जिज्ञासा = पूरा समझने की इच्छा
प्रमाण = पूरा समझाने का अधिकार
ये दोनों मिलने पर समाज गति होगी. इससे कम में समाज गति नहीं होगी. इससे कम में समाज कुंठित होना ही है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य, तद्रूप, तत्सान्निध्य एवं तदावलोकन है. ईष्ट के नाम, रूप, गुण, एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के अनुपात में सफल होती है." यह परंपरागत भक्ति से कैसे भिन्न है?
उत्तर: रहस्यवादी परम्परा में ईष्ट सेवन को रहस्य से जोड़ा है. परम्परा में रहस्यमयी देवी-देवताओं के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य को कहा है. यहाँ ईष्ट सेवन को जागृत व्यक्ति (देव मानव, दिव्य मानव) से जोड़ रहे हैं. पहले भक्ति का जो सूत्र रहा उसी को बता रहे हैं, पर यहाँ जागृत व्यक्ति के साथ तद्रूप-तदाकार, तत्सान्निध्य की बात कह रहे हैं. यह व्यवहारिक हो गया न? इसका उद्देश्य है भक्ति को पूर्णतया प्रमाणित करना.
यदि आपको यह स्वीकार होता है कि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब मेरे सान्निध्य से आपका उपकार होगा. दूसरे विधि से यदि मैं देव मानव, दिव्य मानव पद में हूँ तब उपकार कर पाऊंगा. इसमें क्या परेशानी है?
प्रश्न: आपके सान्निध्य में मेरा ध्यान वस्तु पर जाता है. तो तदाकार वस्तु के साथ है या जागृत व्यक्ति के साथ?
उत्तर: जागृत व्यक्ति के साथ सान्निध्य होता है, अस्तित्व में वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होता है.
परम्परागत भक्ति में देवी-देवता के आकार में स्वयम को डालो - ऐसा कहते रहे. देवी-देवता के साथ तद्रूप हो जाओ तब मुक्ति मिलेगा - ऐसा कहते रहे. यहाँ हम कह रहे हैं - सहअस्तित्व स्वरूपी वस्तु के साथ तद्रूप-तदाकार होने से भ्रम-मुक्ति होगी. देवमानव, दिव्यमानव के सान्निध्य में तत्सान्निध्य की बात पूरा होता है. यही भ्रम-मुक्ति के लिए स्त्रोत है.
प्रश्न: अध्ययन हेतु सान्निध्य के लिए क्या हमेशा जागृत मानव के साथ रहना ज़रूरी है? जैसे आपसे मिल कर मैं अपने शहर वापस चला जाता हूँ तो क्या मेरा अध्ययन नहीं होगा?
उत्तर: सान्निध्य एक बार होने के बाद उसकी निरंतरता है. सान्निध्य उपरान्त आप अपने शहर वापस जाते हो, फिर हम जैसे फोन पर आगे बात करते हैं तो वह सान्निध्य के आधार पर ही आपको बोध होगा. एक बार सान्निध्य होने के बाद वह सदा स्मरण में बसा ही रहता है. अब कहाँ भागना है, भागो!!
स्मरण में बसने के बाद इसको झटकारा नहीं जा सकता. विरोध होने पर ही झटकारना बनता है. विरोध तब होता है जब हम आपको कोई बात नहीं समझा पाए, या हम आपको ऐसा कह दें कि आप नहीं समझोगे. इसीलिये जागृत व्यक्ति के पास "प्रश्न मुक्ति अभियान" बना रहता है.
इस तरह जागृत मानव के सान्निध्य में ज्ञानार्जन होता है. इसको अच्छे से सोच के देखो. मेरे पास जो समझ है उसको आप शोध करोगे तभी तो आप समझोगे, नहीं तो आप कैसे समझोगे? इससे कम में क्या अध्ययन हो पायेगा? मानव चेतना में नहीं पहुंचेंगे तो जीवचेतना रखा ही है, वहीं रहेंगे.
मानव परम्परा में हर मनुष्य में अनुभव होने का अधिकार समाया है. उसको प्रयोग अभी तक किया नहीं है. अनुभव के अध्ययनगम्य होने की विधि अभी तक इस धरती पर अवतरित नहीं हुई थी. अभी अवतरण के लिए हम प्रयत्न किये हैं. इसमें १०-२० व्यक्तियों के अनुभव संपन्न होने के सत्यापन होने पर हम संतुष्ट होंगे या नहीं होंगे? इसके लिए मैं प्रयत्न कर रहा हूँ या नहीं - आपके अनुसार? इसको उपकार कहा जाए या नहीं? यही उपकार है.
सहअस्तित्व में अनुभव ही तदाकार-तद्रूप विधि का आधार है. जाग्रति के पहले अध्ययन करते समय में तद्रूप जैसा हमे साक्षात्कार होता है. साक्षात्कार होने की जांच है प्रमाणित होना, अभिव्यक्त होना. प्रमाणित होने के लिए जैसे ही संकल्प हुआ अनुभव हो जाता है. वस्तु साक्षात्कार होते तक ही जो कुछ भी समय लगता है, वह लगता है. साक्षात्कार हुआ तो अनुभव होना ही है. चित्त में साक्षात्कार होने पर बुद्धि में बोध होना ही है, फलस्वरूप प्रमाणित होने का संकल्प होना ही है. जैसा ही संकल्पित हुआ, अनुभव होना ही है. सारा प्रयास साक्षात्कार पूरा होने तक ही है. क्या साक्षात्कार होना है? स्वयं में विश्वास का साक्षात्कार होना है. मैं समझा हूँ, इस बात पर मुझको ही विश्वास होना. उसके बाद समझा सकता हूँ, यह दृढ़ विश्वास होना. समझाने के क्रम में सामने व्यक्ति को बोध हुआ या नहीं - यह ज्ञान होता है. सामने व्यक्ति को बोध कराने में सफल हो गए तो अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो गए.
बोध होने पर, समझने पर प्रश्न मुक्ति हो जाती है. समझने के बाद जीना ही है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
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