प्रश्न:- मृत्यु क्या है? मृत्यु के भय से कैसे मुक्त हो सकते हैं?
उत्तर: मृत्यु एक घटना है. रचना का विरचना होने की घटना. प्राणपद चक्र में मृत्यु घटना नियति है. प्राणावस्था में रचना-विरचना होना नियम ही है, जिसकी परम्परा है. भौतिक-रासायनिक वस्तुओं में आरोह-अवरोह स्वाभाविक है. हर भौतिक-रासायनिक वस्तु किसी अवधि के बाद विरचित होता ही है.
जीवन अमर है. समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व पूर्वक जीने से जीवन तृप्ति मिलती है. समाधानित परम्परा में मृत्यु का शोक व भय नहीं होता. जब भी, जहाँ भी शरीर यात्रा करेंगे उसमें सफल होंगे - यह रहता है. जीवन को नहीं समझने तक ही मृत्यु का भय है. आदर्शवाद में "आत्मा का अमरत्व" प्रतिपादित है. यहाँ मौलिक परिवर्तन है - "जीवन का अमरत्व" का प्रतिपादन. जीवन पर विश्वास हो जाने पर शरीर की विरचना से लगने वाला भय समाप्त हो जाता है. चार विषयों के प्रति आसक्ति भी उसी के साथ समाप्त हो जाता है. आसक्ति नहीं होना चाहिए - यह सभी कहते हैं. पर आसक्ति से मुक्ति होगा कैसे? जीवन पर विश्वास होने से आसक्ति से मुक्ति है. उसी के साथ शरीर की उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता पर विश्वास होता है. समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना उपयोगिता है. समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक जीना सदुपयोगिता है. शरीर सहित व्यवस्था में जीते हुए सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही प्रयोजनशीलता है.
अभयता में शरीर की विरचना के भय से मुक्त रहना एक भाग है, विषयों की आसक्ति से मुक्त रहना दूसरा भाग है. इसमें कहाँ गलती है - आप बताओ! इस समझ के साथ जीने में आदमी के बर्बाद होने की जगह कहाँ है - आप बताओ! इसको छोड़ के आदमी बर्बाद होने के अलावा क्या होगा - आप बताओ!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००७, अमरकंटक)
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