना, सड़क बनाना.
यंत्र बनाने का पहले हममे ज्ञान होता है, कौनसा पुर्जा कहाँ फिट होता है, क्या करता है आदि - यह ज्ञानगोचर है. फिर पुर्जा बनाने का काम इन्द्रियगोचर और ज्ञानगोचर के संयुक्त रूप में होता है. फिर पुर्जों को assemble करने से यंत्र बन जाता है. इस विधि से मनाकार को साकार करना होता है.
कई वस्तुएं केवल ज्ञानगोचर हैं, जिनको मानव अपने आचरण में संवेदनशीलता द्वारा प्रमाणित करता है. जैसे सत्य केवल ज्ञानगोचर है. सत्य में अनुभव को मानव संवेदनशीलता द्वारा प्रमाणित करता है. जिससे दूसरों को पता चलता है - यह सत्य है. इसी तरह समाधान ज्ञानगोचर है, नियम ज्ञानगोचर है, न्याय ज्ञानगोचर है.
पेड़ पौधे पत्तों से सांस लेते हैं, यह बात इन्द्रियगोचर नहीं है, ज्ञानगोचर है. भौतिक वस्तुएं साम्य ऊर्जा में संपृक्त होने से ऊर्जा संपन्न हैं - यह बात ज्ञानगोचर है.
हर परमाणु स्वयंस्फूर्त क्रियाशील है. स्वयंस्फूर्त क्रियाशीलता होने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता है. व्यापक स्वयं पारगामी होने के कारण हर वस्तु ऊर्जा संपन्न है. ऊर्जा सम्पन्नता ही ज्ञान स्वरूप में मानव में व्यक्त है.
हर मानव में कल्पनाशीलता प्रभावशील है. कल्पनाशीलता इन्द्रियगोचर नहीं है. इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों की सीमा में ही संवेदनशीलता के रूप में कल्पनाएँ प्रभावित होते हैं. कल्पनाशीलता जीवन से है. जीवन समझ में नहीं आने से शरीर से ही कल्पना होता है यह भौतिकवाद में मान लेते हैं. structure के अनुसार function होता है - ऐसा वो कहते हैं.
आदर्शवादियों के अनुसार ज्ञानगोचर रहस्य हो गया. भौतिकवादियों के अनुसार ज्ञानगोचर अनावश्यक हो गया.
प्रश्न: क्या ज्ञानगोचर का चित्रण होता है?
उत्तर: ज्ञानगोचर और दृष्टिगोचर दोनों का चित्रण होता है.
प्रश्न: स्थिति-क्रिया और गति-क्रिया में क्या भेद है?
उत्तर: स्थिति-गति की समझ ज्ञानगोचर है. इन्द्रियों से स्थिति-गति का पता नहीं चलता. स्थिति-क्रिया बल सम्पन्नता है. गति-क्रिया शक्ति सम्पन्नता है. होना स्थिति है, रहना गति है. स्थिति और गति दोनों क्रिया है. गति क्रिया स्थानांतरण और परिवर्तन का आधार है. स्थिति क्रिया इकाई के रूप में होने का आधार है. अपनी लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई के अनुसार हर भौतिक रासायनिक वस्तु का स्थिति बना रहता है.
प्रश्न: आप जो कहते हैं कि "क्रियाशीलता के मूल में ऊर्जा सम्पन्नता आवश्यक है" - यह एक तर्क है न?
उत्तर: इस तर्क को मैं (अनुभव सम्पन्नता के साथ) प्रस्तुत करता हूँ, वह आपके लिए दृष्टिगोचर विधि से ज्ञानगोचर तक पहुँचने का रास्ता है. आप इसको स्वीकार कर सारे बात को सोचते हो, अनुमान करते हो कि इस समझ के साथ मानव अपराध मुक्ति तक आता है या नहीं. क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता होता है तो अपराध मुक्ति होता ही है.
मानव परम्परा में कार्य करता हुआ हर जीवन ज्ञानी है या ज्ञानी होने योग्य है. ज्ञान के परम्परा में होने पर उसको ग्रहण करने की जीवन पात्रता रखता है. जीवन ज्ञान ग्रहण करता है, शरीर के साथ उसको प्रमाणित करता है. शरीर क्रिया के लिए प्रेरणा जीवन से है.
ज्ञानगोचर और इन्द्रियगोचर के अंतर को समझने की आवश्यकता है. सारी समझ प्रमाणित होने के लिए है. समझने के बाद प्रमाण होता ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
शरीर जड़ प्रकृति है, जीवन चैतन्य प्रकृति है. जीवन में अक्षय बल और अक्षय शक्ति है. अतः इच्छा की अपेक्षा में संवेदनशीलता क्रिया अल्प है. संवेदनशीलता अल्प है, इच्छा शक्ति विशाल है. अतः संवेदनशीलता के लिए सम्पूर्ण इच्छा शक्ति का नियोजन "अपव्यय" है. दूसरे विधि से देखें तो - इच्छाएं जितनी हैं संवेदनाएं उतना काम कर नहीं पाते हैं. इच्छाओं की पूर्ती संवेदनाओं से नहीं हो सकती. अतः संवेदनाओं द्वारा इच्छाओं की पूर्ती का प्रयास "आसक्ति" है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
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तुलन में न्याय-धर्म-सत्य आने पर साक्षात्कार होता ही है. तुलन व साक्षात्कार होने पर बोध पूर्वक प्रमाणित करने का संकल्प होता है, फलस्वरूप अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो जाता है. सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य में न्याय और धर्म समाया ही है. इसीलिये आत्मा जब सहअस्तित्व में अनुभूत होता है तो जीव-जगत सब समझ में आता है, फलस्वरूप हम प्रमाणित होने योग्य हो जाते हैं. आत्मा मध्यस्थ क्रिया है, उसमें तो सत्य स्वीकृत होता ही है. सत्य के अलावा आत्मा में और कुछ स्वीकृत ही नहीं होता.
प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "आत्मा प्रकृति का अंश होते हुए भी ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है" इसका क्या आशय है?
उत्तर: ब्रह्म व्यापक वस्तु है. आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने से और ब्रह्म मध्यस्थ सत्ता होने से इन दोनों की साम्यता है. इस साम्यता का बोध होने के फलस्वरूप अनुभव है. आत्मा व्यापक वस्तु को ज्ञान स्वरूप में अनुभव कर लेता है. अनुभव मूलक विधि से आत्मा ज्ञान को परस्परता में प्रमाणित करने योग्य हो जाता है. परस्परता में सत्य संप्रेषित होता है तो वह आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही होता है. आत्मा जीवन परमाणु का मध्यांश होते हुए, क्रिया होते हुए ब्रह्म से नेष्ठ इसीलिये नहीं है क्योंकि अनुभव मूलक विधि से ही परस्परता में सत्य प्रमाणित होता है, संप्रेषित होता है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "आत्मा सम और विषम से मुक्त है". तो भ्रम में जीते हुए मानव, अध्ययनशील मानव और अनुभव संपन्न मानव तीनो में यह सम विषम से मुक्त होगी. फिर अनुभव होने से आत्मा की क्रिया में अंतर क्या हुआ?
उत्तर: आत्मा का सम-विषम से मुक्त होना तो उसकी सदा-सदा की स्थिति है. आत्मा में मध्यस्थ का प्रकाश होना या नहीं होना - इतना ही अंतर है. बुद्धि में सत्य बोध न होने से मध्यस्थ का प्रकाश नहीं हुआ था. इतना ही तो बात है. हम अध्ययन जो करते हैं वह अनुभव होगा इसीलिये करते हैं, उसमे सिलसिले से समाधान निकलता जाता है. इसीलिये अध्ययनशील विद्यार्थी में यह विश्वास बनता है कि अध्ययन से अनुभव होगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन विधि का रास्ता धैर्य और स्नेह का है - यह हड़बड़ी वाला रास्ता नहीं है, नाराजगी वाला रास्ता नहीं है, आलोचना वाला रास्ता नहीं है, विरोध वाला रास्ता नहीं है. (अब तक की सोच के अनुसार चलने से) घटनाक्रम में हम सर्वनाश की ओर जा रहे हैं - सर्वशुभ की ओर दिशा के परिवर्तन के लिए यह प्रस्ताव है. इसकी ज़रूरत है या नहीं - सोच लो!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
संवेदना = शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों का क्रियाकलाप. जीवन और शरीर का योग होने से संवेदना व्यक्त होता ही है. आदिमानव में भी यह रहा, आज भी है. अभी तक संवेदनाओं को पहचान सकने को जागृति माना गया, संवेदनाओं को नहीं पहचान सकने को मरा हुआ माना गया.
अब यहाँ (मध्यस्थ दर्शन में) प्रस्तावित है - मानव चेतना पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहते हैं, जीव चेतना पूर्वक संवेदनाएं अनियंत्रित रहते हैं. नियंत्रित संवेदनाओं के साथ मानव व्यवस्था में जीता है, अनियंत्रित संवेदनाओं के साथ मानव अव्यवस्था में जीता है.
विज्ञान (भौतिकवाद) ने संवेदनाओं के अनियंत्रित होने को ही सच्चाई मान लिया. आदर्शवाद ने संवेदनाओं के अनियंत्रण का विरोध तो किया, पर संवेदनाओं का नियंत्रण कैसे हो - इसकी पूर्ति नहीं कर पाया.
विज्ञान (भौतिकवाद) शरीर को ही चैतन्य मानता है. आदर्शवाद शरीर को चैतन्य मानने का विरोध तो किया है, लेकिन "आत्मा" नाम से जो कुछ उन्होंने चैतन्यता के बारे में बताया वो रहस्य में फंस गया. उसके बारे में बात नहीं कर पाए, समझा नहीं पाए, प्रमाणित नहीं कर पाए - चुप हो कर चले गए. चैतन्यता को बताने के लिए उत्तर भारत में दस अवतारों को माना, दक्षिण भारत में तीन आचार्यों को माना. तीनो आचार्यों की परम्परा में आदर्शवाद ही रहा, किन्तु उनकी ध्यान और उपासना विधियों में भेद रहा. इन सभी ने शुभ का आशय व्यक्त किया, पर शुभ के प्रमाणित होने से रह गए. जहाँ तक अवतारों की बात है, सभी अवतार बल (वध-विध्वंस) के आधार पर प्रतिष्ठित हुए, और उसके साथ ज्ञान को भी जोड़े कि उनमे ऋषित्व होना चाहिए. ऋषित्व के मूल में "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" ही बताया. अब इस तरह अवतारों का जितना भी युद्ध हुआ मिथ्या के साथ ही हुआ! फिर उसका क्या आशय हुआ? अवतारों ने जो लड़ाइयाँ की और आज जो लड़ाइयाँ हो रही हैं - आदर्शवाद के अनुसार मिथ्या के साथ ही हैं!
लड़ाइयों को लेकर यहाँ अवधारणा दिए हैं - पशुमानव और राक्षसमानव ही लड़ाई (युद्ध) करता है. राक्षस मानव ज्यादा वध-विध्वंस करता है, पशु मानव वध-विध्वंस की आहुति होता है.
इस ढंग से आदर्शवादी विधि से मानव परम्परा में भय और प्रलोभन ही संप्रेषित हुआ. स्वर्ग के प्रति प्रलोभन, नर्क के प्रति भय. पुण्य के प्रति प्रलोभन, पाप के प्रति भय. आदर्शवाद के सारे भाषण और उपदेश का अर्थ इतना ही है. सारे अवतार राक्षसों को नष्ट करने के स्वरूप में रहे. अलग अलग अवतार कई प्रकार के राक्षसों का संहार करने के लिए सम्मान पाए. इसके साथ-साथ वे उपदेशात्मक ज्ञान भी दिए कि आदमी को राक्षस नहीं होना चाहिए, नैतिक होना चाहिए, ज्ञानी होना चाहिए, विवेकी होना चाहिए. आदमी को ज्ञानी होना चाहिए - यह सभी अवतार कहे. राम भी कहे, कृष्ण भी कहे. ज्ञान के पास गए तो अव्यक्त-अनिर्वचनीय हो गए. अब कौनसा ज्ञान है? जो वचन में आना ही नहीं है, व्यक्त होना ही नहीं है - फिर प्रमाण क्या होगा? इस प्रकार आदर्शवाद प्रमाणित होने से किनारा कर लिया.
उधर भौतिकवाद सुविधा-संग्रह के चक्कर में आदमी को फंसा दिया. सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिंदु मिलना ही नहीं है. सकल अपराध को वैध मानने के बाद भी सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिंदु नहीं मिला. इस बीच धरती ही बीमार हो गयी.
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों का नियंत्रण-बिंदु न मिलने से इतना भटकाव हुआ. मानव चेतना पूर्वक संवेदनाओं के नियंत्रण-बिंदु को पाते हैं. इस नियंत्रण-बिंदु का स्वरूप है - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व. मानव चेतना को संवेदनाओं द्वारा व्यक्त करने से "मानव संचेतना" कहलाया. संचेतना का अर्थ है - पूर्णता के अर्थ में चेतना. पूर्णता का अर्थ मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना ही होता है. मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना सहज पूर्णता को पाने के लिए "समझदारी" चाहिए. उसके लिए ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय को स्पष्ट किया. पहले आदर्शवाद में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय तीनो को ब्रह्म ही बताया था, अब यहाँ कह रहे हैं - जीवन ज्ञाता है, सहअस्तित्व ज्ञेय है, ज्ञान तीन भाग में है - सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान. इस ज्ञान को विकल्प विधि से लाये.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री के साथ वार्ता में मैंने प्रस्ताव रखा - आप अभी शिक्षा में तीन भूत (लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाजशास्त्र) सब विद्यार्थियों पर चढाते हो. उन तीन भूतों के साथ तीन देवताओं (आवर्तनशील अर्थशास्त्र, मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान, व्यव्हारवादी समाजशास्त्र) को भी चढाओ! फिर देख लो इन में से कौन विजय पाता है.
इससे ज्यादा liberal और इससे ज्यादा generalized कार्यक्रम क्या होगा?
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
अपने मन में किसी भी तरह की शिकायत मत रखना. शिकायत मुक्त होने पर ही हम पूरे हो पाते हैं - नहीं तो वह कहीं न कहीं प्रभाव डालता ही है. जैसे ही हम अपने मन में किसी के प्रति विरोध लाते हैं हम अपना ही मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं. शिकायत तो होना ही नहीं, परम्परा का समीक्षा होना है. परम्परा की हम बात करेंगे. भौतिकवादी परम्परा यह दिया, उससे यह सद्घटना और यह दुर्घटना हुआ. आदर्शवादी परम्परा हमको यह दिया, उससे यह सद्घटना और यह दुर्घटना हुआ.
परम्परा की समीक्षा करने में चूकना नहीं, व्यक्ति को शिकायत का आधार बनाना नहीं.
सभी व्यक्ति किसी न किसी परम्परा में डूबे ही हैं. अलग से व्यक्ति को क्यों कटघरे में लायें? परम्परा कहते हैं, तो उसमे सभी व्यक्ति आ गए. यदि व्यक्तियों का नाम लेने बैठोगे तो कितने व्यक्तियों का नाम लोगे?
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
प्रश्न: आपने कर्म दर्शन में लिखा है - "विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है." इसको और स्पष्ट कर दीजिये.
उत्तर: हर व्यक्ति अपने मन में अपेक्षा के अनुसार आस्वादन करता है. जीव चेतना में रुचि (संवेदनाओं की तृप्ति) के अनुसार आस्वादन होता है. मानव चेतना में व्यवस्था (लक्ष्य व मूल्य) के अनुसार आस्वादन होता है. व्यवस्था मानव के लिए इच्छित वस्तु है. व्यवस्था के स्वरूप को अभी तक विश्लेषित करना नहीं बना था, अब बन गया है. व्यवस्था का स्वरूप अब सूत्रित व्याख्यायित हो गया है. स्वयं का भी विश्लेषण, जिसको पाना है उसका भी विश्लेषण।
जीव चेतना में बिना विश्लेषण के संवेदनाओं की तृप्ति के लिए आदमी दौड़ रहा है. जबकि विश्लेषण पूर्वक ही मूल्यों को स्वीकारना बनता है. मूल्यों को स्वीकारना विश्लेषण के बिना नहीं होगा. मूल्यों को स्वीकारने के फलस्वरूप मानव चेतना होगा.
मूल्यों की स्वीकृति चित्त में होती है - जो साक्षात्कार है. वही बोध व अनुभव में जा कर पूरा होता है.
सात सम्बन्ध विश्लेषित होने के बाद ही मूल्यों के बारे में स्वीकृति होती है कि उनका निर्वाह होना ज़रूरी है. मूल्यों की स्वीकृति होने के बाद स्वाभाविक रूप में उनका निर्वाह होता है.
विश्लेषण से पूर्व रूचि के अनुसार प्रिय-हित-लाभ की स्वीकृति रहती है. विश्लेषण के बाद न्याय-धर्म-सत्य की स्वीकृति रहती है.
अभी तक की शिक्षा प्रिय-हित-लाभ के लिए भय और प्रलोभन के साथ ही पढ़ा रहा है. आदर्शवादी भी जो कुछ बताये वह भय और प्रलोभन के आधार पर ही बताये. वही भौतिकवादी शिक्षा में भी चल रहा है. जितने भी आदर्शवादी शास्त्र और कथाएँ हैं वे भय और प्रलोभन के साथ हैं. वे यह माने हुए हैं कि भय और प्रलोभन पूर्वक ही सच्चाई बोध होगी. झूठ के प्रति भय और सच्चाई के प्रति प्रलोभन होने से आदमी सच्चाई की तरफ जाएगा - ऐसा वहां माना है. जबकि उससे एक भी सच्चाई बोध नहीं हुआ. इन्द्रिय संवेदनाओं और चार विषयों से आगे बढ़ नहीं पाए.
अब यहाँ कह रहे हैं - व्यवस्था के स्वरूप के विश्लेषण के सार रूप में मानव में मूल्य स्वीकृत होता है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
प्रश्न:- मृत्यु क्या है? मृत्यु के भय से कैसे मुक्त हो सकते हैं?
उत्तर: मृत्यु एक घटना है. रचना का विरचना होने की घटना. प्राणपद चक्र में मृत्यु घटना नियति है. प्राणावस्था में रचना-विरचना होना नियम ही है, जिसकी परम्परा है. भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में आरोह-अवरोह स्वाभाविक है. हर भौतिक-रासायनिक वस्तु किसी अवधि के बाद विरचित होता ही है.
जीवन अमर है. समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीने से जीवन तृप्ति मिलती है. समाधानित परम्परा में मृत्यु का शोक व भय नहीं होता. जब भी, जहाँ भी शरीर यात्रा करेंगे उसमें सफल होंगे - यह रहता है. जीवन को नहीं समझने तक ही मृत्यु का भय है. आदर्शवाद में "आत्मा का अमरत्व" प्रतिपादित है. यहाँ मौलिक परिवर्तन है - "जीवन का अमरत्व" का प्रतिपादन. जीवन पर विश्वास हो जाने पर शरीर की विरचना से लगने वाला भय समाप्त हो जाता है. चार विषयों के प्रति आसक्ति भी उसी के साथ समाप्त हो जाता है. आसक्ति नहीं होना चाहिए - यह सभी कहते हैं. पर आसक्ति से मुक्ति होगा कैसे? जीवन पर विश्वास होने से आसक्ति से मुक्ति है. उसी के साथ शरीर की उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता पर विश्वास होता है. समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना उपयोगिता है. समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक जीना सदुपयोगिता है. शरीर सहित व्यवस्था में जीते हुए सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजनशीलता है.
अभयता में शरीर की विरचना के भय से मुक्त रहना एक भाग है, विषयों की आसक्ति से मुक्त रहना दूसरा भाग है. इसमें कहाँ गलती है - आप बताओ! इस समझ के साथ जीने में आदमी के बर्बाद होने की जगह कहाँ है - आप बताओ! इसको छोड़ के आदमी बर्बाद होने के अलावा क्या होगा - आप बताओ!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)