तुलन में न्याय-धर्म-सत्य आने पर साक्षात्कार होता ही है. तुलन व साक्षात्कार होने पर बोध पूर्वक प्रमाणित करने का संकल्प होता है, फलस्वरूप अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो जाता है. सहअस्तित्व स्वरूपी सत्य में न्याय और धर्म समाया ही है. इसीलिये आत्मा जब सहअस्तित्व में अनुभूत होता है तो जीव-जगत सब समझ में आता है, फलस्वरूप हम प्रमाणित होने योग्य हो जाते हैं. आत्मा मध्यस्थ क्रिया है, उसमें तो सत्य स्वीकृत होता ही है. सत्य के अलावा आत्मा में और कुछ स्वीकृत ही नहीं होता.
प्रश्न: आपने अनुभव दर्शन में लिखा है - "आत्मा प्रकृति का अंश होते हुए भी ब्रह्म से नेष्ठ नहीं है" इसका क्या आशय है?
उत्तर: ब्रह्म व्यापक वस्तु है. आत्मा मध्यस्थ क्रिया होने से और ब्रह्म मध्यस्थ सत्ता होने से इन दोनों की साम्यता है. इस साम्यता का बोध होने के फलस्वरूप अनुभव है. आत्मा व्यापक वस्तु को ज्ञान स्वरूप में अनुभव कर लेता है. अनुभव मूलक विधि से आत्मा ज्ञान को परस्परता में प्रमाणित करने योग्य हो जाता है. परस्परता में सत्य संप्रेषित होता है तो वह आत्मा में अनुभव मूलक विधि से ही होता है. आत्मा जीवन परमाणु का मध्यांश होते हुए, क्रिया होते हुए ब्रह्म से नेष्ठ इसीलिये नहीं है क्योंकि अनुभव मूलक विधि से ही परस्परता में सत्य प्रमाणित होता है, संप्रेषित होता है.
प्रश्न: आपने लिखा है - "आत्मा सम और विषम से मुक्त है". तो भ्रम में जीते हुए मानव, अध्ययनशील मानव और अनुभव संपन्न मानव तीनो में यह सम विषम से मुक्त होगी. फिर अनुभव होने से आत्मा की क्रिया में अंतर क्या हुआ?
उत्तर: आत्मा का सम-विषम से मुक्त होना तो उसकी सदा-सदा की स्थिति है. आत्मा में मध्यस्थ का प्रकाश होना या नहीं होना - इतना ही अंतर है. बुद्धि में सत्य बोध न होने से मध्यस्थ का प्रकाश नहीं हुआ था. इतना ही तो बात है. हम अध्ययन जो करते हैं वह अनुभव होगा इसीलिये करते हैं, उसमे सिलसिले से समाधान निकलता जाता है. इसीलिये अध्ययनशील विद्यार्थी में यह विश्वास बनता है कि अध्ययन से अनुभव होगा.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
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