सहअस्तित्व में अनुभव होने से न्याय पूर्वक प्रस्तुत होना बनता है.
न्याय व्यव्हार में ही स्पष्ट होता है.
समझा हुआ विधि से आचरण करने पर पता चलता है कि हम न्याय कर पाए या नहीं? जब हम न्याय में प्रमाणित हो जाते हैं तो यह भी समझ में आता है कि दूसरा व्यक्ति प्रमाणित हो रहा है या नहीं?
देखने की बात पहले स्वयं में है, उसके बाद संसार के साथ है.
हम यदि ठीक से प्रस्तुत होते हैं तो सामने वाला व्यक्ति ठीक से प्रस्तुत हो रहा है या नहीं - उसको भी मूल्यांकित करना हमसे बनता है. जब तक हम ठीक से प्रस्तुत नहीं होते, हमारे द्वारा सामने व्यक्ति का मूल्यांकन करना बनता नहीं है. यही मुख्य बात है. इसी आधार पर मनोबल बढ़ता है.
आस्वादन-चयन प्रक्रिया में संबंधों का चयन हम जो करते हैं, उसी में न्याय प्रतिष्ठित होता है. संबंधों को हम संबोधित करते ही हैं. हर सम्बन्ध में हम न्याय पूर्वक प्रकाशित हुए या नहीं? जब तक इसमें मजबूती न आ जाए, इसका शोध करते ही जाना. यदि हम अपने सभी संबंधों में पूरा पड़ गए तो हर सम्बन्ध किसी मानव के साथ ही है, वह कहाँ तक न्याय किया - यह मूल्यांकन करने का अधिकार भी हममे बन जाता है.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००८, अमरकंटक)
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